ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 28
From जैनकोष
315. यद्यसङ्गस्यात्मनोऽप्रतिबन्धेन गतिरालोकान्तादवाधृतकाला[1] प्रतिज्ञायते, सदेहस्य पुनर्गति: किं प्रतिबन्धिनी उत मुक्तात्मवदित्यत आह-
315. मुक्तात्माकी लोकपर्यन्त गति बिना प्रतिबन्धके नियत समयके भीतर होती है यदि ऐसा आपका निश्चय है तो अब यह बतलाइए कि सदेह आत्माकी की गति क्या प्रतिबन्धके साथ होती है या मुक्तात्मा के समान बिना प्रतिबन्धके होती है, इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
विग्रहवती च संसारिण: प्राक् चतुर्भ्य:।।28।।
संसारी जीवकी गति विग्रहरहित और विग्रहवाली होती है। उसमें विग्रहवाली गति चार समयसे पहले अर्थात् तीन समय तक होती है।।28।।
316. कालावधारणार्थं ‘प्राक्चतुर्भ्य:’ इत्युच्यते। ‘प्राग्’ इति वचनं मर्यादार्थम्, चतुर्थात्समयात्प्राग्विग्रहवती गतिर्भवति न चतुर्थे इति। कुत इति चेत् ? सर्वोत्कृष्टविग्रहनिमित्तनिष्कुटक्षेत्रे उत्पित्सु: प्राणी निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावादिषु गत्यभावे निष्कुटक्षेत्रप्रापणनिमित्तां त्रिविग्रहां गतिमारभते नोर्ध्वाम्; तथाविधोपपादक्षेत्राभावत्। ‘च’शब्द: समुच्चयार्थ:। विग्रहवती चाविग्रहा[2] चेति।
316. कालका अवधारण करनेके लिए ‘प्राक्चतुर्भ्य:’ पद दिया है। ‘प्राक्’ पद मर्यादा निश्चित करनेके लिए दिया है। चार समयसे पहले मोड़ेवाली गति होती है, चौथे समयमें नहीं यह इसका तात्पर्य है। शंका – मोड़ेवाली गति चार समयसे पूर्व अर्थात् तीन समय तक ही क्यों होती है चौथे समय समयमें क्यों नही होती ? समाधान – निष्कुट क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले दूसरे निष्कुट क्षेत्र वाले जीवको सबसे अधिक मोड़े लेने पड़ते हैं; क्योंकि वहाँ आनुपूर्वीसे अनुश्रेणिका अभाव होनेसे इषुगति नहीं हो पाती। अत: यह जीव निष्कुट क्षेत्रको प्राप्त करनेके लिए तीन मोडे़वाली गतिका आरम्भ करता है। यहाँ इससे अधिक मोड़ोंकी आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि इस प्रकारका कोई उपपादक्षेत्र नहीं पाया जाता, अत: मोड़ेवाली गति तीन समय तक ही होती है, चौथे समयमें नहीं होती। ‘च’ शब्द समुच्चयके लिए दिया है। जिससे विग्रहवाली और विग्रहरहित दोनों गतियोंका समुच्चय होता है।