प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल
From जैनकोष
प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल
यह सब कर्म उपाधि है, राग दोष भ्रम जाल।।प्राणी. ।।
कहा भयो काई लगी, आतम दरपनमाहिं ।
ऊपरली ऊपर रहै, अंतर पैठी नाहिं ।।प्राणी. ।।१ ।।
भूलि जेवरी अहि, मुन्यो, ढूंठ लख्यो नररूप ।
त्यों ही पर निज मानिया, वह जड़ तू चिद्रूप ।।प्राणी. ।।२ ।।
जीव-कनक तन मैलके, भिन्न भिन्न परदेश ।
माहैं, माहैं संध है, मिलैं नहीं लव लेश ।।प्राणी. ।।३ ।।
घन करमनि आच्छादियो, ज्ञानभानपरकाश ।
है ज्योंका त्यों शास्वता, रंचक होय न नाश ।।प्राणी. ।।४ ।।
लाली झलकै फेटकमें, फेटक न लाली होय ।
परसंगति परभाव है, शुद्धस्वरूप न कोय ।।प्राणी. ।।५ ।।
त्रस थावर नर नारकी, देव आदि बहु भेद ।
निहचै एक स्वरूप हैं, ज्यों पट सहज सफेद ।।प्राणी. ।।६ ।।
गुण ज्ञानादि अनन्त हैं, परजय सकति अनन्त ।
`द्यानत' अनुभव कीजिये, याको यह सिद्धन्त ।।प्राणी. ।।७ ।।