भाई कौन कहै घर मेरा
From जैनकोष
भाई कौन कहै घर मेरा
जे जे अपना मान रहे थे, तिन सबने निरवेरा।।भाई. ।।
प्रात समय नृप मन्दिर ऊपर, नाना शोभा देखी ।
पहर चढ़े दिन काल चालतैं, ताकी धूल न पेखी ।।भाई. ।।१ ।।
राज कलश अभिषेक लच्छमा, पहर चढ़ैं दिन पाई ।
भई दुपहर चिता तिस चलती, मीतों ठोक जलाई ।।भाई. ।।२ ।।
पहर तीसरे नाचैं गावैं, दान बहुत जन दीजे ।
सांझ भई सब रोवन लागे, हा-हाकार करीजे ।।भाई. ।।३ ।।
जो प्यारी नारीको चाहै, नारी नरको चाहै ।
वे नर और किसीको चाहैं, कामानल तन दाहै ।।भाई. ।।४ ।।
जो प्रीतम लखि पुत्र निहोरैं, सो निज सुतको लोरै ।
सो सुत निज सुतसों हित जोरैं, आवत कहत न ओरैं ।।भाई. ।।५ ।।
कोड़ाकोड़ि दरब जो पाया, सागरसीम दुहाई ।
राज किया मन अब जम आवै, विषकी खिचड़ी खाई ।।भाई. ।।६ ।।
तू नित पोखै वह नित सोखै, तू हारै वह जीतै ।
`द्यानत' जु कछु भजन बन आवै, सोई तेरो मीतै ।।भाई. ।।७ ।।