ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 6
From जैनकोष
264. य एकविंशतिविकल्प औदयिको भावउद्दिष्टस्तस्य [1]भेदसंज्ञासंकीर्तनार्थमिदमुच्यते-
264. अब जो इक्कीस प्रकार का औदयिक भाव कहा है उसके भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदा:।।6।।
औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं – चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्ध भाव और छह लेश्याएँ।।6।।
265. यथाक्रममित्यनुवर्तते, तेनाभिसंबन्धाद् गतिश्चतुर्भेदा, नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगति-र्देवगतिरिति। तत्र नरकगतिनामकर्मोदयान्नारको भावो भवतीति नरकगतिरौदयिकी। एवमितरत्रापि। कषायश्चतुर्भेद:, क्रोधो मानो माया लोभ इति। तत्र क्रोधनिर्वर्तनस्य कर्मण उदयात्क्रोध: औदयिक:। एवमितरत्रापि। लिङ्गं त्रिभेदं , स्त्रीवेद: पुंवेदो नपुंसकवेद इति। स्त्रीवेदकर्मण उदयात्स्त्रीवेद औदयिक:। एवमितरत्रापि। मिथ्यादर्शनमेकभेदम्। मिथ्यादर्शनकर्मण उदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनमौदयिकम् । ज्ञानावरणकर्मण उदयात्पदार्थानवबोधो भवति तदज्ञानमौदयिकम्। चारित्रमोहस्य सर्वघातिस्पर्द्धकस्योदयादसंयत औदयिक:। कर्मोदयसामान्यापेक्षोऽसिद्ध औदयिक:। लेश्या द्विविधा, द्रव्यलेश्या भावलेश्या चेति। जीवभावाधिकाराद् द्रव्यलेश्या नाधिकृता। भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते। सा षड्विधा – कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या चेति।
265. इस सूत्रमें ‘यथाक्रमम्’ पद की अनुवृत्ति होती है, क्योंकि यहाँ उसका सम्बन्ध है। गति चार प्रकार की है – नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। इनमें-से नरक गति नामकर्म के उदय से नारकभाव होता है, इसलिए नरकगति औदयिक है। इसी प्रकार शेष तीन गतियों का भी अर्थ करना चाहिए। कषाय चार प्रकार का है – क्रोध, मान, माया और लोभ। इनमें से क्रोध को पैदा करने वाले कर्म के उदयसे क्रोध औदयिक होता है। इसी प्रकार शेष तीन कषायों को औदयिक जानना चाहिए। लिंग तीन प्रकार का है – स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। स्त्रीवेद कर्म के उदय से स्त्रीवेद औदयिक होता है। इसी प्रकार शेष दो वेद औदयिक हैं। मिथ्यादर्शन एक प्रकार का है। मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जो तत्त्वों का अश्रद्धानरूप परिणाम होता है वह मिथ्यादर्शन है, इसलिए वह औदयिक है। पदार्थों के नहीं जानने को अज्ञान कहते हैं। चूंकि वह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है, इसलिए औदयिक है। असंयतभाव चारित्रमोहनीय कर्म के सर्वघातीस्पर्धकों के उदय से होता है, इसलिए औदयिक है। असिद्धभाव कर्मोदय सामान्य की अपेक्षा होता है, इसलिए औदयिक है। लेश्या दो प्रकार की है – द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। यहाँ जीव के भावों का अधिकार होने से द्रव्यलेश्या नहीं ली गयी है। चूंकि भावलेश्या कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्तिरूप है, इसलिए वह औदयिक है ऐसा कहा जाता है। वह छह प्रकार की है – कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या।
266. ननु च उपशान्तकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्याऽस्तीत्यागम:। तत्र कषायानुरञ्जनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोष; पूर्वभावप्रज्ञापननया[2]पेक्षया यासौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते।
266. शंका – उपशान्तकषाय, क्षीणकषायऔर सयोगकेवली गुणस्थानमें शुक्ललेश्या है ऐसा आगम है, परन्तु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नहीं बन सकता। समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषायों के उदय से अनुरंजित होती रही वही यह है इस प्रकार पूर्वभावप्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्तकषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है। किन्तु अयोगकेवली के योगप्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए वे लेश्यारहित हैं ऐसा निश्चय होता है।
विशेषार्थ – कर्मों की जातियाँ और उनके अवान्तर भेद अनेक हैं, इसलिए उनके उदय से होनेवाले भाव भी अनेक हैं, पर यहाँ मुख्य-मुख्य औदयिक भाव ही गिनाये गये हैं। ऐसे भाव इक्कीस होते हैं। प्रथम चार भेद चार गति हैं। ये गति-नामकर्म के उदय से होते हैं। नामकर्म अघातिकर्म है। गति-नामकर्म उसी का एक भेद है। जो प्रकृत में अन्य जीवविपाकी अघाति कर्मों का उपलक्षण है। पुद्गलविपाकी कर्मों के उदय से जीवभाव नहीं होते, अत: उनकी यहाँ परिगणना नहीं की गयी है। घाति कर्मों में क्रोधादि चारों कषायों के उदय से क्रोधादि चार भाव होते हैं। तीन वेदों के उदय से तीन लिंग होते हैं। तीन वेद उपलक्षण हैं। इनसे हास्य आदि छह भावों का भी ग्रहण होता है। दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यादर्शन होता है। दर्शनावरण के उदय से होने वाले अदर्शनभावों का इसी में ग्रहण होता है। ज्ञानावरण के उदय से अज्ञानभाव होता है, असंयत भाव चारित्रमोहनीय के उदय का कार्य है और असिद्ध भाव सब कर्मों के उदय का कार्य है। रहीं लेश्याएँ सो ये कषाय और योग इनके मिलने से उत्पन्न हुई परिणति विशेष हैं। फिर भी इनमें कर्मोदय की मुख्यता होने से इनकी औदयिक भावों में परिगणना की गयी है। इन भावों में कर्मों का उदय निमित्त है, इसलिए इन्हें औदयिक कहते हैं।