ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 26
From जैनकोष
311. आह जीवपुद्गलानां गतिमास्कन्दतां देशान्तरसंक्रम:। किमाकाशप्रदेशक्रमवृत्त्या भवति, उताविशेषेणेत्यत आह –
311. गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंका एक देशसे दूसरे देशमें गमन क्या आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिक्रमसे होता है या इसके बिना होता है, अब इसका खुलासा करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
अनुश्रेणि गति:।।26।।
गति श्रेणीके अनुसार होती है।।26।।
312. लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च आकाशाप्रदेशानां क्रमसंनिविष्टानां पङ्क्ति: श्रेणि: इत्युच्यते। ‘अनु’ शब्दस्यानुपूर्व्येण वृत्ति:। [1]श्रेणेरानुपूर्व्येणानुश्रेणीति जीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवतीत्यर्थ:। अनधिकृतानां पुद्गलानां कथं ग्रहणमिति चेत्। गतिग्रहणात्। यदि जीवानामेव गतिरिष्टा स्याद् गतिग्रहणमनर्थकम्; अधिकारात्तत्सिद्धे:। उत्तरत्र जीवग्रहणाच्च पुद्गलसंप्रत्यय:। ननु चन्द्रादीनां ज्योतिष्काणां[2] मेरुप्रदक्षिणाकाले विद्याधरादीनां च विश्रेणिगतिरपि दृश्यते, तत्र किमुच्यते, ‘अनुश्रेणि गति:’ इति। कालदेशनियमोऽत्र वेदितव्य:। तत्र कालनियमस्तावज्जीवानां मरणकाले भवान्तरसंक्रमे मुक्तानां चोर्ध्वगमनकाले अनुश्रेण्येव गति:। देशनियामोऽपि ऊर्ध्वलोकादधोगति, अधोलोकादूर्ध्वगति:, तिर्यग्लोकादधोगतिरूर्ध्वा वा तत्रानुश्रेण्येव। पुद्गलानां च या लोकान्तप्रापिणी सा नियमादनुश्रेण्येव। इतरा गतिर्भजनीया।
312. लोकके मध्यसे लेकर ऊपर नीचे और तिरछे क्रमसे स्थित आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणी कहते हैं। अनु शब्द ‘आनुपूर्वी’ अर्थमें समसित है। इसलिए ‘अनुश्रेणि’ का अर्थ ‘श्रेणीकी आनुपूर्वीसे’ होता है। इस प्रकारकी गति जीव और पुद्गलोंकी होती है यह इसका भाव है। शंका – पुद्गलोंका अधिकार न होनेसे यहाँ उनका ग्रहण कैसे हो सकता है ? समाधान – सूत्रमें गतिपदका ग्रहण किया है इससे सिद्ध हुआ कि अनधिकृत पुद्गल भी यहाँ विवक्षित हैं। यदि जीवोंकी गति ही इष्ट होती तो सूत्रमें गति पदके ग्रहण करनेकी आवश्यकता न थी, क्योंकि गति पदका ग्रहण अधिकारसे सिद्ध है। दूसरे अगले सूत्रमें जीव पदका ग्रहण किया है, इसलिए इस सूत्रमें पुद्गलोंका भी ग्रहण इष्ट है यह ज्ञान होता है। शंका – चन्द्रमा आदि ज्योतिषियोंकी और मेरुकी प्रदक्षिणा करते समय विद्याधरोंकी विश्रेणी गति देखी जाती है, इसलिए जीव और पुद्गलोंकी अनुश्रेणी गति होती है यह किसलिए कहा ? समाधान – यहाँ कालनियम और देशनियम जानना चाहिए। कालनियम यथा – मरणके समय जब जीव एक भवको छोड़कर दूसरे भवके लिए गमन करते हैं और मुक्त जीव जब ऊर्ध्व गमन करते हैं तब उनकी गति अनुश्रेणि ही होती है। देशनियम यथा – जब कोई ऊर्ध्वलोकसे अधोलोकके प्रति या अधोलोकसे ऊर्ध्वलोकके प्रति आता जाता है। इसी प्रकार तिर्यग्लोकसे अधोलोकके प्रति या अधोलोक से ऊर्ध्वलोकके प्रति आता जाता है तब उस अवस्थामें गति अनुश्रेणि ही होती है। इसी प्रकार पुद्गलोंकी जो लोकके अन्तको प्राप्त करानेवाली गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है। इसी प्रकार पुद्गलोंकी जो लोकके अन्तको प्राप्त करानेवाली गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है। हाँ, इसके अतिरिक्त जो गति होती है वह अनुश्रेणि भी होती है और विश्रेणि भी। किसी एक प्रकारकी गति होनेका कोई नियम नहीं है।