वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 118
From जैनकोष
अप्पा-दंसणि जिणवरहँ जं सुहु होइ अणंतु ।
तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु ।।118।।
निज शुद्ध आत्मा के दर्शन करने में जिनवरों को जो सुख उत्पन्न होता है, छद्मस्थ अवस्था में उन्हें जो सुख उत्पन्न होता है उससे अधिक सुख कहीं नहीं है । वीतराग भाव में परिणत जीव शिव-शांति का अनुभवन करता हुआ जिस सुख को प्राप्त करता है वह सुख तीन लोकों में किसी भी जगह नहीं है । सबसे बड़ा पुरुषार्थ है अपने जाननस्वरूप का अवलोकन करना और उसमें ही संतुष्ट रहना । जो अपने घर में सुख संतोषपूर्वक नही रह सकता वह दूसरे के घर में सुख और संतोष का उपाय क्या पा सकेगा? यह वीतरागी जीव महान् सुख को प्राप्त करता है । वीतराग बनने का उपाय क्या है कि वीतराग की भावन बनाएँ । हमें मोक्ष पाना है तो मोक्ष की स्थिति होती है । उस स्थिति की भावना बनाए तो हम तभी उस स्थिति की पा सकते हैं । बनाना तो चाहें हम बड़े और बनने के उपाय को करें नहीं तो बड़ा कैसे बना जा सकता है? वीतराग भावना परिणत यह जीव शिव, शांत निज आत्मस्वभाव को जानता हुआ यह निज शुद्ध आत्मस्वभाव ही शिवस्वरूप है, शांत है, रागादिक भावों से रहित है । दीक्षाकाल में शिव शब्द वाच्य निज शुद्ध आत्मा के अनुभवन में जो सुख उन जिनवरों को होता है उस सुख को वैसा ही जो बने, वह प्राप्त कर सकता है ।
भैया ! आप सुख की छँटनी करलो कि कौनसा सुख अच्छा है । भोजन में तो छँटनी बड़ी जल्दी कर लेते है, आज मूंग की पकौड़ी बनें और पापड़ बनें । रूखा-सूखा भोजन पसंद नहीं आया । बड़ी छँटनी कर लेते हैं । सब अनुमान लगा लेते हैं कि इस-इसके मिला लेने से ज्यादा स्वाद है । कहीं भूल जायें कि कौनसी चोज किसके साथ रवाना है तो हमारी माताएँ दया करके बता देती हैं कि महाराज, इसको इसके साथ खाओ तो अच्छा लगेगा । तो भोजन में कैसी छँटनी हो जाती है? अब जरा इस विश्व में दृष्टि पसार कर सुख की छँटनी करो कि कौनसा सुख पाने योग्य है? इस इंद्रियसुख में कोई सा भी सुख पसंद नहीं है ।
यह सुख क्या है? जैसे किसी के फोड़ा निकला, पक गया, तो उस पर मलहमपट्टी लगानी पड़ती है और फोड़ा ही किसी के न हो और फिर भी बंबई का मलहम कपड़े पर बांधकर तपाकर कोई बाँधे तो दुनिया उसे मूर्ख कहेगी । कोई फोड़ा-फुंसी हो तो मलहमपट्टी करे और कुछ नहीं है तो मलहमपट्टी करना पागलपन है ।
बुखार आ रहा है जाड़ा देकर तो उसे रजाइयां ओढ़ाई जायेंगी, ताकि पसीना निकले । और जिसके बुखार ही न हो और 10-20 रजाइयां ओढ़ा दी जायें तो उसे कौन बुद्धिमान कहेगा? बुखार हो तो रजाइयां औढ़ाकर पसीना निकलवा ले । फोड़ा-फुंसी हो तो मलहमपट्टी करा लें, पर निरोग हो तो मलहमपट्टी की क्या आवश्यकता है? इसी प्रकार जिन जीवों को चाह का रोग लगा है तो उस रोग को मिटाने के लिए ये विषयभोग प्रतिकार करते हैं, पर जिन्हें विषयों का रोग ही नहीं लगा है, वे निर्विषय हैं, निर्विकल्प हैं । उन्हें फिर विषयों की क्या आवश्यकता है? ये विषय वेदना के प्रतिकार हैं; इस पर भी वेदना का प्रतिकार करें ही, यह आवश्यक नहीं है ।
इंद्रियजंय विषयों का कोई सुख उपादेय नहीं है । हम बहुत बढ़िया-बढ़िया रूप वाले पदार्थों को देखा करें । तो क्या कुछ लाभ मिलेगा? ऐसा नहीं है । रसीले पदार्थों को खाया करें तो लाभ मिलेगा; सो बात नहीं है । आजकल असोज के दिन हैं, सो खाते तो हम-आप भर पेट मनमाना है; सो बुखार, जुकाम, खासी होंगे ही । दोष देते हैं ऋतु बदलने का । अरे ! चाहे जो बदले, पर संयम से अल्प भोजन हो, तो बीमारी की क्या आवश्यकता है? तो ये इंद्रियजंय जितने पदार्थ हैं, ये विषयों की वेदना के प्रतिकार हैं, सुखरूप नहीं हैं । सुख तो ज्ञानी पुरुष ही प्राप्त कर सकते है ।
भैया ! छँटनी कर रहे हैं ना? तो मन का सुख अच्छा होगा । लोगों में हमारी इज्जत बढ़ जाय, पोजीशन बढ़ जाय, लोग आगे बैठने को बुलायें, लोगों में हमारी महिमा फैले । अच्छा लो, फैला लों खूब । कोई पुरुष मरता हो और उसका जयकारा करने के लिए 10 आदमी बैठाल दें तो उन 10 आदमियों के जयकारा बोलने से भला होगा या मरने वाला खुद अपने परिणाम निर्मल बनाए, तो भला होगा? खुद ही के सच्चा उपाय किए जाने पर ही सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है । रोज पूजा किसलिए करना चाहिए? इसलिए कि हमारे मोह में कुछ फर्क आ जाए । निर्मोही वीर प्रभु का गुणानुवाद इसलिए करते हैं कि हमारे मोह में कुछ अंतर आ जाए । तीर्थयात्रा इसलिए करते हैं कि हमारे मोह में फर्क आ गए । पर मोह रखते हुए हो पूना करें और मोह रखते हुए ही यात्रा करें, तो वहाँ मोह के छूटने का काम क्या बन सकता है? नहीं । और मोह नहीं छूटेगा तो जीव को शांति नहीं मिल सकती । कोटि यत्न कर लो, पर मोह छोड़ बिना शांति नहीं मिलेगी । मोह से और आपत्तियाँ लग रही हैं, पर यह जीव मोह छोड़ने में आपत्ति समझता है । वीतराग निर्विकल्प समाधि में रत जीव ही भगवान् के जैसे सुख को प्राप्त कर सकते हैं ।
अब यह बतला रहे हैं कि काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का परिहार करके शिव शब्द द्वारा वाच्य यह परमात्मा देखा जाता है । ऐसी बात अपने मन में धरकर इस दोहे के आचार्य देव कहते हैं―