योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 378
From जैनकोष
आसन्नभव्य जीव को ही मुक्ति की प्राप्ति -
मुक्तिमार्गपरं चेत: कर्मशुद्धि-निबन्धनम् ।
मुक्तिरासन्नभव्येन न कदाचित्पुन: परम् ।।३७८।।
अन्वय :- मुक्तिमार्गपरं चेत: कर्मशुद्धि-निबन्धनं (भवति), कदाचित् परं (चेत:) न । पुन: मुक्ति: आसन्नभव्येन (प्राप्यते) ।
सरलार्थ :- मुक्ति प्राप्त करने के लिए जिन जीवों का चित्त मुक्तिमार्ग में अति तत्परता से संलग्न है, उनकी चित्त की वह एकाग्रता कर्मरूपी मल के नाश का कारण है; जो चित्त मुक्तिमार्ग पर आरूढ़ नहीं है, उसके द्वारा कभी भी कर्मो का नाश नहीं होता है और मुक्ति की प्राप्ति आसन्नभव्य जीव को ही होती है ।