इंद्रिय
From जैनकोष
शरीरधारी जीवको जाननेके साधन रूप स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियाँ होती है। मनको ईषत् इन्द्रिय स्वीकार किया गया है। ऊपर दिखाई देनेवाली तो बाह्य इन्द्रियाँ हैं। इन्हें द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। इनमें भी चक्षुपटलादि तो उस उस इन्द्रियके उपकरण होनेके कारण उपकरण कहलाते हैं; और अन्दरमें रहने वाला आँखकी व आत्म प्रदेशोंकी रचना विशेष निवृत्ति इन्द्रिय कहलाती है। क्योंकि वास्तवमें जाननेका काम इन्हीं इन्द्रियोंसे होता है उपकरणोंसे नहीं। परन्तु इनके पीछे रहनेवाले जीवके ज्ञानका क्षयोपशम व उपयोग भावेन्द्रिय है, जो साक्षात् जाननेका साधन है। उपरोक्त छहों इन्द्रियोमें चक्षु और मन अपने विषयको स्पर्श किये बिना ही जानती हैं, इसलिए अप्राप्यकारी हैं। शेष इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं। संयमकी अपेक्षा जिह्वा व उपस्थ ये दो इन्द्रियाँ अत्यन्त प्रबल हैं और इसलिए योगीजन इनका पूर्णतया निरोद करते हैं।
1. भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान
1. इन्द्रिय सामान्यका लक्षण
2. इन्द्रिय सामान्य भेद
3. द्रव्यन्द्रियके उत्तर भेद
4. भावेन्द्रियके उत्तर भेद
• लब्धि व उपयोग इन्द्रिय - देखें वह वह नाम
• इन्द्रिय व मन जीतनेका उपाय - देखें संयम - 2
5. निर्वृत्ति व उपकरण भावेन्द्रियोंके लक्षण
6. भावेन्द्रिय सामान्य का लक्षण
7. पाँचों इन्द्रियोंके लक्षण
8. उपयोगको इन्द्रिय कैसे कह सकते हैं
9. चल रूप आत्मप्रदेशोंमें इन्द्रियपना कैसे घटितहोता है।
2. इन्द्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपन
1. इन्द्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेका निर्देश
• चार इन्द्रियाँ प्राप्त व अप्राप्त सब विषयोंको ग्रहण करती है - देखें अवग्रह - 3.5
2. चक्षुको अप्राप्यकारी कैसे कहते हो
3. श्रोत्रको भी अप्राप्यकारी क्यों नहीं मानते
4. स्पर्शनादि सभी इन्द्रियोंमें भी कथंचित् अप्राप्यकारीपने सम्बन्धी
5. फिर प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन
3. इन्द्रिय निर्देश
1. भावेन्द्रिय ही वास्तविक इन्द्रिय है
2. भावेन्द्रियको ही इन्द्रिय मानते हो तो उपयोग शून्य दशामें या संशयादि दशामें जीव अनिन्द्रिय हो जायेगा
3. भावेन्द्रिय होनेपर ही द्रव्येन्द्रिय होती है
4. द्रव्येन्द्रियोंका आकार
5. इन्द्रियोंकी अवगाहना
6. इन्द्रियोंका द्रव्य व क्षेत्रकी अपेक्षा विषय ग्रहण
7. इन्द्रियोंके विषयका काम व भोग रूप विभाजन
8. इन्द्रियोंके विषयों सम्बन्धी दृष्टिभेद
9. ज्ञानके अर्थमें चक्षुका निर्देश
• मन व इन्द्रियोंमें अन्तर सम्बन्धी - देखें मन - 3
• इन्द्रिय व इन्द्रिय प्राणमें अन्तर - देखें प्राण
• इन्द्रियकषाय व क्रियारूप आस्रवोंमे अन्तर - देखें क्रिया
• इन्द्रियोंमे उपस्थ व जिह्वा इन्द्रियकी प्रधानता - देखें संयम - 2
4. इन्द्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश
1. इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा जीवोंके भेद
• दो चार इन्द्रियवाले विकलेन्द्रिय; और पंचेन्द्रिय सकलेन्द्रिय कहलाते हैं - देखें त्रस
2. एकेन्द्रियादि जीवोंके लक्षण
3. एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय पर्यन्त इन्द्रियोंका स्वामित्व
• एकेन्द्रियादि जीवोंके भेद - देखें जीव समास
• एकेन्द्रियादि जीवोंकी अवगाहना - देखें अवगाहना - 2
4. एकेन्द्रिय आदिकोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व
• सयगो व अयोग केवलीको पंचेन्द्रिय कहने सम्बन्धी - देखें केवली - 5
5. जीव अनिन्द्रिय कैसे हो सकता है
• इन्द्रियोंके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ - देखें सत्
• इन्द्रिय सम्बन्धी सत् (स्वामित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - देखें वह वह नाम
• इन्द्रिय मार्गणामें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम - देखें मार्गणा
• इन्द्रिय मार्गणासे सम्भव कर्मोका बन्ध उदय सत्त्व - देखें वह वह नाम
• कौन-कौन जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न हो और क्या क्या गुण उत्पन्न करे - देखें जन्म - 6
• इन्द्रिय मार्गणामे भावेन्द्रिय इष्ट है - देखें इन्द्रिय - 3
5. एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय निर्देश
• त्रस व स्थावर - देखें वह वह नाम
• एकेन्द्रियोंमें जीवत्वकी सिद्धि - दे स्थावर
• एकेन्द्रियोंका लोकमें अवस्थान - देखें स्थावर
• एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय नियमसे सम्मूर्छिम ही होते है - देखें संमूर्च्छन
• एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियोमें अंगोपांग, संस्थान, संहनन, व दुःस्वर सम्बन्धी नियम - देखें उदय
1. एकेन्द्रिय असंज्ञी होते हैं
• एकेन्द्रिय आदिकोमें मनके अभाव सम्बन्धी - देखें संज्ञी
• एकेन्द्रिय जाति नामकर्मके बन्ध योग्य परिणाम - देखें जाति
• एकेन्द्रियोमें सासादन गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा - दे जन्म
• एकेन्द्रिय आदिकोमें क्षायिक सम्यक्त्वके अभाव सम्बन्धी - देखें तिर्यञ्च गति
• एकेन्द्रियोंसे सीधा निकल मनुष्य हो क्षायिक सम्यक्त्व व मोक्ष प्राप्त करनेकी सम्भावना - देखें जन्म - 5
• विकलेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जीवोंका लोकमें अवस्थ न - देखें तिर्यञ्च - 3
1. भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धी शंका-समाधान
1. इन्द्रिय सामान्यका लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/65 अहमिंदा जह देवा अविसेसं अहमदं त्ति मण्णंता। ईसंति एक्कमेक्कं इंदा इव इंदियं जाणे ॥65॥
= जिस प्रकार अहमिन्द्रदेव बिना किसी विशेषताके `मैं इन्द्र हूँ, मैं इन्द्र हूँ' इस प्रकार मानते हुए ऐश्वर्यका स्वतन्त्र रूपसे अनुभव करते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियोंको जानना चाहिए। अर्थात् इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंको सेवन करनेमें स्वतन्त्र हैं।
( धवला पुस्तक 1/1,1,4/85/137), ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा 164), (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/78)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/14/108/3 इन्दतीति इन्द्र आत्मा। तस्य ज्ञस्वभावस्य तदा वरणक्षयोपशने सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिङ्ग तदिन्द्रस्य लिंङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थं गमयतीति लिङ्गम्। आत्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिङ्गमिन्द्रियम्। यथा इह धूमोऽग्ने।...अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते। चेन सृष्टमिन्द्रियमिति।
= 1. इन्द्र शब्दका व्यत्वत्तिलभ्य अर्थ है, `इन्दतीति इन्द्र' जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है वह इन्द्र है। यहाँ इन्द्र शब्दका अर्थ आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है तो भी मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमके रहते हुए स्वयं पदार्थोंको जाननेमें असमर्थ है। अतः उसको जो जाननेमें लिंग (निमित्त) होता है वह इन्द्रका लिंग इन्द्रिय कही जाती है। 2. अथवा जो लीन अर्थात् गूढ पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं। इसके अनुसार इन्द्रिय शब्दका अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्माके अस्तित्वका ज्ञान करानेमे लिंग अर्थात् कारण है उसे इन्द्रिय कहते हैं। जैसे लोकमें धूम अग्निका ज्ञान करानेमें कारण होता है। 3. अथवा इन्द्र शब्द नामकर्मका वाची है। अतः यह अर्थ हुआ कि जिससे रची गयी इन्द्रिय है।
(राजवार्तिक अध्याय 1/14/1/59), (राजवार्तिक अध्याय 2/15/1-2/129), (राजवार्तिक अध्याय 9/7/11/603/28), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/232/1), ( धवला पुस्तक 7/2,1,2/6/7)
धवला पुस्तक 1/1,1,4/135-137/6 प्रत्यक्षनिरतानीन्द्रियाणि। अक्षाणीन्द्रियाणि। अक्षमक्षं प्रतिवर्तत इति प्रत्यक्षविषयोऽक्षजो बोधो वा। तत्र निरतानि व्यापृतानि इन्द्रियाणि।...स्वेषां विषयः स्वविषयस्तत्र निश्चयेन निर्णयेन रतानीन्द्रियाणी।....अथवा इन्दनादाधिपत्यादिन्द्रियाणि।
= 1. जो प्रत्यक्षमें व्यापार करती है उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं। जिसका खुलासा इस प्रकार है अक्ष इन्द्रियको कहते हैं और जो अक्ष अक्षके प्रति अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके प्रति रहता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। जो कि इन्द्रियोंका विषय अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञानरूप पड़ता है। उस इन्द्रिय विषय अथवा इन्द्रिय ज्ञान रूप जो प्रत्यक्षमें व्यापार करती हैं, उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं। 2.इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयमें रत हैं। अर्थात् व्यापार करती हैं। ( धवला पुस्तक 7/2,1,2/6/7) 3. अथवा अपने-अपने विषयका स्वतन्त्र आधिपत्य करनेसे इन्द्रियाँ कहलाती है।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 165 में उद्धृत “यदिन्द्रस्यात्मनो लिङ्गं यदि वा इन्द्रेण कर्मणा। सृष्टं जुष्टं तथा दृष्टं दत्तं वेति तदिन्द्रियः।
= इन्द्र जो आत्मा ताका चिह्न सो इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र जो कर्म ताकरि निपज्या वा सेया वा तैसे देख्या वा दीया सो इन्द्रिय है।
2. इन्द्रिय सामान्य के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/15,16,19 पञ्चेन्द्रियाणि ॥15॥ द्विविधानि ॥16॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥19॥
= इन्द्रियाँ पाँच है ॥15॥ वे प्रत्येक दो-दो प्रकारकी हैं ॥16॥ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये इन्द्रियाँ हैं ॥19॥
(राजवार्तिक अध्याय 9/17/11/603/29)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/16/179/1 कौ पुनस्तौ द्वौ प्रकारौ द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियमिति।
= प्रश्न - वे दो प्रकार कौन-से हैं? उत्तर - द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय
(राजवार्तिक अध्याय 2/16/1/130/2), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/232/2), ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा 165)
3. द्रव्येन्द्रियके उत्तर-भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/17 निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥17॥ सा द्विविधा, बाह्याभ्यन्तरभेदात् (स.सि)।
= निर्वृत्ति और उपकरण रूप द्रव्येन्द्रिय है ॥17॥ निर्वृत्ति दो प्रकारकी है - बाह्यानिर्वृत्ति और आभ्यन्तरनिर्वृत्ति।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/17/175/4), (राजवार्तिक अध्याय 2/17/2/130), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/232/3)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/17/175/8 पूर्ववत्तदपि द्विविधम्।
= निर्वृत्तिके समान यह भी दो प्रकारकी है - बाह्य और आभ्यन्तर।
(राजवार्तिक अध्याय 2/17/6/130/16) ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/236/3)
4. भावेन्द्रियके उत्तर-भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/18 लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥18॥
= लब्धि ओर उपयोग रूप भावेन्द्रिय हैं।
( धवला पुस्तक 1/1,1,33/236/5)
5. निर्वृत्ति व उपकरण भावेन्द्रियों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/1,7/175/3 निर्वृत्यते इति निर्वृत्तिः। केन निर्वृत्यते। कर्मणा। सा द्विविधाः बाह्याभ्यन्तरभेदात्। उत्सेधाङ्गुलासंख्येयभागप्रतिमानां शुद्धात्मप्रदेशामां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृत्तिः। तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियतसंस्थाननामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निर्वृत्तिः। येन निर्वृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम्। पूर्ववत्तदपि द्विविधम्। तत्राभ्यन्तरकृष्णशुक्लमण्डलं बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि। एवं शेषेष्वपीन्द्रियेषु ज्ञेयम्।
= रचनामां नाम निर्वृत्ति है। प्रश्न - यह रचना कौन करता है? उत्तर - कर्म। निर्वृत्ति दो प्रकारकी है - बाह्य और आभ्यन्तर। उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियोंके आकार रूपसे अवस्थित शुद्ध आत्म प्रदेशोंकी रचनाको आभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं। यथा इन्द्रिय नामवाले उन्हीं आत्मप्रदेशोंमें प्रतिनियत आकाररूप और नामकर्मके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। जो निर्वृत्ति का उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं। यह भी दो प्रकारका है। ...नेत्र इन्द्रियमें कृष्ण और शुक्लमण्डल आभ्यन्तर उपकरण हैं तथा पलक ओर दोनों बरौनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार शेष इन्द्रियोंमे भी जानता चाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 2/17/2-7/130), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/232/2), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33,234/6), ( धवला पुस्तक 1/1,1,33/236/3), ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/43)
तत्त्वार्थसार अधिकार 2/41-42 नेत्रादीन्द्रियसंस्खानावस्थितानां हि वर्तनम्। विशुद्धात्मप्रदेशानां तत्र निर्वृत्तिरान्तरा ॥41॥ तेष्वेवात्मप्रदेशेषु करणव्यपेदेशिषु। नामकर्मकृतावस्थः पुद्गलप्रचयोऽपरा ॥42॥