योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 410
From जैनकोष
व्यंग हमेशा व्यंग ही रहता है -
यो व्यावहारिको व्यङ्गो मतो रत्नत्रय-ग्रहे ।
न सोsपि जायतेsव्यङ्ग: साधो: सल्लेखना-कृतौ ।।४१०।।
अन्वय :- य: रत्नत्रय-ग्रहे व्यावहारिक: व्यङ्ग: मत: स: अपि सल्लेखना-कृतौ साधो: अव्यङ्ग: न जायते ।
सरलार्थ :- मुनियोग्य रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये जो व्यावहारिक व्यंग माने गये हैं, वे ही व्यंग कोई मनुष्य (मरण समीप जानकर) सल्लेखना के अवसर पर मुनि-अवस्था धारण करना चाहे तो उसके लिये भी वे व्यंग ही बने रहते हैं, अव्यंग नहीं हो जाते ।