जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई
From जैनकोष
जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई ।
तबतैं संशय विमोह भरमता विलाई ।।जबतैं. ।।
मैं हूँ चितचिह्न, भिन्न परतें, पर जड़स्वरूप ।
दोउनकी एकतासु, जानी दुखदाई।।१ ।।जबतैं. ।।
रागादिक बंधहेत, बंधन बहु विपति देत ।
संवर हित जान तासु, हेत ज्ञानताई।।२ ।।जबतैं. ।।
सब सुखमय शिव है तसु, कारन विधिझारन इमि ।
तत्त्व की विचारन जिन-वानि सुधिकराई।।३ ।।जबतैं. ।।
विषयचाह ज्वालतैं, दह्यो अनंतकालतैं ।
सुधांबुस्यात्पदांकगाह तें प्रशांति आई।।४ ।।जबतैं. ।।
या विन जगजाल में, न शरन तीनकाल में ।
सम्हाल चित भजो सदीव, `दौल' यह सुहाई।।५ ।।जबतैं. ।।