पुण्य की अनिष्टता व इष्टता का समन्वय
From जैनकोष
- पुण्य की अनिष्टता व इष्टता का समन्वय
- पुण्य दो प्रकार का होता है
प्र.सा/मू./255 व त.प्र./256 रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं। णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि। 255। शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्व-कोऽपुनर्भवोपलंभः किल फलं, तत्तु कारणवैपरीत्याद्विपर्यय एव। तत्र छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं तेषु व्रतनियमाध्ययन-ध्यानदानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्यापुनर्भवशून्यकेवलपुण्यपसदप्राप्तिः। फलवैपरीत्यं तत्सुदेवमनुजत्वं। = जैसे इस जगत् में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हए बीज धान्यकाल में विपरीततया फलित होते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तुभेद से विपरीततया फलता है। 255। सर्वज्ञ स्थापित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य-संचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। वह फल कारण की विपरीतता होने से विपरीत ही होता है। वहाँ छद्मस्थ स्थापित वस्तु में कारण विपरीतता है, (क्योंकि) उनमें व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान आदि रूप से युक्त शुभोपयोग का फल जो मोक्षशून्य केवल पुण्यास्पद की प्राप्ति है, वह फल की विपरीतता है। वह फल सुदेव मनुष्यत्व है। (अर्थात् पुण्य दो प्रकार का है - एक सम्यग्दृष्टि का और दूसरा मिथ्यादृष्टि का। पहिला परंपरा मोक्ष का कारण है और दूसरा केवल स्वर्ग संपदा का)।
देखें मिथ्यादृष्टि - 4 (सम्यग्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबंधी होता है और मिथ्यादृष्टि का पापानुबंधी)।
देखें धर्म - 7.8-12 (सम्यग्दृष्टि का पुण्य तीथकर प्रकृति आदि के बंध का कारण होने से विशिष्ट प्रकार का है)।
देखें पुण्य - 3.9 (और मिथ्यादृष्टि का पुण्य निदान सहित व भोगमूलक होने के कारण आगे जाकर कुगतियों का कारण होता है, अतः अत्यंत अनिष्ट है)।
देखें मिथ्यादृष्टि - 4 (मिथ्यादृष्टि भोगमूलक धर्म की श्रद्धा करता है। मोक्षमूलक धर्म को वह जानता ही नहीं)।
- भोगमूलक पुण्य ही निषिद्ध है योगमूलक नहीं
पं.विं./7/25 पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः, शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरतः। तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो संमतः, यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते। 25। = धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन सुख से युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। शेष तीन पुरुषार्थ उससे विपरीत (अस्थिर) स्वभाववाले हैं। अतएव वे मुमुक्षुजन के लिए छोड़ने के योग्य हैं। इसलिए जो धर्मपुरुषार्थ उपर्युक्त मोक्षपुरुषार्थ का साधन होता है वह हमें अभीष्ट है, किंतु जो धर्म केवल भोगादिका ही कारण होता है, उसे विद्वज्जन पाप ही समझते हैं।
देखें धर्म - 7 (यद्यपि व्यवहार धर्म पुण्य प्रधान होता है, परंतु यदि निश्चय धर्म की ओर झुका हुआ हो तो परंपरा से निर्जरा व मोक्ष का कारण होता है।)
परमात्मप्रकाश टीका/2/60/182/1 इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरत्नत्रयाराधनारहितेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदान-बंधपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे तदेव मदमहंकार जनयति बुद्धिविनाशं च करोति। न च पुनः सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरतसगररामपांडवादिपुंयबंधवत्। ...मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गताः। = भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना से रहित तथा दृष्ट, श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षारूप निदानबंध से सहित होने के कारण ही, जीवों के द्वारा पूर्व में उपार्जित किया गया वह पूर्वोक्त पुण्य मद व अहंकार उत्पन्न करता है तथा बुद्धि को भ्रष्ट करता है; परंतु सम्यक्त्वादि गुणों से सहित पुण्य ऐसा नहीं करता। जैसे कि भरत, सगर, राम व पांडवादि का पुण्य, जिसको प्राप्त करके भी वे मद और अहंकारादि विकल्पों के त्यागपूर्वक मोक्ष को प्राप्त हो गये। ( परमात्मप्रकाश टीका/2/57/179/8 )।
- पुण्य के निषेध का कारण व प्रयोजन
प्रवचनसार/11 धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं। 11। = धर्म से परिणत स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्ध उपयोग में युक्त हो तो मोक्ष सुख को प्राप्त करता है, और यदि शुभोपयोग वाला हो तो स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है (इसलिए मुमुक्षु को शुद्धोपयोग ही प्रिय है शुभोपयोग नहीं।) (वा.अ./42); ( तिलोयपण्णत्ति/9/57 )।
देखें पुण्य - 2.6 - (अशुद्धोपयोग होने के कारण पुण्य व पाप दोनों त्याज्य हैं।)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/410 पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगई-हेदुं पुण्ण-खएणेव णिव्वाणं। 410। = जो पुण्य को चाहता है वह संसार को चाहता है क्योंकि पुण्य सुगति का कारण है। पुण्यक्षय होने से ही मोक्ष होता है। (अतः मुमुक्षु भव्य पुण्य के क्षय का प्रयत्न करता है, उसकी प्राप्ति का नहीं।)
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41/ क, 59 सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं, त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः। उभयसमयसारं सारतत्त्व-स्वरूपं, भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीशः। 59। = समस्त सुकृत (शुभ कर्म) भोगियों के भोग का मूल है; परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्तवाले मनुीश्वर भव से विमुक्त होने के हेतु उन समस्त शुभकर्म को छोड़ो और सारतत्त्वस्वरूप ऐसे उभय समयसार को भजो। इसमें क्या दोष है?
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/180/243/16 अयं परिणामः सर्वोऽपि सोपाधित्वात् बंधहेतुरिति ज्ञात्वा बंधे शुभाशुभसमस्तरागद्वेष-विनाशार्थं समस्त रागाद्युपाधिरहिते सहजानंदैकलक्षणसुखामृतस्वभावे निजात्मद्रव्ये भावना कर्त्तव्येति तात्पर्यम्। = ये शुभ व अशुभ समस्त ही परिणाम उपाधि सहित होने के कारण बंध के हेतु हैं (देखें पुण्य - 2.4)। ऐसा जानकर, बंधरूप समस्त शुभाशुभ रागद्वेष का विनाश करने के लिए, समस्त रागादि उपाधि से रहित सहजानंद लक्षणवाले सुखामृत स्वभावी निजात्मद्रव्य में भावना करनी चाहिए ऐसा तात्पर्य है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128-130/193/11 )।
देखें धर्म - 5.2 (शुद्धभाव का आश्रय करने पर ही शुभभावों का निषेध किया है सर्वथा नहीं।)
मो.मो.प्र./7/301/14 प्रश्न - शास्त्रविषैं शुभ-अशुभ कौं समान कह्या है (देखें पुण्य - 2), तातैं हमकों तौ विशेष जानना युक्त नाहीं?उत्तर - जे जीव शुभोपयोग को मोक्ष का कारण मानि, उपादेय मानैं, शुद्धोपयोग को नाहीं पहिचानै हैं, तिनिकौं शुभ-अशुभ दोऊनिकौं अशुद्धता की अपेक्षा वा बंधकारण की अपेक्षा समान दिखाये हैं, बहुरि शुभ-अशुभ का परस्पर विचार कीजिए, तौ शुभभावनि विषैं कषाय मंद हो है, तातैं बंध हीन होहै। अशुभ भावनिविषैं कषाय तीव्र हो है, तातैं बंध बहुत हो है। ऐसे विचार किए अशुभ की अपेक्षा सिद्धांत विषै शुभ को भला भी कहिये है। (देखें पुण्य - 4.1 तथा पुण्य/5/5)।
- सम्यग्दृष्टि का पुण्य निरीह होता है
इष्टोपदेश/4 यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद्दूरवर्तिनी। यो नयत्याशु गव्यूति कोशाद्धे किं स सीदति। 4। = जो मनुष्य किसी भार को स्वेच्छा से शीघ्र दो कोस ले जाता है, वह उसी भार को आधाकोस ले जाने में कैसे खिन्न हो सकता है? उसी प्रकार जिस भाव में मोक्ष-सुख प्राप्त कराने की सामर्थ्य है उसे स्वर्गसुख की प्राप्ति कितनी दूर है अर्थात् कौन बड़ी बात है?
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/411-412 जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसयसोक्खतण्हाए। दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि। 411। पुण्णासाए ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णो वि म (ण) आयरं कुणह। 412। = जो कषाय सहित होकर विषय-तृष्णा से पुण्य की अभिलाषा करता है, उससे विशुद्धि और विशुद्धि-मूलक पुण्य दूर है। 411। तथा पुण्य की इच्छा करने से पुण्य नहीं होता, बल्कि निरीह (इच्छा रहित) व्यक्ति को ही उसकी प्राप्ति होती है। अतः ऐसा जानकर हे यतीश्वरो ! पुण्य में भी आदरभाव मत करो। 412।
- पुण्य के साथ पाप-प्रकृतियों के बंध संबंधी समन्वय
राजवार्तिक/6/3/7/507/23 स्यादेतत्-शुभः पुण्यस्येत्यनिर्देशः, ...कुतः। घातिकर्मबंधस्य शुभपरिणामहेतुत्वादितिः तन्नः किं कारणम्। इतरपुण्यपापापेक्षत्वात्, अघातिकर्मसु पुण्यं पापं चापेक्ष्येदमुच्यते। कुतः। घातिकर्मबंधस्य स्वविषये निमित्तत्वात्। अभवा नैवमवधारणं, क्रियते-शुभः पुण्यस्यैवेति। कथं तर्हि। शुभ एव पुण्यस्येति। तेन शुभः पापस्यापि हेतुरित्यविरोधः। यद्येवं शुभः पापस्यापि [हेतुः] भवतिः अशुभः पुण्यस्यापि भवतीत्यभ्युपगमः कर्तव्यः, सर्वोत्कृष्टस्थितीनाम् उत्कृष्टसंक्लेशहेतुकत्वात्। ...ततः सूत्रद्वयमनर्थकमितिः नानर्थकम्ः अनुभागबंधं प्रत्येतदुक्तम्। अनुभागबंधो हि प्रधानभूतः तन्निमित्तत्वात् सुख-दुःखविपाकस्य। तत्रोत्कृष्टविशुद्धपरिणामनिमित्तः सर्वशुभप्रकृती-नामुत्कृष्टाणुभागबंधः। उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामनिमित्तः सर्वाशुभ-प्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबंधः। शुभपरिणामः अशुभजघन्यानुभाग-बंधहेतुत्वेऽपि भूयसः शुभस्य हेतुरिति शुभः पुण्यस्येत्युच्यते, यथा अल्पापकारहेतुरपि बहूपकारसद्भावादुपकार इत्युच्यते। एवमशुभः पापस्येत्यपि। = प्रश्न - जब घाति कर्मों का बंध भी शुभ परिणामों से होता है तो ‘शुभः पुण्यस्य’ अर्थात् ‘शुभपरिणाम पुण्यास्रव के कारण हैं’ यह निर्देश व्यर्थ हो जाता है? उत्तर - 1.अघातिया कर्मों में जो पुण्य और पाप प्रकृतियाँ हैं, उनकी अपेक्षा ही यहाँ पुण्य व पाप हेतुता का निर्देश है, घातिया की अपेक्षा नहीं। 2. अथवा शुभ पुण्य का ही कारण है ऐसा अवधारण नहीं करते हैं; किंतु ‘शुभ ही पुण्य का कारण है’ यह अवधारण किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि शुभ पाप का भी हेतु हो सकता है। प्रश्न - यदि शुभ पाप का और अशुभ पुण्य का ही कारण होता है; क्योंकि सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है (देखें स्थिति - 4), अतः दोनों सूत्र निरर्थक हो जाते हैं? उत्तर - नहीं; क्योंकि यहाँ अनुभागबंध की अपेक्षा सूत्रों को लगाना चाहिए। अनुभागबंध प्रधान है, वही सुख-दुःखरूप फल का निमित्त होता है। समस्त शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से और समस्त अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है (देखें अनुभाग - 2.2)। यद्यपि उत्कृष्ट शुभ परिणाम अशुभ के जघन्य अनुभागबंध के भी कारण होते हैं, पर बहुत शुभ के कारण होने से ‘शुभः पुण्यस्य’ सूत्र सार्थक है; जैसे कि घोड़ा अपकार करने पर भी बहुत उपकार करनेवाला उपकारक ही माना जाता है। इसी तरह ‘अशुभः पापस्य’ इस सूत्र में भी समझ लेना चाहिए।
- पुण्य दो प्रकार का होता है