सीता
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
- विदेह क्षेत्र की प्रधान नदी-देखें लोक - 3.11।
- विदेह क्षेत्रस्थ एक कुंड जिसमें से सीता नदी निकलती है-देखें लोक - 3.10।
- नील पर्वतस्थ एक कूट-देखें लोक - 5.4।
- सीता कुंड व सीता कूट की स्वामिनीदेवी-देखें लोक - 3.10।
- माल्यवान् पर्वतस्थ एक कूट-देखें लोक - 5.4;
- रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-देखें लोक - 5.13।
- वर्तमान पामीर प्रदेश के पूर्व से निकली हुई यारकंद नदी है। चातुर्द्वीपक भूगोल के अनुसार यह मेरु के पूर्ववर्ती भद्राश्व महाद्वीप की नदी है। चीनी लोग इसे अब तक सीतो कहते हैं। यह काराकोरमके शीतान नामक स्कंध से निकलकर पामीर के पूर्व की ओर चीनी तुर्किस्तान में चली गयी है। उक्त शीतान पुराणों की शीतांत है। तकलामकान की मरुभूमि में से होती हुई एक आध और नदियों के मिल जाने पर 'तारीम' नाम धारण करके लोपनूप नामक खारी झील में जिसका विस्तार आज से कहीं अधिक था जा गिरती है। इसका वर्णन वायु पुराण में लिखा है-'कृत्वा द्विधा सिंधुमरून् सीतागात् पश्चिमोदधिम् (47,43) सिंधुमरु तकला-मकान के लिए उपयुक्त नाम है। क्योंकि इसका बालू समुद्रवत् दीखता है। पश्चिमोदधि से लोनपुर झील का तात्पर्य है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र.140 A.N.Upadhye; H.L.Jain)
- पद्मपुराण/ सर्ग./श्लोक-राजा जनक की पुत्री (26/121) स्वयंवर में राम के द्वारा वरी गयी (28/245) वनवास में राम के संग गयी (31/191) वहाँ पर राम लक्ष्मण की अनुपस्थिति में रावण इसे हरकर ले गया (44/83-84)। रावण के द्वारा अनेकों भय देने पर अपने शील से तनिक भी विचलित न होना (46/82) रावण के मारे जाने पर सीता राम से मिली (91/46)। अयोध्या लौटने पर लोकापवाद से राम द्वारा सीता का परित्याग (97/1089)। सीता की अग्नि परीक्षा होना (105/29)। विरक्त हो दीक्षित हो गयी। 62 वर्ष पर्यंत तपकर समाधिमरण किया। तथा सोलहवें स्वर्ग में देवेंद्र हुई (109/17-18)।
पुराणकोष से
(1) विदेहक्षेत्र की चौदह महानदियों में सातवीं नदी । यह केसरी सरोवर से निकली है । यह सात हजार चार सौ इकतीस योजन एक कला प्रमाण नील पर्वत पर बहकर सौ योजन दूर चार सौ योजन की ऊँचाई से नीचे गिरी है । यह पूर्व समुद्र की ओर बहती है । नील पर्वत की दक्षिण दिशा में इस नदी के पूर्व तट पर चित्र और विचित्र दो कूट है, मेरु पर्वत से पूर्व की ओर सीता नदी के उत्तर तट पर पद्मोत्तर और दक्षिण तट पर नीलवान् कूट है । पश्चिम तट पर वसंतकूट और पूर्व तट पर रोचनकूट है । इसमें पाँच लाख बत्तीस हजार नदियाँ मिली है । महापुराण 63.195, हरिवंशपुराण 5.123, 134, 156-158, 160, 191, 205, 208, 273
(2) नील कुलाचल का चौथा कूट । हरिवंशपुराण 5. 100
(3) माल्यवान् पर्वत का आठवाँ कूट । हरिवंशपुराण 5.220
(4) अरिष्टपुर नगर के राजा हिरण्यनाभ के भाई रेवत की तीसरी पुत्री । यह कृष्ण के भाई बलदेव के साथ विवाही गयी थी । हरिवंशपुराण 44.37, 40-41
(5) जंबूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र की द्वारवती नगरी के राजा सोमप्रभ की दूसरी रानी । पुरुषोत्तम नारायण की यह जननी थी । महापुराण 60.63, 66, 67.142-143
(6) रुचक पर्वत के यश-कूट की दिक्कुमारी देवी । हरिवंशपुराण 5.714
(7) जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र की मिथिला नगरी के राजा जनक की पुत्री । पद्मपुराण के अनुसार इसकी माता विदेहा थी । यह और इसका भाई भामंडल दोनों युगलरूप में उत्पन्न हुए थे । इसका दूसरा नाम जानकी था । महापुराण के अनुसार यह लंका के राजा रावण और उसकी रानी मंदोदरी की पुत्री थी । इसने पूर्व भव में मणिमती की पर्याय में विद्या-सिद्धि के समय रावण द्वारा किये गए विघ्न से कुपित होकर उसकी पुत्री होने तथा उसके वध का कारण बनने का निदान किया था, जिसके फलस्वरूप यह मंदोदरी की पुत्री हुई । रावण ने निमित्तज्ञानियों से इसे अपने वध का कारण जानकर मारीच को इसे बाहर छोड़ आने के लिए आज्ञा दी थी । मारीच भी मंदोदरी द्वारा संदूक में बंद की गयी इसे ले जाकर मिथिला नगरी के समीप एक उद्यान के किसी ईषत् प्रकट स्थान में छोड़ आया था । संदूकची भूमि जोतते हुए किसी कृषक के हल से टकरायी कृषक ने ले जाकर संदूकची राजा जनक को दी । जनक ने संदूकची में रखे पत्र से पूर्वा पर संबंध ज्ञात कर इसे अपनी रानी वसुधा को सौंप दी । वसुधा ने भी इसका पुत्रीवत् पालन किया । इसका यह रहस्य रावण को विदित नहीं हो सका था । स्वयंवर में राम ने इसका वरण किया था । राम के वन जाने पर इसने राम का अनुगमन किया था । वन में इसने सुगुप्ति और गुप्ति नामक युगल मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । राम के विरोध में युद्ध के लिए रावण को नारद द्वारा उत्तेजित किये जाने पर रावण ने सीता को हर कर ले जाने का निश्चय किया । लक्ष्मण ने वन में सूर्यहास खड्ग प्राप्त की तथा उसकी परीक्षा के लिए उसने उसे बाँसों पर चलाया, जिससे दाँतों के बीच इसी खड्ग की साधना में रत शंबूक मारा गया था । शंबूक के मरने से उसका पिता खरदूषण लक्ष्मण से युद्ध करने आया । लक्ष्मण उससे युद्ध करने गया । इधर रावण ने सिंहनाद कर बार-बार राम ! राम ! उच्चारण किया । राम ने समझा सिंहनाद लक्ष्मण ने किया है और वे मालाओं से इसे ढँककर लक्ष्मण की ओर चले गये । इसे अकेला देखकर रावण पृथक विमान में बलात् बैठाकर हर ले गया । महापुराण के अनुसार इसे हरकर ले जाने के लिए रावण की आज्ञा से मारीच एक सुंदर हरिण-शिशु का रूप धारण कर सीता के समक्ष आया था । राम इसके कहने से हरिण को पकड़ने के लिए हरिण के पीछे-पीछे गये, इधर रावण बहुरूपिणी विद्या से राम का रूप बनाकर इसके पास आया और पुष्पक विमान पर बैठाकर हर ले गया । रावण ने इसके शीलवती होने के कारण अपनी आकाशगामिनी विद्या के नष्ट हो जाने के भय से इसका स्पर्श भी नहीं किया था । रावण द्वारा हरकर अपने को लंका लाया जानकर इसने राम के समाचार न मिलने तक के लिए आहार न लेने की प्रतिज्ञा की थी । रावण को स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर इसने अपने छेदे-भेदे जाने पर भी परमपुरुष से विरक्त रहने का निश्चय किया था । राम के इसके वियोग में बहुत दु:खी हुए । राजा दशरथ ने स्वप्न में रावण को इसे हरकर ले जाते हुए देखा था । अपने स्वप्न का संदेश उन्होंने राम के पास भेजा । इसे खोजने के लिए राम ने पहिचान स्वरूप अपनी अंगूठी देकर हनुमान् को लंका भेजा था । लंका में हनुमान् न अंगूठी जैसे ही इसकी गोद में डाली कि यह अंगूठी देख हर्षित हुई । अंगूठी देख प्रतीति उत्पन्न करने के पश्चात् हनुमान ने इसे साहस बंधाया और लौटकर राम को समाचार दिये । सीता की प्राप्ति के शांतिपूर्ण उपाय निष्कल होने पर राम-लक्ष्मण ने रावण से युद्ध किया तथा युद्ध में लक्ष्मण ने रावण से युद्ध किया तथा युद्ध में लक्ष्मण ने रावण को मार डाला । रावण पर राम की विजय होने के पश्चात् इसका राम से मिलन हुआ । वेदवती की पर्याय में मुनि सुदर्शन और आर्यिका सुदर्शना का अपवाद करने से इसका लंका से अयोध्या आने पर लंका में रहने से इसके सतीत्व के भंग होने का अपवाद फैला था । राम ने इस लोकापवाद को दूर करने लिए गर्भवती होते हुए भी अपने सेनापति कृतांतवक्त्र को इसे सिंहनाद अटवी में छोड़ आने के लिए आज्ञा दी थी । निर्जन वन में छोड़ जाने पर इसने राम को दोष नहीं दिया था, अपितु इसने इसे अपना पूर्ववत् कर्म-फल माना था । इसने सेनापति के द्वारा राम को संदेश भेजा था कि वे प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करें और सम्यग्दर्शन को किसी भी तरह न छोड़े । वन में हाथी पकड़ने के लिए आये पुंडरीकपुर के राजा वज्रजंघ ने इसे दु:खी देखा तथा इसका समस्त वृतांत ज्ञातकर इसे अपनी बड़ी बहिन माना और इसे अपने घर ले गया । इसके दोनों पुत्रों अनंगलवण और मदनांकुश का जन्म इसी वज्रजंघ के घर हुआ था । नारद से इन बालकों ने राम-लक्ष्मण का वृतांत सुना । राम के द्वारा सीता के परित्याग की बात सुनकर दोनों ने अपनी माता से पूछा । पूछने पर इसने भी नारद के अनुसार ही अपना जीवन-वृत्त पुत्रों को सुना दिया । यह सुनकर माता के अपमान का परिशोध करने के लिए वे दोनों ससैन्य अयोध्या गये और उन्होंने अयोध्या घेर ली । राम और लक्ष्मण के साथ उनका घोर युद्ध हुआ राम और लक्ष्मण उन्हें जीत नहीं पाये । तब सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक ने राम को बताया कि वे दोनों बालक सीता से उत्पन्न आपके ही ये पुत्र है । यह जानकर राम और लक्ष्मण ने शस्त्र त्याग दिये और पिता पुत्रों का प्रेमपूर्वक मिलन हो गया । हनुमान सुग्रीव और विभीषण आदि के निवेदन पर सीता अयोध्या लायी गयी । जनपवाद दूर करने के लिए राम ने सीता से अग्नि परीक्षा देने के लिए कहा जिसे इसने सहर्ष स्वीकार किया और पंच परमेष्ठी का स्मरण कर अग्नि में प्रवेश किया । अग्नि शीतल जल में परिवर्तित हो गयी थी । इसके पश्चात् राम ने इसे महारानी के रूप में राजप्रासाद में प्रवेश करने की प्रार्थना की किंतु इसने समस्त घटना चक्र से विरक्त होकर पृथ्वीमती आर्या के पास दीक्षा ले ली थी । बासठ वर्ष तक घोर तप करने के पश्चात् तैंतीस दिन की सल्लेखनापूर्वक देह राग कर यह अच्युत स्वर्ग में देवेंद्र हुई । इसने स्वर्ग से नरक जाकर लक्ष्मण और रावण के जीवों को सम्यक्त्व का महत्त्व बताया था, जिसे सुनकर वे दोनों सम्यग्दृष्टि हो गये थे । महापुराण 67.166-167, 68. 18-34, 106-114, 179-293, 376-382, 410-418, 627-629, पद्मपुराण 26. 121, 164-166, 28.245, 31. 191, 41.21-31, 43.41-61, 73, 44.78-90 46.25-26, 70-85, 53.26, 170, 262, 54. 8-25, 66.33-45, 76.28-35, 79.45-48, 83.36-38, 95.1-8, 97.58.63, 113-156, 98.1-97, 100.17-21, 102. 2-80, 129-135, 103.16-18, 29-47, 104.19-20, 33, 39-40, 77, 105.21-29, 78, 106.225-231, 109. 7-18, 123. 46-47, 53