द्रव्य
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
लोक द्रव्यों का समूह है और वे द्रव्य छह मुख्य जातियों में विभाजित हैं। गणना में वे अनन्तानन्त हैं। परिणमन करते रहना उनका स्वभाव है, क्योंकि बिना परिणमन के अर्थक्रिया और अर्थक्रिया के बिना द्रव्य के लोप का प्रसंग आता है। यद्यपि द्रव्य में एक समय एक ही पर्याय रहती है पर ज्ञान में देखने पर वह अनन्तों गुणों व उनकी त्रिकाली पर्यायों का पिण्ड दिखाई देता है। द्रव्य, गुण व पर्याय में यद्यपि कथन क्रम की अपेक्षा भेद प्रतीत होता है पर वास्तव में उनका स्वरूप एक रसात्मक है। द्रव्य की यह उपरोक्त व्यव्सथा स्वत: सिद्ध है, कृतक नहीं हैं।
- द्रव्य के भेद व लक्षण
- द्रव्य का निरुक्त्यर्थ।
- द्रव्य का लक्षण ‘सत्’।
- द्रव्य का लक्षण ‘गुणसमुदाय’।
- द्रव्य का लक्षण ‘गुणपर्यायवान्’।
- द्रव्य का लक्षण ‘ऊर्ध्व व तिर्यगंश पिण्डं’।
- द्रव्य का लक्षण ‘त्रिकाल पर्याय पिण्ड’।
- द्रव्य का लक्षण ‘अर्थक्रियाकारित्व’।–देखें वस्तु ।
- द्रव्य के ‘अन्वय, सामान्य’ आदि अनेक नाम।
- द्रव्य के छह प्रधान भेद।
- द्रव्य के दो भेद–संयोग व समवाय।
- द्रव्य के अन्य प्रकार भेद-प्रभेद।–देखें द्रव्य - 3।
- पंचास्तिकाय।–देखें अस्तिकाय ।
- संयोग व समवाय द्रव्य के लक्षण।
- स्व पर द्रव्य के लक्षण।
- द्रव्य का निरुक्त्यर्थ।
- द्रव्य निर्देश व शंका समाधान
- एकान्त पक्ष में द्रव्य का लक्षण सम्भव नहीं।
- द्रव्य में त्रिकाली पर्यायों का सद्भाव कैसे।
- द्रव्य का परिणमन।–देखें उत्पाद - 2।
- शुद्ध द्रव्यों को अपरिणामी कहने की विवक्षा।–देखें द्रव्य - 3।
- षट् द्रव्यों की सिद्धि।–देखें वह वह नाम ।
- षट् द्रव्यों की पृथक्-पृथक् संख्या।
- अनन्त द्रव्यों का लोक में अवस्थान कैसे।–देखें आकाश - 3।
- षट् द्रव्यों की संख्या में अल्पबहुत्व।–देखें अल्पबहुत्व ।
- षट् द्रव्यों को जानने का प्रयोजन।
- द्रव्यों का स्वरूप जानने का उपाय।–देखें न्याय ।
- द्रव्यों में अच्छे बुरे की कल्पना व्यक्ति की रुचि पर आधारित है।–देखें राग - 2।
- अष्ट मंगल द्रव्य व उपकरण द्रव्य।–देखें चैत्य - 1.11।
- दान योग्य द्रव्य।–देखें दान - 5।
- निर्माल्य द्रव्य।–देखें पूजा - 4।
- एकान्त पक्ष में द्रव्य का लक्षण सम्भव नहीं।
- षट् द्रव्य विभाजन
- 1-2. चेतन अचेतन व मूर्तामूर्त विभाग।
- संसारी जीव का कथंचित् मूर्तत्व।–देखें मूर्त - 2।
- क्रियावान् व भाववान् विभाग।
- 4-5. एक अनेक व परिणामी-नित्य विभाग।
- 6-7. सप्रदेशी-अप्रदेशी व क्षेत्रवान् व अक्षेत्रवान् विभाग।
- 8. सर्वगत व असर्वगत विभाग।
- द्रव्यों के भेदादि जानने का प्रयोजन।–देखें सम्यग्दर्शन - II.3.3।
- जीव का असर्वगतपना।–देखें जीव - 3.8।
- कारण अकारण विभाग।–देखें कारण - III.1।
- कर्ता व भोक्ता विभाग।
- द्रव्य का एक दो आदि भागों में विभाजन।
- 1-2. चेतन अचेतन व मूर्तामूर्त विभाग।
- सत् व द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद
- सत् या द्रव्य की अपेक्षा द्वैत अद्वैत
- (1-2) एकान्त द्वैत व अद्वैत का निरास।
- (3) कथंचित् द्वैत व अद्वैत का समन्वय।
- क्षेत्र या प्रदेशों की अपेक्षा द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद
- (1) द्रव्य में प्रदेश कल्पना का निर्देश।
- (2-3) आकाश व जीव के प्रदेशत्व में हेतु।
- (4) द्रव्य में भेदाभेद उपचार नहीं है।
- (5) प्रदेशभेद करने से द्रव्य खण्डित नहीं होता।
- (6) सावयव व निरवयवपने का समन्वय।
- परमाणु में कथंचित् सावयव निरवयवपना।–देखें परमाणु - 3।
- काल या पर्याय की अपेक्षा द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद
- (1-3) कथंचित् भेद व अभेद पक्ष में युक्ति व समन्वय।
- द्रव्य में कथंचित् नित्यानियत्व।–देखें उत्पाद - 2।
- भाव अर्थात् धर्म-धर्मी की अपेक्षा द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद
- (1-3) कथंचित् अभेद व भेदपक्ष में युक्ति व समन्वय।
- द्रव्य को गुण पर्याय और गुण पर्याय को द्रव्य रूप से लक्षित करना।–देखें उपचार - 3।
- अनेक अपेक्षाओं से द्रव्य में भेदाभेद व विधि-निषेध।–देखें सप्तभंगी - 5।
- द्रव्य में परस्पर षट्कारकी भेद व अभेद।–देखें कारक , कारण व कर्ता।
- एकान्त भेद व अभेद पक्ष का निरास
- (1-2) एकान्त अभेद व भेद पक्ष का निरास।
- (3-4) धर्म व धर्मी में संयोग व समवाय सम्बन्ध का निरास।
- सत् या द्रव्य की अपेक्षा द्वैत अद्वैत
- द्रव्य की स्वतन्त्रता
- द्रव्य स्वत: सिद्ध है।–देखें सत् ।
- द्रव्य अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता।
- एक द्रव्य अन्य द्रव्यरूप परिणमन नहीं करता।
- द्रव्य परिणमन की कथंचित् स्वतन्त्रता व परतन्त्रता।–देखें कारण - II।
- द्रव्य अनन्य शरण है।
- द्रव्य निश्चय से अपने में ही स्थित है, आकाशस्थित कहना व्यवहार है।
- द्रव्य के भेद व लक्षण
- द्रव्य का निरुक्त्यर्थ
पं.का./मू./9 दवियदि गच्छदि ताइं ताइं सव्भावपज्जयाइं जं। दवियं तं भण्णं ते अणण्णभूदंतु सत्तादो।9। =उन-उन सद्भाव पर्यायों को जो द्रवित होता है, प्राप्त होता है, उसे द्रव्य कहते हैं जो कि सत्ता से अनन्यभूत है। (रा.वा./1/33/1/95/4)।
स.सि./1/5/17/5 गुणैर्गुणान्वा द्रुतं गतं गुणैर्द्रोष्यते, गुणान्द्रोष्यतीति वा द्रव्यम् ।
स.सि./5/2/266/10 यथास्वं पर्यायैर्द्रूयन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि। =जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणों को प्राप्त हुआ था, अथवा जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जायेगा वा गुणों को प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं। जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं। (रा.वा./5/2/1/436/14); (ध.1/1,1,1/183/11); (ध.3/1,2,1/2/1); (ध.9/4,1,45/167/10); (ध.15/33/9); (क.पा.1/1,14/177/211/4); (न.च.वृ./36); (आ.प./6); (यो.सा./अ./2/5)।
रा.वा./5/2/2/436/26 अथवा द्रव्यं भव्ये [जैनेन्द्र व्या./4/1/158] इत्यनेन निपातितो द्रव्यशब्दो वेदितव्य:। द्रु इव भवतीति द्रव्यम् । क: उपमार्थ:। द्रु इति दारु नाम यथा अग्रन्थि अजिह्मं दारु तक्ष्णोपकल्प्यमानं तेन तेन अभिलषितेनाकारेण आविर्भवति, तथा द्रव्यमपि आत्मपरिणामगमनसमर्थं पाषाणखननोदकवदविभक्तकर्तृकरणमुभयनिमित्तवशोपनीतात्मना तेन तेन पर्यायेण द्रु इव भवतीति द्रव्यमित्युपमीयते =अथवा द्रव्य शब्द को इवार्थक निपात मानना चाहिए। ‘द्रव्यं भव्य‘ इस जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रानुसार ‘द्रु’ की तरह जो हो वह ‘द्रव्य’ यह समझ लेना चाहिए। जिस प्रकार बिना गांठ की सीधी द्रु अर्थात् लकड़ी बढ़ई आदि के निमित्त से टेबल कुर्सी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है, उसी तरह द्रव्य भी उभय (बाह्य व आभ्यन्तर) कारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है। जैसे ‘पाषाण खोदने से पानी निकलता है’ यहां अविभक्त कर्तृकरण है उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय में भी समझना चाहिए।
- द्रव्य का लक्षण सत् तथा उत्पादव्ययध्रौव्य
त.सू./5/29 सत् द्रव्यलक्षणम् ।29। =द्रव्य का लक्षण सत् है।
पं.का./मू./10 दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं। =जो सत् लक्षणवाला तथा उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त है उसे द्रव्य कहते हैं। (प्र.सा./मू./95-96) (न.च.वृ./37) (आ.प./6) (यो.सा.अ./2/6) (पं.ध./पू./8,86) (देखें सत् )।
प्र.सा./त.प्रा.96 अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभाव:, तत्पुनस्य साधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततयाहेतुकयैकरूपया वृत्त्या नित्यप्रवृत्तत्वात् ...द्रव्येण सहैकत्वमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एव कथं न भवेत् ।=अस्तित्व वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है, और वह अन्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण अनाद्यनन्त होने से तथा अहेतुक एकरूप वृत्ति से सदा ही प्रवर्तता होने के कारण द्रव्य के साथ एकत्व को धारण करता हुआ, द्रव्य का स्वभाव ही क्यों न हो ?
- द्रव्य का लक्षण गुण समुदाय
स.सि./5/2/267/4 गुणसमुदायो द्रव्यमिति। =गुणों का समुदाय द्रव्य होता है।
पं.का./प्र./44 द्रव्यं हि गुणानां समुदाय:। =वास्तव में द्रव्य गुणों का समुदाय है। (पं.ध./पू./73)।
- द्रव्य का लक्षण गुणपर्यायवान्
त.सू./5/38 गुणपर्ययवद्द्रव्यम् ।38। गुण और पर्यायों वाला द्रव्य है। (नि.सा.मू./9); (प्र.सा./मू./95) (पं.का./मू./10) (न्या.वि./मू./1/115/428) (न.च.वृ./37) (आ.प./6) (का.अ./मू./242) (त.अनु./100) (पं.ध./पू./438)।
स.सि./5/38/309 पर उद्धृत–गुण इदि दव्वविहाणं दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो। तेहि अणूणं दव्वं अजुपदसिद्धं हवे णिच्चं। =द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को गुण और द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। द्रव्य इन दोनों से युक्त होता है। तथा वह अयुतसिद्ध और नित्य होता है।
प्र.सा./त.प्र./23 समगुणपर्यायं द्रव्यं इति वचनात् । =‘‘युगपत् सर्वगुणपर्यायें ही द्रव्य हैं’’ ऐसा वचन है। (पं.ध./पू.73)।
पं.ध./पू.72 गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं पुनरस्य भवति वाक्यार्थ:। =गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है और यही इस द्रव्य के लक्षण का वाक्यार्थ है।
पं.ध./पू.73 गुणसमुदायो द्रव्यं लक्षणमेतावताऽप्युशन्ति बुधा:। समगुणपर्यायो वा द्रव्यं कैश्चिन्निरूप्यते वृद्धै:। =गुणों के समुदाय को द्रव्य कहते हैं; केवल इतने से भी कोई आचार्य द्रव्य का लक्षण करते हैं, अथवा कोई-कोई वृद्ध आचार्यों द्वारा युगपत् सम्पूर्ण गुण और पर्याय ही द्रव्य कहा जाता है।
- द्रव्य का लक्षण ऊर्ध्व व तिर्यगंश आदि का समूह
न्या.वि./मू./1/115/428 गुणपर्ययवद्द्रव्यं ते सहक्रमप्रवृत्तय:। =गुण और पर्यायों वाला द्रव्य होता है और वे गुण पर्याय क्रम से सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त होते हैं।
प्र.सा./त.प्र./10 वस्तु पुनरूर्ध्वतासामान्यलक्षणे द्रव्ये सहभाविविशेषलक्षणेषु गुणेषु क्रमभाविविशेषलक्षणेषु पर्यायेषु व्यवस्थितमुत्पादव्ययध्रौव्यमयास्तित्वेन निवर्तितनिर्वृत्तिमच्च। =वस्तु तो ऊर्ध्वतासामान्यरूप द्रव्य में, सहभावी विशेषस्वरूप गुणों में तथा क्रमभावी विशेषस्वरूप पर्यायों में रही हुई और उत्पादव्ययध्रौव्यमय अस्तित्व से बनी हुई है।
प्र.सा./त.प्र./93 इह खलु य: कश्चन परिच्छिद्यमान: पदार्थ: स सर्व एव विस्तारायत-सामान्यसमुदायात्मना द्रव्येणाभिनिर्वृतत्वाद्द्रव्यमय:। =इस विश्व में जो कोई जानने में आने वाला पदार्थ है, वह समस्त ही विस्तारसामान्य समुदायात्मक (गुणसमुदायात्मक) और आयतसामान्य समुदायात्मक (पर्यायसमुदायात्मक) द्रव्य से रचित होने से द्रव्यमय है।
- द्रव्य का लक्षण त्रिकाली पर्यायों का पिण्ड
ध.1/1,1,136/गा.199/386 एय दवियम्मि जे अत्थपज्जया वयण पज्जया वावि। तीदाणागयभूदा तावदियं तं हवइ दव्वं।199। =एक द्रव्य में अतीत अनागत और ‘अपि’ शब्द से वर्तमान पर्यायरूप जितनी अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय हैं, तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है। (ध.3/1,2,1/गा.4/6) (ध.9/4,1,45/गा.67/183) (क.पा.1/1,14/गा.108/253) (गो.जी./मू./582/1023)।
आप्त.मी./107 नयोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्चय:। अविष्वग्भावसंबन्धी द्रव्यमेकमनेकधा।107। =जो नैगमादिनय और उनकी शाखा उपशाखारूप उपनयों के विषयभूत त्रिकालवर्ती पर्यायों का अभिन्न सम्बन्धरूप समुदाय है उसे द्रव्य कहते हैं। (ध.3/1,2,1/गा.3/5); (ध.9/4,1,45/गा.66/183) (ध.13/5,5,59/गा.32/310)।
श्लो.वा.2/1/5/63/269/3 पर्ययवद्द्रव्यमिति हि सूत्रकारेण वदता त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपरिणामाश्रियं द्रव्यमुक्तम् । =पर्यायवाला द्रव्य होता है इस प्रकार कहने वाले सूत्रकार ने तीनों कालों में क्रम से होने वाली पर्यायों का आश्रय हो रहा द्रव्य कहा है।
प्र.सा./त.प्र./36 ज्ञेयं तु वृत्तवर्तमानवर्तिष्यमाणविचित्रपर्यायपरम्पराप्रकरेण त्रिधाकालकोटिस्पर्शित्वादनाद्यनन्तं द्रव्यं। =ज्ञेय–वर्तचुकी, वर्तरही और वर्तने वाली ऐसी विचित्र पर्यायों के परम्परा के प्रकार से त्रिधा कालकोटि को स्पर्श करता होने से अनादि अनन्त द्रव्य है।
- द्रव्य के अन्वय सामान्यादि अनेकों नाम
स.सि./1/33/140/9 द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरित्यर्थ:। द्रव्य का अर्थ सामान्य उत्सर्ग और अनुवृत्ति है।
पं.ध./पु./143 सत्ता सत्त्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु। अर्थो विधिरविशेषादेकार्थवाचका अमी शब्दा:। =सत्ता, सत् अथवा सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये नौ शब्द सामान्य रूप से एक द्रव्यरूप अर्थ के ही वाचक हैं।
- द्रव्य के छह प्रधान भेद
नि.सा./मू./9 जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता।9। =जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये तत्त्वार्थ कहे हैं जो कि विविध गुण और पर्यायों से संयुक्त हैं।
त.सू./5/1-3,39 अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला:।1। द्रव्याणि।2। जीवाश्च।3। कालश्च।39। =धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीवकाय हैं।1। ये चारों द्रव्य हैं।2। जीव भी द्रव्य है।3। काल भी द्रव्य है।39। (यो.सा./अ./2/1) (द्र.सं./मू./15/50)।
- द्रव्य के दो भेद संयोग व समवाय द्रव्य
ध.1/1,1,1/17/6 दव्वं दुविहं, संजोगदव्वं समवायदव्वं चेदि। (नाम निक्षेप के प्रकरण में) द्रव्य-निमित्त के दो भेद हैं-संजोगद्रव्य और समवाय द्रव्य।
- संयोग व समवाय द्रव्य के लक्षण
ध.1/1,1,1/17/6 तत्थ संजोयदव्वं णाम पुध पुध पसिद्धाणं दव्वाणं संजोगेण णिप्पण्णं। समवायदव्वं णाम जं दव्वम्मि समवेदं। ...संजोगदव्वणिमित्तं णाम दंडी छत्ती मोली इच्चेवमादि। समवायणिमित्तं णाम, गलगंडी काणो कुंडो इच्चेवमाइ। =अलग-अलग सत्ता रखने वाले द्रव्यों के मेल से जो पैदा हो उसे संयोग द्रव्य कहते हैं। जो द्रव्य में समवेत हो अर्थात् कथंचित् तादात्म्य रखता हो उसे समवायद्रव्य कहते हैं। दण्डी, छत्री, मौली इत्यादि संयोगद्रव्य निमित्तक नाम हैं; क्योंकि दण्डा, छत्री, मुकुट इत्यादि स्वतन्त्र सत्ता वाले पदार्थ हैं और उनके संयोग से दण्डी, छत्री, मौली इत्यादि नाम व्यवहार में आते हैं। गलगण्ड, काना, कुबड़ा इत्यादि समवाय द्रव्यनिमित्तक नाम हैं, क्योंकि जिसके लिए गलगण्ड इस नाम का उपयोग किया गया है उससे गले का गण्ड उससे भिन्न सत्तावाला नहीं है। इसी प्रकार काना, कुबड़ा आदि नाम समझ लेना चाहिए।
- स्व व पर द्रव्य के लक्षण
प्र.सा./ता.वृ./115/161/10 विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन तच्चतुष्टयं, शुद्धजीवविषये कथ्यते। शुद्धगुणपर्यायाधारभूतं शुद्धात्मद्रव्यं द्रव्यं भण्यते। ...यथा शुद्धात्मद्रव्ये दर्शितं तथा यथासंभवं सर्वपदार्थेषु द्रष्टव्यमिति। =विवक्षितप्रकार से स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव ये चार बातें स्वचतुष्टय कहलाती हैं। तहां शुद्ध जीव के विषय में कहते हैं। शुद्ध गुणपर्यायों का आधारभूत शुद्धात्म द्रव्य को स्वद्रव्य कहते हैं। जिस प्रकार शुद्धात्मद्रव्य में दिखाया गया उसी प्रकार यथासम्भव सर्वपदार्थों में भी जानना चाहिए।
पं.ध./पू./74,264 अयमत्राभिप्रायो ये देशा: सद्गुणास्तदंशाश्च। एकालापेन समं द्रव्यं नाम्ना त एव नि:शेषम् ।74। एका हि महासत्ता सत्ता वा स्यादवान्तराख्या च। पृथक्प्रदेशवत्त्वं स्वरूपभेदोऽपि नानयोरेव।264। =देश सत्रूप अनुजीवीगुण और उसके अंश देशांश तथा गुणांश हैं। वे ही सब युगपत्एकालापके द्वारा नाम से द्रव्य कहे जाते हैं।74। निश्चय से एक महासत्ता तथा दूसरी अवान्तर नाम की सत्ता है। इन दोनों ही में पृथक् प्रदेशपना नहीं है तथा स्वरूपभेद भी नहीं है।
- द्रव्य का निरुक्त्यर्थ
- द्रव्य निर्देश व शंका समाधान
- एकान्त पक्ष में द्रव्य का लक्षण सम्भव नहीं
रा.वा./5/2/12/441/1 द्रव्यं भव्ये इत्ययमपि द्रव्यशब्द: एकान्तवादिनां न संभवति, स्वतोऽसिद्धस्य द्रव्यस्य भव्यार्थासंभवात् । संसर्गवादिनस्तावत् गुणकर्म...सामान्यविशेषेभ्यो द्रव्यस्यात्यन्तमन्यत्वे खरविषाणकल्पस्यस्वतोऽसिद्धत्वात् न भवनक्रियाया: कर्तृत्वं युज्यते।...अनेकान्तवादिनस्तु गुणसन्द्रावो द्रव्यम्, द्रव्यं भव्ये इति चोत्पद्यत पर्यायिपर्याययो: कथञ्चिद्भेदोपपत्तेरित्युक्तं पुरस्तात् । =एकान्त अभेद वादियों अथवा गुण कर्म आदि से द्रव्य को अत्यन्त भिन्न मानने वाले एकान्त संसर्गवादियों के हां द्रव्य ही सिद्ध नहीं है जिसमें कि भवन क्रिया की कल्पना की जा सके। अत: उनके हां ‘द्रव्यं भव्ये’ यह लक्षण भी नहीं बनता (इसी प्रकार ‘गुणपर्ययवद् द्रव्यं’ या ‘गुणसमुदायो द्रव्यं’ भी वे नहीं कह सकते–देखें द्रव्य - 1.4) अनेकान्तवादियों के मत में तो द्रव्य और पर्याय में कथंचित् भेद होने से ‘गुणसन्द्रावो द्रव्यं’ और ‘द्रव्यं भव्ये’ (अथवा अन्य भी) लक्षण बन जाते हैं।
- द्रव्य में त्रिकाली पर्यायों का सद्भाव कैसे सम्भव है
श्लो.वा.2/1/5/269/1 नन्वनागतपरिणामविशेषं प्रति गृहीताभिमुख्यं द्रव्यमिति द्रव्यलक्षणमयुक्तं, गुणपर्ययवद्द्रव्यमिति तस्य सूत्रितत्वात्, तदागमविरोधादिति कश्चित्, सोऽपि सूत्रार्थानभिज्ञ:। पर्ययवद्द्रव्यमिति हि सूत्रकारेण वदता त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपर्यायाश्रितं द्रव्यमुक्तम् । तच्च यदानागतपरिणामविशेषं प्रत्यभिमुखं तदा वर्तमानपर्यायाक्रान्तं परित्यक्तपूर्वपर्यायं च निश्चीयतेऽन्यथानागतपरिणामाभिमुख्यानुपपत्ते: खरविषाणदिवत् ।–निक्षेपप्रकरणे तथा द्रव्यलक्षणमुक्तम् । =प्रश्न–‘‘भविष्य में आने वाले विशेष परिणामों के प्रति अभिमुखपने को ग्रहण करने वाला द्रव्य है’’ इस प्रकार द्रव्य का लक्षण करने से ‘गुणपर्ययवद्द्रव्यं’ इस सूत्र के साथ विरोध आता है। उत्तर–आप सूत्र के अर्थ से अनभिज्ञ हैं। द्रव्य को गुणपर्यायवान् कहने से सूत्रकार ने तीनों कालों में क्रम से होने वाली अनन्त पर्यायों का आश्रय हो रहा द्रव्य कहा है। वह द्रव्य जब भविष्य में होने वाले विशेष परिणाम के प्रति अभिमुख है, तब वर्तमान की पर्यायों से तो घिरा हुआ है और भूतकाल की पर्याय को छोड़ चुका है, ऐसा निर्णीतरूप से जाना जा रहा है। अन्यथा खरविषाण के समान भविष्य परिणाम के प्रति अभिमुखपना न बन सकेगा। इस प्रकार का लक्षण यहां निक्षेप के प्रकरण में किया गया है। (इसलिए) क्रमश:–
ध.13/5,5,70/370/11 तीदाणागयपज्जायाणं सगसरूवेण जीवे संभवादो। =(जिसका भविष्य में चिन्तवन करेंगे उसे भी मन:पर्ययज्ञान जानता है) क्योंकि अतीत और अनागत पर्यायों का अपने स्वरूप से जीव में पाया जाना सम्भव है।
(देखें केवलज्ञान - 5.2)–(पदार्थ में शक्तिरूप से भूत और भविष्यत् की पर्याय भी विद्यमान ही रहती है, इसलिए अतीतानागत पदार्थों का ज्ञान भी सम्भव है। तथा ज्ञान में भी ज्ञेयाकाररूप से वे विद्यमान रहती हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं है)।
- षट्द्रव्यों की संख्या का निर्देश
गो.जी./मू./588/1027 जीवा अणंतसंखाणंतगुणा पुग्गला हु तत्तो दु। धम्मतियं एक्केक्कं लोगपदेसप्पमा कालो।588। =द्रव्य प्रमाणकरि जीवद्रव्य अनन्त हैं, बहुरि तिनितैं पुद्गल परमाणु अननत हैं, बहुरि धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य एक-एक ही हैं, जातै ये तीनों अखण्ड द्रव्य हैं। बहुरि जेते लोकाकाश के (असंख्यात) प्रदेश हैं तितने कालाणु हैं। (त.सू./5/6)।
- षट्द्रव्यों को जानने का प्रयोजन
प.प्र./मू./2/27 दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ। होयवि मोक्खहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ परलोउ।27। =हे जीव परद्रव्यों के ये स्वभाव दु:ख के कारण जानकर मोक्ष के मार्ग में लगकर शीघ्र ही उत्कृष्ट लोकरूप मोक्ष में जाना चाहिए।
न.च.वृ./284 में उद्धृत–णियदव्वजाणणट्ठं इयरं कहियं जिणेहिं छद्दव्वं। तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं।
न.च.वृ./10 णायव्वं दवियाणं लक्खणसंसिद्धिहेउगुणणियरं। तह पज्जायसहावं एयंतविणासणट्ठा वि।10। =निजद्रव्य के ज्ञापनार्थ ही जिनेन्द्र भगवान् ने षट्द्रव्यों का कथन किया है। इसलिए अपने से अतिरिक्त पर षट्द्रव्यों को जानने से सम्यग्ज्ञान नहीं होता। एकान्त के विनाशार्थ द्रव्यों के लक्षण और उनकी सिद्धि के हेतुभूत गुण व पर्याय स्वभाव है, ऐसा जानना चाहिए।
का.आ.मू./204 उत्तमगुणाणधामं सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं। तच्चाण परमतच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदो।204। =जीव ही उत्तमगुणों का धाम है, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सब तत्त्वों में परमतत्त्व है, यह निश्चय से जानो।
पं.का./ता.वृ./15/33/19 अत्र षट्द्रव्येषु मध्ये...शुद्धजीवास्तिकायाभिधानं शुद्धात्मद्रव्यं ध्यातव्यमित्यभिप्राय:। =छह द्रव्यों में से शुद्ध जीवास्तिकाय नाम वाला शुद्धात्मद्रव्य ही ध्यान किया जाने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है।
द्र.सं./टी./अधिकार 2 की चूलिका/पृ.79/8 अत: ऊर्ध्वं पुनरपि षट्द्रव्याणां मध्ये हेयोपादेयस्वरूपं विशेषेण विचारयति। तत्र शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण शुद्धबुद्धैकस्वभावत्वात्सर्वे जीवा उपादेया भवन्ति। व्यक्तिरूपेण पुन: पञ्चपरमेष्ठिन एव। तत्राप्यर्हत्सिद्धद्वयमेव। तत्रापि निश्चयेन सिद्ध एव। परमनिश्चयेन तु...परमसमाधिकाले सिद्धसदृश: स्वशुद्धात्मैवोपादेय: शेष द्रव्याणि हेयानीति तात्पर्यम् ।=तदनन्तर छह द्रव्यों में से क्या हेय है और क्या उपादेय इसका विशेष विचार करते हैं। वहां शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शक्तिरूप से शुद्धबुद्ध एक स्वभाव के धारक सभी जीव उपादेय हैं, और व्यक्तिरूप से पंचपरमेष्ठी ही उपादेय हैं। उनमें भी अर्हन्त और सिद्ध ये दो ही उपादेय हैं। इन दो में भी निश्चयनय की अपेक्षा सिद्ध ही उपादेय हैं। परम निश्चयनय से परम समाधि के काल में सिद्ध समान निज शुद्धात्मा ही उपादेय है। अन्य द्रव्यहेय हैं ऐसा तात्पर्य है।
- एकान्त पक्ष में द्रव्य का लक्षण सम्भव नहीं
- षट्द्रव्य विभाजन
- चेतनाचेतन विभाग
प्र.सा./मू./127 दव्वं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवओगमओ। पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अज्जीवं। =द्रव्य जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार हैं। उसमें चेतनामय तथा उपयोगमय जीव है और पुद्गलद्रव्यादिक अचेतन द्रव्य हैं। (ध.3/1,2,1/2/2) (वसु.श्रा./28) (पं.का./ता.वृ.56/15) (द्र.सं./टी./अधि 2 की चूलिका/76/8) (न्या.दी./3/79/122)।
पं.का./मू./124 आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा। तेसिं अचेदणत्थं भणिदं जीवस्स चेदणदा।124। =आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म में जीव के गुण नही हैं, उन्हें अचेतनपना कहा है। जीव को चेतनता है। अर्थात् छह द्रव्यों में पांच अचेतन हैं और एक चेतन। (त.सू./5/1-4) (पं.का./त.प्र./97)
- मूर्तामूर्त विभाग
पं.का./मू./97 आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा। मुत्तं पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु। =आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म अमूर्त हैं। पुद्गलद्रव्य मूर्त है। (त.सू./5/5) (वसु.श्रा./28) (द्र.सं./टी./अधि 2 की चूलिका/77/2) (पं.का./ता.वृ./27/56/18)।
ध.3/1,2,1/2/पंक्ति नं.–तं च दव्वं दुविहं, जीवदव्वं अजीवदव्व चेदि।2। जंतं अजीवदव्वं तं दुविहं, रूवि अजीवदव्वं अरूवि अजीवदव्वं चेदि। तत्थ जं तं रूविअजीवदव्वं...पुद्गला: रूवि अजीवदव्वं शब्दादि।9। जं तं अरूवि अजीवदव्वं तं चउव्विहं, धम्मदव्वं, अधम्मदव्वं, आगासदव्वं कालदव्वं चेदि।4। = वह द्रव्य दो प्रकार का है–जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य। उनमें से अजीवद्रव्य दो प्रकार का है–रूपी अजीवद्रव्य और अरूपी अजीवद्रव्य। तहां रूपी अजीवद्रव्य तो पुद्गल व शब्दादि हैं, तथा अरूपी अजीवद्रव्य चार प्रकार का है–धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य। (गो.जी./मू./563-564/1008)।
- क्रियावान् व भाववान् विभाग
त.सू./5/7 निष्क्रियाणि च/7/
स.सि./5/7/273/12 अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽभ्युपगमे जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्यादापन्नम् । =धर्माधर्मादिक निष्क्रिय है। अधिकृत धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं यह बात अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है। (वसु.श्रा./32) (द्र.सं./टी./अधि 2 की चूलिका/77) (पं.का./ता.वृ./27/57/8)।
प्र.सा./त.प्र./129 क्रियाभाववत्त्वेन केवलभाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेष:। तत्र भाववन्तौ क्रियावन्तौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चेत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववन्त्येव परिणामादेवोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चय:। तत्र परिणामलक्षणो भाव:, परिस्पन्दनलक्षणा क्रिया। तत्र सर्वद्रव्याणि परिणामस्वभावत्वात् ...भाववन्ति भवन्ति। पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावत्वात् ...क्रियावन्तश्च भवन्ति। तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात् ...क्रियावन्तश्च भवन्ति। =क्रिया व भाववान् तथा केवलभाववान् की अपेक्षा द्रव्यों के दो भेद हैं। तहां पुद्गल और जीव तो क्रिया व भाव दोनों वाले हैं, क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात व भेद द्वारा दोनों प्रकार से उनके उत्पाद, व्यय व स्थिति होती हैं और शेष द्रव्य केवल भाववाले ही हैं क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनके उत्पादादि होते हैं। भाव का लक्षण परिणाममात्र है और क्रिया का लक्षण परिस्पन्दन। समस्त ही द्रव्य भाव वाले हैं, क्योंकि परिणाम स्वभावी है। पुद्गल क्रियावान् भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्दन स्वभाव वाले हैं। तथा जीव भी क्रियावान् भी होते हैं, क्योंकि वे भी परिस्पन्दन स्वभाव वाले हैं। (पं.ध./उ./25)।
गो.जी./मू./566/1012 गदिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे। धम्मतिये ण हि किरिया मुक्खा पुण साधगा होंति।566। गति, स्थिति और अवगाहन ये तीन क्रिया जीव और पुद्गल के ही पाइये हैं। बहुरि धर्म अधर्म आकाशविषै ये क्रिया नाहीं हैं। बहुरि वे तीनों द्रव्य उन क्रियाओं के केवल साधक हैं।
पं.का./ता.वृ./27/57/9 क्रियावन्तौ जीवपुद्गलौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि पुनर्निष्क्रियाणि। =जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों निष्क्रिय हैं। (पं.ध./उ./133)।
देखें जीव - 3.8 (असर्वगत होने के कारण जीव क्रियावान् है; जैसे कि पृथिवी, जल आदि असर्वगत पदार्थ)।
- एक अनेक की अपेक्षा विभाग
रा.वा./5/6/6/445/27 धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं च द्रव्यत एकैकमेव।...एकमेवाकाशमिति न जीवपुद्गलवदेषां बहुत्वम्, नापि धर्मादिवत् जीवपुद्गलानामेकद्रव्यत्वम् । =‘धर्म’ और ‘अधर्म’ द्रव्य की अपेक्षा एक ही हैं, इसी प्रकार आकाश भी एक ही है। जीव व पुद्गलों की भांति इनके बहुत्वपना नहीं है। और न ही धर्मादि की भांति जीव व पुद्गलों के एक द्रव्यपना है। (द्र.सं./टी./अधि 2 की चूलिका/77/6); (पं.का./ता.वृ./27/57/6)।
वसु.श्रा./30 धम्माधम्मागासा एगसरूवा पएसअविओगा। ववहारकालपुग्गल-जीवा हु अणेयरूवा ते।30। =धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य एक स्वरूप हैं अर्थात् अपने स्वरूप को बदलते नहीं, क्योंकि इन तीनों द्रव्यों के प्रदेश परस्पर अवियुक्त हैं अर्थात् लोकाकाश में व्याप्त हैं। व्यवहारकाल, पुद्गल और जीव ये तीन द्रव्य अनेक स्वरूप हैं, अर्थात् वे अनेक रूप धारण करते हैं।
- परिणामों व नित्य की अपेक्षा विभाग
वसु.श्रा./27,33 वंजणपरिणइविरहा धम्मादीआ हवे अपरिणामा। अत्थपरिणामभासिय सव्वे परिणामिणो अत्था।27। मुत्ता जीवं कायं णिच्चा सेसा पयासिया समये। वंजणमपरिणामचुया इयरे तं परिणयंपत्ता।3। =धर्म, अधर्म, आकाश और चार द्रव्य व्यंजनपर्याय के अभाव से अपरिणामी कहलाते हैं। किन्तु अर्थपर्याय की अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी माने जाते हैं, क्योंकि अर्थपर्याय सभी द्रव्यों में होती है।27। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों को छोड़कर शेष चारों द्रव्यों को परमागम में नित्य कहा गया है, क्योंकि उनमें व्यंजनपर्यायें नहीं पायी जाती हैं। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में व्यंजनपर्याय पायी जाती है, इसलिए वे परिणामी व अनित्य हैं।33। (द्र.सं./टी./अधि.2 की चूलिका/76-7; 77-10) (पं.का./ता.वृ./27/57/9)।
- सप्रदेशी व अप्रदेशी की अपेक्षा विभाग
वसु.श्रा./29 सपएसपंचकालं मुत्तूण पएससंचया णेया। अपएसो खलु कालो पएसबन्धच्चुदो जम्हा।29। =कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए, क्योंकि, उनमें प्रदेशों का संचय पाया जाता है। कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योंकि वह प्रदेशों के बन्ध या समूह से रहित है, अर्थात् कालद्रव्य के कालाणु भिन्न-भिन्न ही रहते हैं (द्र.सं./टी./अधि.2 की चूलिका/77/4); (पं.का./ता.वृ./27/57/4)। (विशेष देखें अस्तिकाय )
- क्षेत्रवान् व अक्षेत्रवान् की अपेक्षा विभाग
वसु.श्रा./31 आगासमेव खित्तं अवगाहणलक्खण जदो भणियं। सेसाणि पुणोऽखित्तं अवगाहणलक्खणाभावा। =एक आकाश द्रव्य ही क्षेत्रवान् है क्योंकि उसका अवगाहन लक्षण कहा गया है। शेष पांच द्रव्य क्षेत्रवान् नहीं हैं, क्योंकि उनमें अवगाहन लक्षण नहीं पाया जाता (पं.का./ता.वृ./27/57/7) (द्र.सं./टी./अधि.2 की चूलिका/77/7)। (विशेष देखें आकाश - 3)।
- सर्वगत व असर्वगत की अपेक्षा विभाग
वसु.श्रा./36 सव्वगदत्ता सव्वगमायासं णेव सेसगं दव्वं। =सर्वव्यापक होने से आकाश को सर्वगत कहते हैं। शेष कोई भी सर्वगत नहीं है।
द्र.सं./टी./अधि.2 की चूलिका/78/11 सव्वगदं लोकालोकव्याप्त्यपेक्षया सर्वगतमाकाशं भण्यते। लोकव्याप्त्यपेक्षया धर्माधर्मौ च। जीवद्रव्यं पुनरेकजीवापेक्षया लोकपूर्णावस्थायां विहाय असर्वगतं, नानाजीवापेक्षया सर्वगतमेव भवति। पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कन्धापेक्षया सर्वगतं, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति। कालद्रव्यं पुनरेककालाणुद्रव्यापेक्षया सर्वगतं न भवति, लोकप्रदेशप्रमाणनानाकालाणुविवक्षया लोके सर्वगतं भवति। =लोकालोकव्यापक होने की अपेक्षा आकाश सर्वगत कहा जाता है। लोक में व्यापक होने के अपेक्षा धर्म और अधर्म सर्वगत हैं। जीवद्रव्य एकजीव की अपेक्षा लोकपूरण समुद्घात के सिवाय असर्वगत है। और नाना जीवों की अपेक्षा सर्वगत ही हैं। पुद्गलद्रव्य लोकव्यापक महास्कन्ध की अपेक्षा सर्वगत है और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत है। एक कालाणुद्रव्य की अपेक्षा तो कालद्रव्य सर्वगत नहीं है, किन्तु लोकप्रदेश के बराबर असंख्यात कालाणुओं की अपेक्षा कालद्रव्य लोक में सर्वगत है (पं.का./ता.वृ./27/57/21)।
- कर्ता व भोक्ता की अपेक्षा विभाग
वसु.श्रा./35 कत्ता सुहासुहाणं कम्माणं फलभोयओ जम्हा। जीवो तप्फलभोया सेसा ण कत्तारा।35।
द्र.सं./टी./अधि.2 की चूलिका/78/6 शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन यद्यपि...घटपटादीनामकर्ता जीवस्तथाप्यशुद्धनिश्चयेन...पुण्यपापबन्धयो: कर्ता तत्फलभोक्ता च भवति। ...मोक्षस्यापि कर्ता तत्फलभोक्ता चेति। शुभाशुभशुद्धपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्वं सर्वत्र ज्ञातव्यमिति। पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां च स्वकीय-स्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कर्तृत्वम् । वस्तुवृत्त्या पुन: पुण्यपापादिरूपेणाकर्तृत्वमेव। =1. जीव शुभ और अशुभ कर्मों का कर्ता तथा उनके फल का भोक्ता है, किन्तु शेष द्रव्य न कर्मों के कर्ता हैं न भोक्ता।35। 2. शुद्धद्रव्यार्थिकनय से यद्यपि जीव घटपट आदि का अकर्ता है, तथापि अशुद्धनिश्चयनय से पुण्य, पाप व बन्ध, मोक्ष तत्त्वों का कर्ता तथा उनके फल का भोक्ता है। शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणामों का परिणमन ही सर्वत्र जीव का कर्तापना जानना चाहिए। पुद्गलादि पांच द्रव्यों का स्वकीय-स्वकीय परिणामों के द्वारा परिणमन करना ही कर्तापना है। वस्तुत: पुण्य पाप आदि रूप से उनके अकर्तापना है। (पं.का./ता.वृ./27/57/15)।
- द्रव्य के या वस्तु के एक दो आदि भेदों की अपेक्षा विभाग
- चेतनाचेतन विभाग
विकल्प |
द्रव्य की अपेक्षा (क.पा.1/1-14/177/211-215) |
वस्तु की अपेक्षा (ध.9/4,1,45/168-169) |
1 |
सत्ता |
सत् |
2 |
जीव, अजीव |
जीवभाव-अजीवभाव। विधिनिषेध। मूर्त-अमूर्त। अस्तिकाय-अनस्तिकाय। |
3 |
भव्य, अभव्य, अनुभय |
द्रव्य, गुण, पर्याय |
4 |
(जीव)=संसारी, असंसारी (अजीव)=पुद्गल, अपुद्गल |
बद्ध, मुक्त, बन्धकारण, मोक्षकारण |
5 |
(जीव)=भव्य, अभव्य, अनुभय (अजीव)=मूर्त, अमूर्त |
औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक |
6 |
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल व आकाश |
द्रव्यवत् |
7 |
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष |
बद्ध, मुक्त, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल व आकाश |
8 |
जीवास्रव, अजीवास्रव, जीवसंवर, अजीवसंवर |
भव्य संसारी, अभव्य संसारी, मुक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल |
9 |
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष |
द्रव्यवत् |
10 |
(जीव)=एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय (अजीव)=पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल |
द्रव्यवत् |
11 |
(जीव)=पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति व त्रस तथा (अजीव)=पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल |
द्रव्यवत् |
12 |
(जीव)=पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, संज्ञी, असंज्ञी; तथा (अजीव)=पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल |
―― |
13 |
(जीव)=भव्य, अभव्य, अनुभय; (पुद्गल)=बादरबादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म, सूक्ष्मसूक्ष्म; (अमूर्त अजीव)=धर्म, अधर्म, आकाश, काल |
―― |
- सत् व द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद
- सत् या द्रव्य की अपेक्षा द्वैत-अद्वैत
- एकान्त अद्वैतपक्ष का निरास
जगत् में एक ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं, ऐसा ‘ब्रह्माद्वैत’ मानने से–प्रत्यक्ष गोचर कर्ता, कर्म आदि के भेद तथा शुभ-अशुभ कर्म, उनके सुख-दु:खरूप फल, सुख-दु:ख के आश्रयभूत यह लोक व परलोक, विद्या व अविद्या तथा बन्ध व मोक्ष इन सब प्रकार के द्वैतों का सर्वथा अभाव ठहरे। (आप्त मी./24-25)। बौद्धदर्शन का प्रतिभासाद्वैत तो किसी प्रकार सिद्ध ही नहीं किया जा सकता। यदि ज्ञेयभूत वस्तुओं को प्रतिभास में गर्भित करने के लिए हेतु देते हो तो हेतु और साध्यरूप द्वैत की स्वीकृति करनी पड़ती है और आगम प्रमाण से मानते हो तो वचनमात्र से ही द्वैतता आ जाती है। (आप्त.मी./26) दूसरी बात यह भी तो है कि जैसे ‘हेतु’ के बिना ‘अहेतु’ शब्द की उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही द्वैत के बिना अद्वैत की प्रतिपत्ति कैसे होगी। (आप्त.मी./27)।
- एकान्त द्वैतपक्ष का निरास
वैशेषिक लोग द्रव्य, गुण, कर्म आदि पदार्थों को सर्वथा भिन्न मानते हैं। परन्तु उनकी यह मान्यता युक्त नहीं है, क्योंकि जिस पृथक्त्व नामा गुण के द्वारा वे ये भेद करते हैं, वह स्वयं ही बेचारा द्रव्यादि से पृथक् होकर, निराश्रय हो जाने के कारण अपनी सत्ता खो बैठेगा, तब दूसरों को पृथक् कैसे करेगा। और यदि उस पृथक्त्व को द्रव्य से अभिन्न मानकर अपने प्रयोजन की सिद्धि करना चाहते हो तो उन गुण, कर्म आदि को द्रव्य से अभिन्न क्यों नहीं मान लेते। (आ.मी./28) इसी प्रकार भेदवादी बौद्धों के यहां भी सन्तान, समुदाय व प्रेत्यभाव (परलोक) आदि पदार्थ नहीं बन सकेंगे। परन्तु ये सब बातें प्रमाण सिद्ध हैं। दूसरी बात यह है कि भेद पक्ष के कारण वे ज्ञेय को ज्ञान से सर्वथा भिन्न मानते हैं। तब ज्ञान ही किसे कहोगे ? ज्ञान के अभाव से ज्ञेय का भी अभाव हो जायेगा। (आ.मी./29-3)
- कथंचित् द्वैत व अद्वैत का समन्वय
अत: दोनों को सर्वथा निरपेक्ष न मानकर परस्पर सापेक्ष मानना चाहिए, क्योंकि एकत्व के बिना पृथक्त्व और पृथक्त्व के बिना एकत्व प्रमाणता को प्राप्त नहीं होते। जिस प्रकार हेतु अन्वय व व्यतिरेक दोनों रूपों को प्राप्त होकर ही साध्य की सिद्धि करता है, इसी प्रकार एकत्व व पृथक्त्व दोनों से पदार्थ की सिद्धि होती है। (आप्त मी./33) सत् सामान्य की अपेक्षा सर्वद्रव्य एक है और स्व-स्व लक्षण व गुणों आदि को धारण करने के कारण सब पृथक्-पृथक् हैं। (प्र.सा./मू. व त.प्र./97-98); (आप्त मी./34); (का.अ./236) प्रमाणगोचर होने से उपरोक्त द्वैत व अद्वैत दोनों सत्स्वरूप हैं उपचार नहीं, इसलिए गौण मुख्य विवक्षा से उन दोनों में अविरोध है। (आप्त.मी./36) (और भी देखो क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा भेदाभेद)।
- एकान्त अद्वैतपक्ष का निरास
- क्षेत्र या प्रदेशों की अपेक्षा द्रव्य में भेद कथंचित् भेदाभेद
- द्रव्य में प्रदेशकल्पना का निर्देश
जिस पदार्थ में न एक प्रदेश है और न बहुत वह शून्य मात्र है। (प्र.सा./मू./144-145) आगम में प्रत्येक द्रव्य के प्रदेशों का निर्देश किया है (देखें वह वह नाम )–आत्मा असंख्यात प्रदेशी है, उसके एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मप्रदेश, एक-एक कर्मप्रदेश में अनन्तानन्त औदारिक शरीर प्रदेश, एक-एक शरीरप्रदेश में अनन्तानन्त विस्रसोपचय परमाणु हैं। इसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों में भी प्रदेश भेद जान लेना चाहिए। (रा.वा./5/8/15/451/7)।
- आकाश के प्रदेशत्व में हेतु
- घट का क्षेत्र पट का नहीं हो जाता। तथा यदि प्रदेशभिन्नता न होती तो आकाश सर्वव्यापी न होता। (रा.वा./5/8/5/450/3); (पं.का./त.प्र./5)।
- यदि आकाश अप्रदेशी होता तो पटना मथुरा आदि प्रतिनियत स्थानों में न होकर एक ही स्थान पर हो जाते। (रा.वा./5/8/18/451/21)।
- यदि आकाश के प्रदेश न माने जायें तो सम्पूर्ण आकाश ही श्रोत्र बन जायेगा। उसके भीतर आये हुए प्रतिनियत प्रदेश नहीं। तब सभी शब्द सभी को सुनाई देने चाहिए। (रा.वा./5/8/19/451/27)।
- एक परमाणु यदि पूरे आकाश से स्पर्श करता है तो आकाश अणुवत् बन जायेगा अथवा परमाणु विभु बन जायेगा, और यदि उसके एक देश से स्पर्श करता है तो आकाश के प्रदेश मुख्य की सिद्ध होते हैं, औपचारिक नहीं। (रा.वा./5/8/19/451/28)।
- एक आश्रय से हटाकर दूसरे आश्रय में अपने आधार को ले जाना, यह वैशेषिक मान्य ‘कर्म’ पदार्थ का स्वभाव है। आकाश में प्रदेशभेद के बिना यह प्रदेशान्तर संक्रमण नहीं बन सकता। (रा.वा./5/8/20/451/31)।
- आकाश में दो उंगलियां फैलाकर इनका एक क्षेत्र कहने पर–यदि आकाश अभिन्नांश वाला अविभागी एक द्रव्य है तो दो में से एकवाले अंश का अभाव हो जायेगा, और इसी प्रकार अन्य-अन्य अंशों का भी अभाव हो जाने से आकाश अणुमात्र रह जायेगा। यदि भिन्नांश वाला एक द्रव्य है तो फिर आकाश में प्रदेशभेद सिद्ध हो गया।–यदि उंगलियों का क्षेत्र भिन्न है तो आकाश को सविभागी एक द्रव्य मानने पर उसे अनन्तपना प्राप्त होता है और अविभागी एकद्रव्य मानने पर उसमें प्रदेश भेद सिद्ध होता है (प्र.सा./त.प्र./140) (विशेष देखें आकाश - 2)
- जीव द्रव्य के प्रदेशत्व में हेतु
- आगम में जीवद्रव्य प्रदेशों का निर्देश किया है। (देखें जीव - 4.1); (रा.वा./5/8/15/451/7)।
- आगम में जीव के प्रदेशों में चल व अचल प्रदेशरूप विभाग किया है (देखें जीव - 4)।
- आगम में चक्षु आदि इन्द्रियों में प्रतिनियत आत्मप्रदेशों का अवस्थान कहा है। (देखें इन्द्रिय - 3.5)। उनका परस्पर में स्थान संक्रमण भी नहीं होता। (रा.वा./5/8/17/451/18)।
- अनादि कर्मबन्धनबद्ध संसारी जीव में सावयवपना प्रत्यक्ष है। (रा.वा./5/8/22/452/8)।
- आत्मा के किसी एक देश में परिणमन होने पर उसके सर्वदेश में परिणमन पाया जाता है। (पं.ध./564)।
- द्रव्यों का यह प्रदेशभेद उपचार नहीं है
- मुख्य के अभाव में प्रयोजनवश अन्य प्रसिद्ध धर्म का अन्य में आरोप करना उपचार है। यहां सिंह व माणकवत् पुद्गलादि के प्रदेशवत्त्व में मुख्यता और धर्मादि द्रव्यों के प्रदेशवत्त्व में गौणता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि दोनों ही अवगाह की अपेक्षा तुल्य हैं। (रा.वा./5/8/11/450/26)।
- जैसे पुद्गल पदार्थों में ‘घट के प्रदेश’ ऐसा सोपपद व्यवहार होता है, वैसा ही धर्मादि में भी ‘धर्मद्रव्य के प्रदेश’ ऐसा सोपपद व्यवहार होता है। ‘सिंह’ व ‘माणवक सिंह’ ऐसा निरुपपद व सोपपदरूप भेद यहां नहीं है। (रा.वा./5/8/11/450/29)।
- सिंह में मुख्य क्रूरता आदि धर्मों को देखकर उसके माणवक में उपचार करना बन जाता है, परन्तु यहां पुद्गल और धर्मादि सभी द्रव्यों के मुख्य प्रदेश होने के कारण, एक का दूसरे में उपचार करना नहीं बनता। (रा.वा./5/8/13/450/32)।
- पौद्गलिक घटादिक द्रव्य प्रत्यक्ष हैं। इसलिए उनमें ग्रीवा पैंदा आदि निज अवयवों द्वारा प्रदेशों का व्यवहार बन जाता है, परन्तु धर्मादि द्रव्य परोक्ष होने से वैसा व्यवहार सम्भव नहीं है। इसलिए उनमें मुख्य प्रदेश विद्यमान रहने पर भी परमाणु के नाम से उनका व्यवहार किया जाता है।
- प्रदेशभेद करने से द्रव्य खण्डित नहीं होता
- घटादि की भांति धर्मादि द्रव्यों में विभागी प्रदेश नहीं हैं। अत: अविभागी प्रदेश होने से वे निरवयव हैं। (रा.वा./5/8/6/450/8)।
- प्रदेश को ही स्वतन्त्र द्रव्य मान लेने से द्रव्य के गुणों का परिणमन भी सर्वदेश में न होकर देशांशों में ही होगा। परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता, क्योंकि देह के एकदेश में स्पर्श होने पर सर्व शरीर में इन्द्रियजन्य ज्ञान पाया जाता है। एक सिरे पर हिलाया बांस अपने सर्व पर्वों में बराबर हिलता है। (पं.ध./पू./31-35)
- यद्यपि परमाणु व कालाणु एकप्रदेशी भी द्रव्य हैं, परन्तु वे भी अखण्ड हैं। (पं.ध./पू./36)
- द्रव्य के प्रत्येक प्रदेश में ‘यह वही द्रव्य है’ ऐसा प्रत्यय होता है। (पं.ध./पू./36)
- घटादि की भांति धर्मादि द्रव्यों में विभागी प्रदेश नहीं हैं। अत: अविभागी प्रदेश होने से वे निरवयव हैं। (रा.वा./5/8/6/450/8)।
- सावयव व निरावयवपने का समन्वय
- पुरुष की दृष्टि से एकत्व और हाथ-पांव आदि अंगों की दृष्टि से अनेकत्व की भांति आत्मा के प्रदेशों में द्रव्य व पर्याय दृष्टि से एकत्व अनेकत्व के प्रति अनेकान्त है। (रा.वा./5/8/21/452/1)
- एक पुरुष में लावक पाचक आदि रूप अनेकत्व की भांति धर्मादि द्रव्य में भी द्रव्य की अपेक्षा और प्रतिनियत प्रदेशों की अपेक्षा अनेकत्व है। (रा.वा./5/8/21/452/3)
- अखण्ड उपयोगस्वरूप की दृष्टि से एक होता हुआ भी व्यवहार दृष्टि से आत्मा संसारावस्था में सावयव व प्रदेशवान् है।
- द्रव्य में प्रदेशकल्पना का निर्देश
- काल की या पर्याय-पर्यायी की अपेक्षा द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद
- कथंचित् अभेद पक्ष में युक्ति
- पर्याय से रहित द्रव्य (पर्यायी) और द्रव्य से रहित पर्याय पायी नहीं जाती, अत: दोनों अनन्य हैं। (पं.का./मू./12)
- गुणों व पर्यायों की सत्ता भिन्न नहीं है। (प्र.सा./मू./107); (ध.8/3,4/6/4); (पं.ध./पू./117)
- कथंचित् भेद पक्ष में युक्ति
- जो द्रव्य है, सो गुण नहीं और जो गुण है सो पर्याय नहीं, ऐसा इनमें स्वरूप भेद पाया जाता है। (प्र.सा./त.प्र./130)
- जो द्रव्य है, सो गुण नहीं और जो गुण है सो पर्याय नहीं, ऐसा इनमें स्वरूप भेद पाया जाता है। (प्र.सा./त.प्र./130)
- भेदाभेद का समन्वय
- लक्षण की अपेक्षा द्रव्य (पर्यायी) व पर्याय में भेद है, तथा वह द्रव्य से पृथक् नहीं पायी जाती इसलिए अभेद है। (क.पा.1/1-14/243-244/288/1); (क.पा.1/9-21/364/383/3)
- धर्म-धर्मीरूप भेद होते हुए भी वस्तुत्वरूप से पर्याय व पर्यायी में भेद नहीं है। (पं.का./त.प्र./12); (का.अ./मू./245)
- सर्व पर्यायों में अन्वयरूप से पाया जाने के कारण द्रव्य एक है, तथा अपने गुणपर्यायों की अपेक्षा अनेक है। (ध.3/1,2,1/श्लो.5/6)
- त्रिकाली पर्यायों का पिण्ड होने से द्रव्य कथंचित् एक व अनेक है। (ध.3/1,2,1/श्लो.3/5); (ध.9/4,1,45/श्लो.66/183)
- द्रव्यरूप से एक तथा पर्याय रूप से अनेक है। (रा.वा./1/1/19/7/21); (न.दी./3/79/123)
- कथंचित् अभेद पक्ष में युक्ति
- भाव की अर्थात् धर्म-धर्मी की अपेक्षा द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद
- कथंचित् अभेदपक्ष में युक्ति
- द्रव्य, गुण व पर्याय ये तीनों ही धर्म प्रदेशों से पृथक्-पृथक् होकर युतसिद्ध नहीं हैं बल्कि तादात्म्य हैं। (पं.का./मू./50); (स.सि./5/38/30 पर उद्धृत गाथा); (प्र.सा./त.प्र./98,106)
- अयुतसिद्ध पदार्थों में संयोग व समवाय आदि किसी प्रकार का भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है। (रा.वा./5/2/10/439/25); (क.पा./1/1-20/323/354/1)
- गुण द्रव्य के आश्रय रहते हैं। धर्मी के बिना धर्म और धर्म के बिना धर्मी टिक नहीं सकता। (पं.का./मू./13); (आप्त.मी./75); (ध.9/4,1,2/40/6); (पं.ध./पू./7)
- यदि द्रव्य स्वयं सत् नहीं तो वह द्रव्य नहीं हो सकता। (प्र.सा./मू./105)
- तादात्म्य होने के कारण गुणों की आत्मा या उनका शरीर ही द्रव्य है। (आप्त मी./75); (पं.ध./पू./39,438)
- यह कहना भी युक्त नहीं है कि अभेद होने से उनमें परस्पर लक्ष्य-लक्षण भाव न बन सकेगा, क्योंकि जैसे अभेद होने पर भी दीपक और प्रकाश में लक्ष्य–लक्षण भाव बन जाता है, उसी प्रकार आत्मा व ज्ञान में तथा अन्य द्रव्यों व उनके गुणों में भी अभेद होते हुए लक्ष्य-लक्षण भाव बन जाता है। (रा.वा./5/2/11/440/1)
- द्रव्य व उसके गुणों में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा अभेद है। (पं.का./ता.वृ./43/85/8)।
- कथंचित् भेदपक्ष में युक्ति
- जो द्रव्य होता है सो गुण व पर्याय नहीं होता और जो गुण पर्याय हैं वे द्रव्य नहीं होते, इस प्रकार इनमें परस्पर स्वरूप भेद है। (प्र.सा./त.प्र./130)
- यदि गुण-गुणी रूप से भी भेद न करें तो दोनों में से किसी के भी लक्षण का कथन सम्भव नहीं। (ध.3/1,2,1/6/3); (का.अ./मू./180)।
- भेदाभेद का समन्वय
- लक्ष्य-लक्षण रूप भेद होने पर भी वस्तु स्वरूप से गुण व गुणी अभिन्न है। (पं.का./त.प्र./9)
- विशेष्य–विशेषणरूप भेद होते हुए भी दोनों वस्तुत: अपृथक् हैं। (क.पा.1/1-14/242/286/3)
- द्रव्य में गुण गुणी भेद प्रादेशिक नहीं बल्कि अतद्भाविक है अर्थात् उस उसके स्वरूप की अपेक्षा है। (प्र.सा./त.प्र./98)
- संज्ञा आदि का भेद होने पर भी दोनों लक्ष्य-लक्षण रूप से अभिन्न हैं। (रा.वा.2/8/6/119/22)
- संज्ञा की अपेक्षा भेद होने पर भी सत्ता की अपेक्षा दोनों में अभेद है। (पं.का./त.प्र./13)
- संज्ञा आदि का भेद होने पर भी स्वभाव से भेद नहीं है। (पं.का./मू./51-52)
- संज्ञा लक्षण प्रयोजन से भेद होते हुए भी दोनों में प्रदेशों से अभेद है। (पं.का./मू./45-46); (आप्त.मी./71-72); (स.सि./5/2/267/7); (पं.का./त.प्र./50-52)
- धर्मी के प्रत्येक धर्म का अन्य अन्य प्रयोजन होता है। उनमें से किसी एक धर्म के मुख्य होने पर शेष गौण हो जाते हैं। (आप्त.मी./22); (ध.9/4,1,45/श्लो.68/183)
- द्रव्यार्थिक दृष्टि से द्रव्य एक व अखण्ड है, तथा पर्यायार्थिक दृष्टि से उसमें प्रदेश, गुण व पर्याय आदि के भेद हैं। (पं.ध./पू./84)
- कथंचित् अभेदपक्ष में युक्ति
- एकान्त भेद या अभेद पक्ष का निरास
- एकान्त अभेद पक्ष का निरास
- गुण व गुणी में सर्वथा अभेद हो जाने पर या तो गुण ही रहेंगे, या फिर गुणी ही रहेगा। तब दोनों का पृथक्-पृथक् व्यपदेश भी सम्भव न हो सकेगा। (रा.वा./5/2/9/439/12)
- अकेले गुण के या गुणी के रहने पर–यदि गुणी रहता है तो गुण का अभाव होने के कारण वह नि:स्वभावी होकर अपना भी विनाश कर बैठेगा। और यदि गुण रहता है तो निराश्रय होने के कारण वह कहां टिकेगा। (रा.वा./5/2/9/439/13), (रा.वा./5/2/12/440/10)
- द्रव्य को सर्वथा गुण समुदाय मानने वालों से हम पूछते हैं, कि वह समुदाय द्रव्य से भिन्न है या अभिन्न ? दोनों ही पक्षों में अभेद व भेदपक्ष में कहे गये दोष आते हैं। (रा.वा./5/2/1/440/14)
- एकान्त भेद पक्ष का निरास
- गुण व गुणी अविभक्त प्रदेशी हैं, इसलिए भिन्न नहीं हैं। (पं.का./मू./45)
- द्रव्य से पृथक् गुण उपलब्ध नहीं होते। (रा.वा./5/38/4/501/20)
- धर्म व धर्मी को सर्वथा भिन्न मान लेने पर कारणकार्य, गुण-गुणी आदि में परस्पर ‘‘यह इसका कारण है और यह इसका गुण है’’ इस प्रकार की वृत्ति सम्भव न हो सकेगी। या दण्ड दण्डी की भांति युतसिद्धरूप वृत्ति होगी। (आप्त.मी./62-63)
- धर्म-धर्मी को सर्वथा भिन्न मानने से विशेष्य-विशेषण भाव घटित नहीं हो सकते। (स.म./4/17/18)
- द्रव्य से पृथक् रहने वाला द्रव्य गुण निराश्रय होने से असत् हो जायेगा और गुण से पृथक् रहने वाला नि:स्वरूप होने से कल्पना मात्र बनकर रह जायेगा। (पं.का./मू./44-45) (रा.वा./5/2/9/439/15)
- क्योंकि नियम से गुण द्रव्य के आश्रय से रहते हैं, इसलिए जितने गुण होंगे उतने ही द्रव्य हो जायेंगे। (पं.का./मू./44)
- आत्मा ज्ञान से पृथक् हो जाने के कारण जड़ बनकर रह जायेगा। (रा.वा./1/9/11/46/15)
- धर्म-धर्मी में संयोग सम्बन्ध का निरास
अब यदि भेद पक्ष का स्वीकार करने वाले वैशेषिक या बौद्ध दण्डी-दण्डीवत् गुण के संयोग से द्रव्य को ‘गुणवान्’ कहते हैं तो उनके पक्ष में अनेकों दूषण आते हैं–- द्रव्यत्व या उष्णत्व आदि सामान्य धर्मों के योग से द्रव्य व अग्नि द्रव्यत्ववान् या उष्णत्ववान् बन सकते हैं पर द्रव्य या उष्ण नहीं। (रा.वा./5/2/4/43/32); (रा.वा./1/1/12/6/4)।
- जैसे ‘घट’, ‘पट’ को प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् उस रूप नहीं हो सकता, तब ‘गुण’, ‘द्रव्य’ को कैसे प्राप्त कर सकेगा (रा.वा./5/2/11/439/31)।
- जैसे कच्चे मिट्टी के घड़े के अग्नि में पकने के पश्चात् लाल रंग रूप पाकज धर्म उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार पहले न रहने वाले धर्म भी पदार्थ में पीछे से उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार ‘पिठर पाक’ सिद्धान्त को बताने वाले वैशेषिकों के प्रति कहते हैं कि इस प्रकार गुण को द्रव्य से पृथक् मानना होगा, और वैसा मानने से पूर्वोक्त सर्व दूषण स्वत: प्राप्त हो जायेंगे। (रा.वा./5/2/10/439/22)।
- और गुण-गुणी में दण्ड-दण्डीवत् युतसिद्धत्व दिखाई भी तो नहीं देता। (प्र.सा./ता.वृ./98)।
- यदि युत सिद्धपना मान भी लिया जाये तो हम पूछते हैं, कि गुण जिसे निष्क्रिय स्वीकार किया गया है, संयोग को प्राप्त होने के लिए चलकर द्रव्य के पास कैसे जायेगा। (रा.वा./5/2/9/439/16)
- दूसरी बात यह भी है कि संयोग सम्बन्ध तो दो स्वतन्त्र सत्ताधारी पदार्थों में होता है, जैसे कि देवदत्त व फरसे का सम्बन्ध। परन्तु यहां तो द्रव्य व गुण भिन्न सत्ताधारी पदार्थ ही प्रसिद्ध नहीं है, जिनका कि संयोग होना सम्भव हो सके। (स.सि./5/2/266/10) (रा.वा./1/1/5/7/5/8); (रा.वा./1/9/11/46/19); (रा.वा./5/2/10/439/20); (रा.वा./5/2/3/436/31); (क.पा.1/1-20/322/353/6)।
- गुण व गुणी के संयोग से पहले न गुण का लक्षण किया जा सकता है और न गुणी का। तथा न निराश्रय गुण की सत्ता रह सकती है और न नि:स्वभावी गुणी की। (पं.ध./पू./41-44)।
- यदि उष्ण गुण के संयोग से अग्नि उष्ण होती है तो वह उष्णगुण भी अन्य उष्णगुण के योग से उष्ण होना चाहिए। इस प्रकार गुण के योग से द्रव्य को गुणी मानने से अनवस्था दोष आता है। (रा.वा./1/1/10/5/25); (रा.वा./2/8/5/119/17)।
- यदि जिनका अपना कोई भी लक्षण नहीं है ऐसे द्रव्य व गुण, इन दो पदार्थों के मिलने से एक गुणवान् द्रव्य उत्पन्न हो सकता है तो दो अन्धों के मिलने से एक नेत्रवान् हो जाना चाहिए। (रा.वा./1/9/11/46/20); (रा.वा./5/2/3/437/5)।
- जैसे दीपक का संयोग किसी जात्यंध व्यक्ति को दृष्टि प्रदान नहीं कर सकता उसी प्रकार गुण किसी निर्गुण पदार्थ में अनहुई शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकता। (रा.वा./1/10/9/50/15)।
- धर्म व धर्मी में समवाय सम्बन्ध का निरास
यदि यह कहा जाये कि गुण व गुणी में संयोग सम्बन्ध नहीं है बल्कि समवाय सम्बन्ध है जो कि समवाय नामक ‘एक’, ‘विभु’, व ‘नित्य’ पदार्थ द्वारा कराया जाता है, तो वह भी कहना नहीं बनता–क्योंकि,- पहले तो वह समवाय नाम का पदार्थ ही सिद्ध नहीं है (देखें समवाय )।
- और यदि उसे मान भी लिया जाये तो, जो स्वयं ही द्रव्य से पृथक् होकर रहता है ऐसा समवाय नाम का पदार्थ भला गुण व द्रव्य का सम्बन्ध कैसे करा सकता है। (आप्त.मी./64,66); (रा.वा./1/1/14/6/16)।
- दूसरे एक समवाय पदार्थ की अनेकों में वृत्ति कैसे सम्भव है। (आप्त.मी./65); (रा.वा./1/33/5/96/17)।
- गुण का सम्बन्ध होने से पहले वह द्रव्य गुणवान् है, या निर्गुण ? यदि गुणवान् तो फिर समवाय द्वारा सम्बन्ध कराने की कल्पना ही व्यर्थ है, और यदि वह निर्गुण है तो गुण के सम्बन्ध से भी वह गुणवान् कैसे बन सकेगा। क्योंकि किसी भी पदार्थ में असत् शक्ति का उत्पाद असम्भव है। यदि ऐसा होने लगे तो ज्ञान के सम्बन्ध से घट भी चेतन बन बैठेगा। (पं.का./मू./48-49); (रा.वा./1/1/9/5/21); (रा.वा./1/33/5/96/3); (रा.वा./5/2/3/437/7)।
- ज्ञान का सम्बन्ध जीव से ही होगा घट से नहीं यह नियम भी तो नहीं किया जा सकता। (रा.वा./1/1/13/6/8); (रा.वा./1/9/11/46/16)।
- यदि कहा जाये कि समवाय सम्बन्ध अपने समवायिकारण में ही गुण का सम्बन्ध कराता है, अन्य में नहीं और इसलिए उपरोक्त दूषण नहीं आता तो हम पूछते हैं कि गुण का सम्बन्ध होने से पहले जब द्रव्य का अपना कोई स्वरूप ही नहीं है, तो समवायिकारण ही किसे कहोगे। (रा.वा./5/2/3/437/17)।
- एकान्त अभेद पक्ष का निरास
- सत् या द्रव्य की अपेक्षा द्वैत-अद्वैत
- द्रव्य की स्वतन्त्रता
- द्रव्य अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता
पं.का./मू./7 अण्णोण्णं पविस्संता दिंता ओगासमण्णमण्णस्स। मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति। =वे छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर (क्षीरनीरवत्) मिल जाते हैं, तथापि सदा अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। (प.प्र./मू./2/25)। (सं.सा./आ./3)।
पं.का./त.प्र./37 द्रव्यं स्वद्रव्येण सदाशून्यमिति। =द्रव्य स्वद्रव्य से सदा अशून्य है। - एक द्रव्य अन्य रूप परिणमन नहीं करता
प.प्र./मू./1/67 अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि ण होइ। परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमे पभणहिं जोइ। =निजवस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर ही हैं। आत्मा तो परद्रव्य नहीं होता और परद्रव्य आत्मा नहीं होता, ऐसा निश्चय कर योगीश्वर कहते हैं।
न.च.वृ./7 अवरोप्परं विमिस्सा तह अण्णोण्णावगासदो णिच्चं। संतो वि एयखेत्ते ण परसहावेहि गच्छंति।7। =परस्पर में मिले हुए तथा एक दूसरे में प्रवेश पाकर नित्य एकक्षेत्र में रहते हुए भी इन छहों द्रव्यों में से कोई भी अन्य द्रव्य के स्वभाव को प्राप्त नहीं होता। (स.सा./आ./3)।
यो.सा./अ./9/46 सर्वे भावा: स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिता:। न शक्यन्तेऽन्यथा कर्तुं ते परेण कदाचन । =समस्त पदार्थ स्वभाव से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं, वे कभी अन्य पदार्थों से अन्यथा नहीं किये जा सकते। पं.ध./पू./461 न यतोऽशक्यविवेचनमेकक्षेत्रावगाहिनां चास्ति। एकत्वमनेकत्वं न हि तेषां तथापि तदयोगात् । =यद्यपि ये सभी द्रव्य एक क्षेत्रावगाही हैं, तो भी उनमें एकत्व नहीं है, इसलिए द्रव्यों में क्षेत्रकृत एकत्व अनेकत्व मानना युक्त नहीं है। (पं.ध./पू./569)।
पं.का./त.प्र./37 द्रव्यमन्यद्रव्यै: सदा शून्यमिति। =द्रव्य अन्य द्रव्यों से सदा शून्य है। - द्रव्य अनन्यशरण है
बा.अ./11 जाइजरमरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो।11। जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदि से आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तव में जो कर्मों की बन्ध उदय और सत्ता अवस्था से भिन्न है, वह आत्मा ही इस संसार में शरण है। पं.ध./पू./8,528 तत्त्वं सल्लक्षणिकं ...स्वसहायं निर्विकल्पं च।8। अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा। अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणम् ।528। =तत्त्व सत् लक्षणवाला, स्वसहाय व निर्विकल्प होता है।8। सम्पूर्ण संकर व शून्य दोषों से रहित सम्पूर्ण वस्तु सद्भूत व्यवहारनय से अणु की तरह अनन्य शरण है, ऐसा ज्ञान होता है। - <a name="5.4" id="5.4"></a>द्रव्य निश्चय से अपने में ही स्थित है, आकाशस्थित कहना व्यवहार है
रा.वा./5/12/5-6/454/28 एवंभूतनयादेशात् सर्वद्रव्याणि परमार्थतया आत्मप्रतिष्ठानि।...।5। अन्योन्याधारताव्याघात इति; चेन्न; व्यवहारतस्तत्सिद्धे:।6। =एवंभूतनय की दृष्टि से देखा जाये तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित ही हैं, इनमें आधाराधेय भाव नहीं है, व्यवहारनय से ही परस्पर आधार-आधेयभाव की कल्पना होती है। जैसे कि वायु के लिए आकाश, जल को वायु, पृथिवी को जल आधार माने जाते हैं।
- द्रव्य अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता
पुराणकोष से
यह सत्, संध्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारों तथा नाम स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों से ज्ञेय होता है । हरिवंशपुराण 1. 1, 2.108, 17.135 जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ये पांचों बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय हैं, काल एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है परन्तु द्रव्य है । वे छहों गुण और पर्याय से युक्त होते हैं । इनमें जीव को छोड़ कर शेष द्रव्य अजीव हैं । इनका परिणमन अपने-अपने गुण और पर्याय के अनुरूप होता है । ये सब स्वतन्त्र हैं । महापुराण 3.5-9 वीरवर्द्धमान चरित्र 16.137-138