वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 6
From जैनकोष
अट्ठ चदुणाण दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं ।
ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं णाणं ।।6।।
अन्वय―ववहारा अट्ठ णाणं चदु दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं, पुण सुद्धणया सुद्धं दंसणं णाणं जीवलक्खणं ।
अर्थ―व्यवहारनय से आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन सामान्य रूप से जीव का लक्षण कहा गया है, परंतु शुद्धनग से शुद्ध (निरपेक्ष) दर्शन ज्ञान जीव का लक्षण है ।
प्रश्न 1―व्यवहारनय किसे कहते हैं ?
उत्तर―जो बुद्धि, पर्याय, भेद, संयोग को विषय करे उसे व्यवहारनय कहते हैं ।
प्रश्न 2―आठ प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन जीव के लक्षण व्यवहारनय से क्यों हैं ?
उत्तर―केवलज्ञान और केवलदर्शन तो शुद्ध पर्याय है और मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान व मनःपर्ययज्ञान तथा चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन ये अशुद्ध अर्थात् अपूर्ण पर्यायें हैं । अत: इनको जीव का लक्षण कहना व्यवहारनय से ही बनता है ।
प्रश्न 3-―केवलज्ञान, केवलदर्शन किस व्यवहारनय जीव का लक्षण है ?
उत्तर―केवलज्ञान व केवलदर्शन शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय से जीव का लक्षण है । इस प्रसंग में इस नय का दूसरा नाम अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय भी है । केवलज्ञान और केवलदर्शन निरपेक्ष पूर्ण स्वाभाविक शुद्ध पर्याय है ।
प्रश्न 4―मतिज्ञानादिक 4 ज्ञान व चक्षुर्दर्शनादिक तीन दर्शन किस व्यवहारनयले जीव के लक्षण माने गये हैं ?
उत्तर―मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय―ये चार ज्ञान और आदि के 3 दर्शन अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय से जीव के लक्षण कहे गये हैं । इस नय का दूसरा नाम उपचरित सद्भूत व्यवहारनय भी है । ये ज्ञान व दर्शन, ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम के कारण यथार्थ कुछ प्रकट हैं इसलिये सद᳭भूत हैं, किंतु कारणवश अपूर्ण हैं, अत: अशुद्ध अथवा उपचरित हैं, पर्यायें हैं, अत: व्यवहारनय के विषय हैं ।
प्रश्न 5―कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान किस व्यवहारनय से जीव के लक्षण हैं ?
उत्तर―ये कुज्ञान उपचरितासद्भूतव्यवहार से जीव के लक्षण हैं । ये कुज्ञान मिथ्यात्व के उदयवश होते हैं, इसलिये उपचरित हैं, विकृत भाव हैं । अत: असद्भूत हैं और पर्यायें हैं, इस कारण व्यवहारनय के विषय हैं ।
प्रश्न 6―ये सामान्य से जीव के लक्षण हैं, इसका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर―ये बारह प्रकार के उपयोग समूह रूप में जीव के लक्षण कहे जा रहे हैं । अत: इसे व्यवहारनय से कहने पर भी संसारी या मुक्त जीव के लक्षण हैं, ऐसी विवक्षा नहीं है ।
प्रश्न 7―उपयोग बिना तो जीव रहता ही नहीं है, फिर ये उपयोग व्यवहारनय में क्यों कहे ?
उत्तर―उपयोग अर्थग्रहण के व्यापार को कहते हैं । यह उपयोग चाहे शुद्ध भी हो तो भी एक समय में जो जाननवृत्ति है वही दूसरे समय में नहीं है । दूसरे समय में दूसरी ही उस समय की जाननवृत्ति है । इसी कारण उपयोग जीव का लक्षण व्यवहार से ही है, क्योंकि उपयोग त्रैकालिक स्वभाव नहीं है ।
प्रश्न 8―उपयोग कितनी प्रकार के होते हैं ?
उत्तर―उपयोग 3 प्रकार के होते हैं―(1) शुद्ध, (2) शुभ और (3) अशुभ ।
प्रश्न 9―शुद्ध उपयोग कौन है ?
उत्तर―केवलज्ञान और केवलदर्शन―ये दो शुद्ध उपयोग हैं ।
प्रश्न 10―शुभ उपयोग कौन हैं ?
उत्तर―मतिज्ञानादिक 4 ज्ञान और चक्षुर्दर्शनादिक 3 दर्शन, ये शुभ उपयोग हैं ।
प्रश्न 11―अशुभ उपयोग कितने और कौन-कौन हैं ?
उत्तर―कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान―ये तीन कुज्ञान अशुभ उपयोग हैं ।
प्रश्न 11―शुद्धनय किसे कहते हैं ?
उत्तर―जो अभिप्राय अखंड निरपेक्ष त्रैकालिक शुद्धस्वभाव को जाने उसे शुद्धनय कहते हैं ।
प्रश्न 12―शुद्ध दर्शन का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर―शुद्ध दर्शन सहज दर्शनगुण याने दर्शनसामान्य है जो क्रमश: अनेक दर्शनोपयोग पर्यायरूप परिणम करके भी किसी दर्शनोपयोगरूप नहीं रहता ।
प्रश्न―शुद्ध ज्ञान का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर―शुद्ध ज्ञान ज्ञानसाम्राज्य अर्थात् सहज ज्ञानगुण को कहते हैं । यह शुद्ध ज्ञान क्रमश: अनेक ज्ञानोपयोगरूप परिणम करके भी किसी ज्ञानोपयोगरूप नहीं रहता ।
प्रश्न 15―यह शुद्ध ज्ञान, शुद्ध दर्शन शुद्धनय से क्यों जीव का लक्षण है ?
उत्तर―शुद्धनय पर्याय की अपेक्षा न करके बनता है और यह शुद्ध दर्शन और ज्ञान भी पर्याय की अपेक्षा न करके प्रतिभास होता है, अत: शुद्ध दर्शन व शुद्ध ज्ञान जीव के लक्षण शुद्धनय से कहे गये हैं ।
प्रश्न 16―उक्त चार नयों से कहे गये लक्षणों में किस नय से देखे गये जीव के लक्षण की दृष्टि उपादेय है ?
उत्तर―उक्त चार प्रकार के लक्षणों में से शुद्धनय से ज्ञात हुये जीव के लक्षण की दृष्टि उपादेय है ।
प्रश्न 17―शुद्धनय से जीव के लक्षण की दृष्टि क्यों उपादेय है ?
उत्तर―शुद्ध ज्ञान व दर्शन सहज शुद्ध, निर्विकार, अनाकुलस्वभाव, ध्रुवपारिणामिक भाव हैं । यह उपादेयभूत शाश्वत सहजानंदमय अक्षय सुख का उपादान कारण है । शुद्ध की दृष्टि से शुद्ध पर्याय प्रकट होती है, निर्विकार की दृष्टि से निर्विकार पर्याय प्रकट होती है, ध्रुव की दृष्टि से ध्रुव पर्याय प्रकट होती है । अत: सहज शुद्ध निर्विकार ध्रुव शुद्ध ज्ञान दर्शन की दृष्टि उपादेय है ।
प्रश्न 18―शुद्ध ज्ञान व दर्शन की दृष्टि भी तो एक पर्याय है, फिर यह दृष्टि क्यों उपादेय है ?
उत्तर―शुद्ध ज्ञान दर्शन की दृष्टि भी पर्याय है, इसलिये इस दृष्टि की दृष्टि नहीं करना चाहिये, किंतु शुद्ध ज्ञानदर्शन परमपारिणामिक भाव है, अत: शुद्ध ज्ञानदर्शन अर्थात् शुद्ध चैतन्य का अवलंबन करना चाहिये, यही “शुद्धज्ञान दर्शन की दृष्टि उपादेय है” इसका तात्पर्य है ।
इस प्रकार “जीव उपयोगमय है” इस अर्थ के व्याख्यान का अधिकार समाप्त करके जीव अमूर्त है, इसका वर्णन करते हैं ।