267. य: पारिणामिको भावस्त्रिभेद उक्तस्तद्भेदस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह -
267. अब जो तीन प्रकार का पारिणामिक भाव कहा है उसके भेदों के स्वरूप का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
जीवभव्याभव्यत्वानि च।।7।।
पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं – जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व।।7।।
268. जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वमिति त्रयो भावा: पारिणामिका अन्यद्रव्यासाधारणा आत्मनो वेदितव्या:। कुत: पुनरेषां पारिणामिकत्वम्। कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशमानपेक्षित्वात्। जीवत्वं चैतन्यमित्यर्थ:। सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्य:। तद्विपरीतोऽभव्य:। त एते त्रयो भावा जीवस्य पारिणामिका:।
268. जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव अन्य द्रव्यों में नहीं होते इसलिए ये आत्मा के जानने चाहिए। शंका – ये पारिणामिक क्यों हैं ? समाधान – ये तीनों भाव कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं, इसलिए पारिणामिक हैं। जीवत्व का अर्थ चैतन्य है। जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है वह भव्य कहलाता है। अभव्य इसका उलटा है। ये तीनों जीव के पारिणामिक भाव हैं।
269. ननु चास्तित्वनित्यत्वप्र
[1]देशवत्त्वादयोऽपि भावा: पारिणामिका: सन्ति, तेषामिह ग्रहणं कर्तव्यम्। न कर्तव्यम्; कृतमेव। कथम् ? ‘च’
[2]शब्देन समुच्चितत्वात्। यद्येवं त्रय इति संख्या विरुध्यते। न विरुध्यते, असाधारणा जीवस्य भावा: पारिणामिकास्त्रय एव। अस्तित्वादय: पुनर्जीवाजीवविषयत्वात्साधारणा इति ‘च’शब्देन पृथग्गृह्यन्ते। आह, औपशमिकादिभावानुपपत्तिरमूर्तत्वादात्मन:। कर्मबन्धापेक्षा हि
[3]ते भावा:। न चामूर्ते: कर्मणां बन्धो युज्यत इति। तन्न; अनेकान्तात्। नायमेकान्त: अमूर्तिरेवात्मेति। कर्मबन्धपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्त:। शुद्धस्वरूपापेक्षया स्यादमूर्त:। यद्येवं कर्मबन्धावेशादस्यैकत्वे सत्यविवेक: प्राप्नोति। नैष दोष:; बन्धं
[4]प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादस्य नानात्वमवसीयते। उक्तं च –
‘‘बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवइ तस्स णाणत्तं।
तम्हा अमुत्तिभावो णेयंतो होइ जीवस्स।।’’ इति।
269. शंका – अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्त्व आदिक भी भाव हैं उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिए ? समाधान – अलग से उनके ग्रहण करने का कोई काम नहीं; क्योंकि उनका ग्रहण किया ही है। शंका – कैसे ? समाधान - क्योंकि सूत्र में आये हुए ‘च’ शब्द से उनका समुच्चय हो जाता है। शंका - यदि ऐसा है तो ‘तीन’ संख्या विरोध को प्राप्त होती है, क्योंकि इस प्रकार तीन से अधिक पारिणामिक भाव हो जाते हैं ? समाधान – तब भी ‘तीन’ यह संख्या विरोध को नहीं प्राप्त होती, क्योंकि जीव के असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही हैं। अस्तित्वादिक तो जीव और अजीव दोनों के साधारण हैं इसलिए उनका ‘च’ शब्द के द्वारा अलग से ग्रहण किया है। शंका – औपशमिक आदि भाव नहीं बन सकते; क्योंकि आत्मा अमूर्त है। ये औपशमिक आदि भाव कर्मबन्ध की अपेक्षा होते हैं परन्तु अमूर्त आत्मा के कर्मों का बन्ध नहीं बनता है ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है। यह कोई एकान्त नहीं कि आत्मा अमूर्त ही है। कर्मबन्धरूप पर्याय की अपेक्षा उसका आवेश होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है। शंका – यदि ऐसा है तो कर्मबन्ध के आवेश से आत्मा का ऐक्य हो जाने पर आत्मा का उससे भेद नहीं रहता ? समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्योंकि यद्यपि बन्ध की अपेक्षा अभेद है तो भी लक्षण के भेद से कर्म से आत्मा का भेद जाना जाता है। कहा भी है –
‘आत्मा बन्ध की अपेक्षा एक है तो भी लक्षण की अपेक्षा वह भिन्न है। इसलिए जीव का अमूर्तिकभाव अनेकान्तरूप है। वह एक अपेक्षा से है और एक अपेक्षा से नहीं है।’
विशेषार्थ - पारिणामिक भाव तीन हैं – जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। जीवत्व के दो भेद हैं – एक जीवन-क्रियासापेक्ष और दूसरा चैतन्यगुणसापेक्ष। जीवनक्रिया प्राणसापेक्ष होती है, इसलिए ऐसे जीवत्व की मुख्यता नहीं है, यहाँ तो चैतन्यगुणसापेक्ष जीवत्व की ही मुख्यता है। यह सब जीवों में समानरूप से पाया जाता है और कारणनिरपेक्ष होता है, इसलिए इसे पारिणामिक कहा है। यही बात भव्यत्व और अभव्यत्व के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए, क्योंकि ये दोनों भाव भी कारणनिरपेक्ष होते हैं। साधारणत: जिनमें रत्नत्रय गुण प्रकट होने की योग्यता होती है वे भव्य कहलाते हैं और जिनमें ऐसी योग्यता नहीं होती उन्हें अभव्य कहते हैं। जीव में ये दोनों प्रकार की योग्यताएँ स्वभाव से होती हैं। इसी से भव्यत्व और अभव्यत्व ये दोनों भाव भी पारिणामिक माने गये हैं। अभिप्राय यह है कि किन्हीं जीवों का स्वभाव से अनादि-अनन्त बन्ध होता है और किन्हीं का अनादिसान्त। जीवों का इस तरह का बन्ध कारणनिरपेक्ष होता है। यह किसी कर्मविशेष का कार्य नहीं है, किन्तु ऐसी योग्यता पारिणामिक मानी गयी है। इसीसे जीवत्वके साथ भव्यत्व और अभव्यत्व ये दोनों भाव भी कहे गये हैं। यद्यपि जीव में अस्तित्व आदि और बहुत-से पारिणामिक भाव पाये जाते हैं पर वे जीव के असाधारण धर्म न होने से उनकी यहाँ परिगणना नहीं की गयी है।
इन भावों के सम्बन्ध में मुख्य प्रश्न यह है कि जब कि जीव अमूर्त है ऐसी दशामें उसका कर्म के साथ बन्ध नहीं हो सकता और कर्मबन्ध के अभाव में औपशमिक आदि भावों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि पारिणामिक भावों के सिवा शेष भाव कर्मनिमित्तक माने गये हैं? उत्तर यह है कि कर्म का आत्मा से अनादि सम्बन्ध है, इसलिए कोई दोष नहीं आता। आशय यह है कि संसार अवस्था में जीव का कर्म के साथ अनादिकालीन बन्ध होने के कारण वह व्यवहार से मूर्त हो रहा है। और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि मदिरा आदि का सेवन करने पर ज्ञान में मूर्च्छा देखी जाती है। पर इतने मात्र से आत्मा को मूर्तस्वभाव नहीं माना जा सकता है, क्योंकि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये पुद्गल के धर्म हैं। आत्मा मूर्तरूप इन धर्मों से भिन्न उपयोगस्वभाव वाला है।
पूर्व सूत्र
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ प्रदेशत्वा—आ., दि. 1, दि. 2, मु.।
- ↑ कथं चेच्चशब्देन मु.। कथं चेतनशब्देन आ.।
- ↑ ते। न चामूर्ते: कर्मणा आ. दि. 1, दि. 2; ता., ना.।
- ↑ प्रत्येकत्वे (ऽविवेके) सत्य—मु.।