ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 27
From जैनकोष
313. पुनरपि गतिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह -
313. अब फिर भी गति विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
अविग्रहा जीवस्य।।27।।
मुक्त जीवकी गति विग्रहरहित होती है।।27।।
314. विग्रहो व्याघात: कौटिल्यमित्यर्थ:। स यस्यां न विद्यतेऽसावविग्रहा गति:। कस्य ? जीवस्य। कीदृशस्य ? मुक्तस्य। कथं गम्यते मुक्तस्येति ? उत्तरसूत्रे संसारिग्रहणादिह मुक्तस्येति विज्ञायते। ननु च ‘अनुश्रेणि गति:’ इत्यनेनैव श्रेण्यन्तरसंक्रमाभावो व्याख्यात:। नार्थोऽनेन। पूर्वसूत्रे विश्रेणिगतिरपि क्वचिदस्तीति ज्ञापनार्थमिदं वचनम्। ननु तत्रैव देशकालनियम उक्त:। न; अतस्तत्सिद्धे:।
314. विग्रहका अर्थ व्याघात या कुटिलता है जिस गतिमें विग्रह अर्थात् कुटिलता नहीं होती वह विग्रहरहित गति है। शंका – यह किसके होती है ? समाधान – जीवके। शंका - किस प्रकारके जीवके ? समाधान – मुक्त जीवके । शंका – यह किस प्रमाणसे जाना जाता है कि मुक्त जीवके विग्रहरहित गति होती है ? समाधान – अगले सूत्रमें ‘संसारी’ पदका ग्रहण किया है इससे ज्ञात होता है कि इस सूत्रमें मुक्त जीवके विग्रहरहित गति ली गयी है। शंका – ‘अनुश्रेणि गति:’ इस सूत्रसे ही यह ज्ञात हो जाता है कि एक श्रेणिसे दूसरी श्रेणिमें संक्रमण नहीं होता फिर इस सूत्रके लिखनेसे क्या प्रयोजन है ? समाधान – पूर्व सूत्रमें कहींपर विश्रेणिगति भी होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह सूत्र रचा है। शंका – पूर्वसूत्रकी टीकामें ही देशनियम और कालनियम कहा है ? समाधान – नहीं; क्योंकि उसकी सिद्धि इस सूत्रसे होती हे।