संज्ञी
From जैनकोष
मन के सद्भाव के कारण जिन जीवों में शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकार से विचार, तर्क आदि करने की शक्ति है वे संज्ञी कहलाते हैं। यद्यपि चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओं में भी इष्ट पदार्थ की प्राप्ति के प्रति गमन और अनिष्ट पदार्थों से हटने की बुद्धि देखी जाती है पर उपरोक्त लक्षण के अभाव में वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते।
१. संज्ञी-असंज्ञी सामान्य का लक्षण
१. शिक्षा आदि ग्राही के अर्थ में
पं.सं./प्रा./१/१७३ सिक्खाकिरिओवएसा आलावगाही मणोवलंबेण। जो जीवो सो सण्णी तव्विवरीओ असण्णी य।१७३। =जो जीव मन के अवलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है उसे संज्ञी कहते हैं, जो इनसे विपरीत है उसको असंज्ञी कहते हैं। (ध.१/१,१,४/गा;९७/१५२); (त.सा./२/९३); (गो.जी./मू./६६१); (पं.सं./सं.१/३१९)।
रा.वा./९/७/११/६०४/१७ शिक्षाक्रियालापग्राही संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी। =जो जीव शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है सो संज्ञी और उससे विपरीत असंज्ञी है। (ध.१/१,१,४/ १५२/४); (ध.७/२,१,३/७/७); (पं.का./ता.वृ./११७/१८०/१३)।
२. मन सहित के अर्थ में
त.सू./२/२४ संज्ञिन: समनस्का:।२४। =मन वाले जीव संज्ञी होते हैं। (ध.१/१,१,३५/२५९/६)।
पं.सं./प्रा./१/१७४-१७५ मीमंसइ जो पुव्वं कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च। सिक्खइ णामेणेदि य समणो अमणो य विवरीओ।१७४। एवं कए मए पुण एवं होदि त्ति कज्ज णिप्पत्ती। जो दु विचारइ जीवो सो सण्णि असण्णि इयरो य।१७५। =जो जीव किसी कार्य को करने से पूर्व कर्तव्य और अकर्तव्य की मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्त्व का विचार करे, योग्य को सीखे और उसके नाम को पुकारने पर आवे सो समनस्क है, उससे विपरीत अमनस्क है। (गो.जी./मू./६६२) जो जीव ऐसा विचार करता है कि मेरे इस प्रकार कार्य करने पर कार्य की निष्पत्ति होगी, वह संज्ञी है और इससे विपरीत असंज्ञी है।
रा.वा./२/६/५/१०९/१३ हिताहितापरीक्षां प्रत्यसामर्थ्यं असंज्ञित्वम् । =हिताहित परीक्षा के प्रति असामर्थ्य होना सो असंज्ञित्व है।
ध.१/१,१,४/१५२/३ सम्यक् जानातीति संज्ञं मन:, तदस्यास्तीति संज्ञी। =जो भली प्रकार जानता है उसको संज्ञ अर्थात् मन कहते हैं, वह मन जिसके पाया जाता है उसको संज्ञी कहते हैं।
गो.जी./मू./६६० णोइंदिय आवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा। सा जस्सा सो दु सण्णो इदरो सेसिंदियअवबोहो। = नोइन्द्रिय कर्म के क्षयोपशम से तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं वह जिसको हो उसको संज्ञी कहते हैं और जिनके यह संज्ञा न हो किन्तु केवल यथासम्भव इन्द्रिय ज्ञान हो उसको असंज्ञी कहते हैं।
पं.का./ता.वृ./११७/१८०/१५ नोइन्द्रियावरणस्यापि क्षयोपशमलाभात्संज्ञिनो भवन्ति। =नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव संज्ञी होते हैं।
द्र.सं./टी./१२/३०/१ समस्तशुभाशुभविकल्पातीतपरमात्मद्रव्यविलक्षणं नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते, तेन सह ये वर्तन्ते ते समनस्का: संज्ञिन:, तद्विपरीता अमनस्का असंज्ञिन: ज्ञातव्या:। =समस्त शुभाशुभ विकल्पों से रहित परमात्मरूप द्रव्य उससे विलक्षण अनेक तरह के विकल्पजाल रूप मन है, उस मन से सहित जीव को संज्ञी कहते हैं। तथा मन से शून्य अमनस्क अर्थात् असंज्ञी है।
२. संज्ञी मार्गणा के भेद
ष.खं.१/१,१/सू.१७२/४०८ सण्णियाणुवादेण अत्थि सण्णी असण्णी।१७२। [णेव सण्णि णेव असण्णिणो वि अत्थि ध./२]।=संज्ञी मार्गणा के अनुवाद से संज्ञी और असंज्ञी जीव होते हैं।१७२। संज्ञी तथा असंज्ञी विकल्प रहित स्थान भी होता है। (रा.वा./९/७/११/६०८/१८); (ध.२/१,१/४१९/११); (द्र.सं./टी./१३/४०/३)।
३. संज्ञी मार्गणा का स्वामित्व
१. गति आदि की अपेक्षा
पं.का./सू./१११ मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया।१११। =मन परिणाम से रहित एकेन्द्रिय जीव जानने।
रा.वा./२/११/३/१२५/२७ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पञ्चेन्द्रियेषु च केषांश्चित् मनोविषयविशेषव्यवहाराभावात् अमनस्क। =एक, दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रिय जीवों में कोई जीव मन के विषयभूत विशेष व्यापार के अभाव से अमनस्क है।
द्र.सं./टी./१२/३०/४ संज्ञ्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियास्तिर्यञ्च एव, नारकमनुष्यदेवा: संज्ञिपञ्चेन्द्रिया एव।...पञ्चेन्द्रियात्सकाशात् परे सर्वे द्वित्रिचतुरिन्द्रिया:।...बादरसूक्ष्मा एकेन्द्रियास्तेऽपि ...असंज्ञिन एव। =पञ्चेन्द्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी दोनों होते हैं, ऐसे संज्ञी तथा असंज्ञी ये दोनों पंचेन्द्रिय। तिर्यंच ही होते हैं। नारकी मनुष्य और देव संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। पंचेन्द्रिय से भिन्न अन्य सब द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, और चतुरिन्द्रिय जीव मन रहित असंज्ञी होते हैं। बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय हैं वे भी...असंज्ञी है।
गो.जी./जी.प्र./६९७/११३३/८ जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ। तु-पुन: असंज्ञिजीव: स्थावरकायाद्यसंज्ञ्यन्तं मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने एव स्यान्नियमेन तत्र जीवसमासा द्वादशसंज्ञिनो द्वयाभावात् । =संज्ञीमार्गणा में पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं। असंज्ञी जीव स्थावरकाय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त होते हैं। इनमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान तथा जीवसमास संज्ञी सम्बन्धी पर्याप्त और इन दो को छोड़कर शेष बारह होते हैं।
२. गुणस्थान व सम्यक्त्व की अपेक्षा
ष.खं.१/१,१/सू.१७३/४०८ सण्णी मिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जीव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति।१७३। =संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय, वीतराग, छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।
ति.प./५/२९९ तेत्तीसभेदसंजुदतिरिक्खजीवाण सव्वकालम्मि। मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छं सण्णीणं तं माणं।२९९। =संज्ञी जीवों को छोड़कर शेष तेतीस प्रकार के भेदों से युक्त तिर्यंचों के (देखें - जीवसमास ) सर्व काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है।
गो.जी./मू./६९७ सण्णी सण्णिप्पहुदी खीणकसाओत्ति होदि णियमेण। =संज्ञी जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होते हैं।
देखें - संज्ञी / ३ / १ में गो.जी.असंज्ञी जीवों में नियम से एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/४ सासादनरुचौ...असंज्ञिसंज्ञितिर्यङ्मनुष्येषु...। सासादनसम्यक्त्व में...संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्यों में...।
४. एकेन्द्रियादिक में मन के अभाव सम्बन्धी शंका समाधान
रा.वा./५/१९/३०-३१/४७२/२६ यदि मनोऽन्तरेण इन्द्रियाणां वेदनावगमो न स्यात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च वेदनावगमो न स्यात् ।३०। ...पृथगुपकारानुपलम्भात् तदभाव इति चेत्; न; गुणदोषविचारादिदर्शनात् ।३१।...अतोऽस्त्यन्त:करणं मन:। =यदि मन के बिना इन्द्रियों में स्वयं सुख-दु:खानुभव न हो तो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को दु:ख का अनुभव नहीं होना चाहिए। प्रश्न - मन का (इन्द्रियों से) पृथक् उपकार का अभाव होने से मन का भी अभाव है ? उत्तर - नहीं, गुण-दोष विचार आदि मन के स्वतन्त्र कार्य हैं इसलिए मन का स्वतन्त्र अस्तित्व है।
ध.१/१,७३/३१४/४ विकलेन्द्रियेषु मनसोऽभाव: कुतोऽवसीयत ति चेदार्षात् । कथमार्षस्य प्रामाण्यमिति चेत्स्वाभाव्यात्प्रत्यक्षस्येव। =प्रश्न - विकलेन्द्रियों में मन का अभाव है यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? उत्तर - आगम प्रमाण से जाना जाता है। और आगम प्रत्यक्ष की भाँति स्वभाव से प्रमाण है।
पं.का./ता.वृ./११७/१८०/१६ क्षयोपशमविकल्परूपं हि मनो भण्यते तत्तेषामप्यस्तीति कथमसंज्ञिन:। परिहारमाह। यथा पिपीलिकाया गन्धविषये जातिस्वभावेनैवाहारादिसंज्ञारूपं पटुत्वमस्ति न चान्यत्र कार्यकारणव्याप्तिज्ञानविषये अन्येषामप्यसंज्ञिनां तथैव। =प्रश्न - क्षयोपशम के विकल्परूप मन होता है। वह एकेन्द्रियादि के भी होता है, फिर वे असंज्ञी कैसे हैं। उत्तर - इसका परिहार करते हैं। जिस प्रकार चींटी आदि गन्ध के विषय में जाति स्वभाव से ही आहारादि रूप संज्ञा में चतुर होती है, परन्तु अन्यत्र कारणकार्य व्याप्तिरूप ज्ञान के विषय में चतुर नहीं होती, इसी प्रकार अन्य भी असंज्ञी जीवों के जानना।
५. मन के अभाव में श्रुतज्ञान की उत्पत्ति कैसे
ध.१/१,१,३५/२६१/१ अथ स्यादर्थालोकमनस्कारचक्षुर्भ्य: संप्रवर्तमानं रूपज्ञानं समनस्केषूपलभ्यते तस्य कथममनस्केष्वाविर्भाव इति नैष दोष: भिन्नजातित्वात् । =प्रश्न - पदार्थ, प्रकाश, मन और चक्षु इनसे उत्पन्न होने वाला रूप ज्ञान समनस्क जीवों में पाया जाता है, यह तो ठीक है, परन्तु अमनस्क जीवों में उस रूपज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि समनस्क जीवों के रूप ज्ञान से अमनस्क जीवों का रूप ज्ञान भिन्न जातीय है।
ध.१/१,१,७३/३१४/१ मनस: कार्यत्वेन प्रतिपन्नविज्ञानेन सह तत्रतनविज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रत्यविशेषान्मनोनिबन्धनत्वमनुमीयत इति चेन्न, भिन्नजातिस्थितविज्ञानेन सहाविशेषानुपपत्ते:। =प्रश्न - मनुष्यों में मन के कार्ययप से स्वीकार किये गये विज्ञान के साथ विकलेन्द्रियों में होने वाले विज्ञान की ज्ञान सामान्य की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि विकलेन्द्रियों का विज्ञान भी मन से उत्पन्न होता होगा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि भिन्न जाति में स्थित विज्ञान के साथ भिन्न जाति में स्थित विज्ञान की समानता नहीं बनती।
ध.१/१,१,११६/३६१/८ अमनसां तदपि कथमिति चेन्न, मनोऽन्तरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपलम्भतोऽनेकान्तात् । =प्रश्न - मन रहित जीवों में श्रुतज्ञान कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिए मन सहित जीवों के ही श्रुतज्ञान मानने में उनसे अनेकान्त दोष आता है। (और भी दे अगला शीर्षक)।
६. श्रोत्र के अभाव में श्रुतज्ञान कैसे
ध.१/१,१,११६/३६१/६ कथमेकेन्द्रियाणां श्रुतज्ञानमिति चेत्कथं च न भवति। श्रोत्राभावान्न शब्दावगतिस्तदभावान्न शब्दार्थावगन इति; नैष दोष:, यतो नायमेकान्तोऽस्ति शब्दार्थावबोध एव श्रुतमिति। अपि तु अशब्दरूपादपि लिङ्गाल्लिङ्गिज्ञानमपि श्रुतमिति। =प्रश्न - एकेन्द्रियों के श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है ? उत्तर - कैसे नहीं हो सकता है। प्रश्न - एकेन्द्रियों के श्रोत्र इन्द्रिय का अभाव होने से शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता, शब्दज्ञान के अभाव में शब्द के विषयभूत अर्थ का भी ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए उनके श्रुतज्ञान नहीं होता यह बात सिद्ध है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह एकान्त नियम नहीं है कि शब्द के निमित्त से होने वाले पदार्थ के ज्ञान को ही श्रुत कहते हैं। किन्तु शब्द से भिन्न रूपादिक लिंग से भी जो लिंगी का ज्ञान होता है उसे भी श्रुतज्ञान कहते हैं।
ध.१३/५,५,२१/२१०/९ एइंदिएसु सोद-णोइंदियवज्जिएसु कधं सुदणाणुप्पत्ती। ण, तत्थ मणेण विणा वि जादिविसेसेण लिंगिविसयाणाणुप्पत्तीए विरोहाभावादो। =प्रश्न - एकेन्द्रिय जीव श्रोत्र और नोइन्द्रिय से रहित होते हैं, उनके श्रुतज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर - नहीं, क्योंकि वहाँ मन के बिना भी जाति विशेष के कारण लिंगी विषयक ज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध नहीं आता।
७. संज्ञी में क्षयोपशम भाव कैसे है
ध.७/२,१,८३/१११/१० णोइंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं जादिवसेण अणंतगुणहाणीए हाइदूण देसघादित्तं पाविय उवसंताणमुदएण सण्णित्तदंसणादो। =नोइन्द्रियावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के अपनी जाति विशेष के प्रभाव से अनन्तगुणी हानिरूप घात के द्वारा देशघातित्व को प्राप्त होकर उपशान्त हुए पुन: उन्हीं के उदय से संज्ञित्व उत्पन्न होता देखा जाता है।
८. अन्य सम्बन्धित विषय
- संज्ञा व संज्ञी में अन्तर। - देखें - संज्ञा।
- संज्ञी जीव सम्मूर्च्छन भी होते हैं। - देखें - सम्मूर्च्छन।
- असंज्ञी जीव में वचन प्रवृत्ति कैसे सम्भव है। - देखें - योग / ४ ।
- असंज्ञियों में देवादि गतियों का उदय व तत्सम्बन्धी शंका-समाधान। - देखें - उदय / ५ ।
- संज्ञित्व में कौन सा भाव है। - देखें - भाव / २ ।
- संज्ञी के गुणस्थान, जीवसमास, आदि के स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। - दे.वह वह नाम।
- संज्ञी के सत्, संख्या, क्षेत्र आदि सम्बन्धी ८ प्ररूपणाएँ। - दे.वह वह नाम।
- सभी मार्गणा में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें - मार्गणा।