योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 409
From जैनकोष
व्यंग का वास्तविक स्वरूप -
येन रत्नत्रयं साधोर्नाश्यते मुक्तिकारणम् ।
स व्यङ्गो भण्यते नान्यस्तत्त्वत: सिद्धिसाधने ।।४०९।।
अन्वय :- तत्त्वत: येन साधो: मुक्तिकारणं रत्नत्रयं नाश्यते स: सिद्धिसाधने व्यङ्ग: भण्यते अन्य: न ।
सरलार्थ :- वास्तव में जिस कारण से साधु का मोक्ष के लिए उपायभूत रत्नत्रयरूप धर्म नाश को प्राप्त होता है, उस कारण को सिद्घावस्थारूप सिद्धि के साधन में व्यंग अथवा भंग कहते हैं, अन्य कोई बाधक कारण नहीं है ।