वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 125
From जैनकोष
प्रविहाय च द्वितीयान् देशचारित्रस्थ सम्मुखागात: ।
नियतं ते हि कषाया: देशचारित्रं निरुंधंति ।।125।।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ परिग्रह की देशचारित्रघातकता―मोक्षमार्ग में सबसे पहिले तो सम्यक्त्व चाहिये तो सम्यक्त्व के खातिर दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियां―मिथ्यात्व सम्यक्मिथ्यात्व सम्यक᳭प्रकृति और चारित्रमोहनीय की चार प्रकृतियां है―अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ―इन 7 प्रकृतियों का क्षय हो तो सम्यग्दर्शन होता है । तो सम्यग्दर्शन के बाद फिर देशचारित्र होता है तो उस देश चारित्र का वर्णन करते हैं । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों के क्षयोपशम से देशचारित्र होता है, क्योंकि ये चार कषायें अप्रत्याख्यानावरण की देशचारित्र को रोकती हैं । अप्रत्याख्यानावरण का अर्थ हे थोड़ा भी त्याग को रोकने वाली । देशचरित्र अणुव्रत को कहते हैं । तो जब सम्यक्त्व हो चुके, देशचरित्र न हो तो उसे चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं । और जा देशचारित्र हो तो उसे 5वां गुणस्थान कहते हैं । देशचारित्र के भी 11 भेद हैं । जिसे 11 प्रतिमा कहते हैं । सो जैसे-जैसे प्रत्याख्यानावरणी कषायें जो कि मुनि के व्रत को रोकती हैं, उनका कम-कम उदय चलता है वैसे ही वैसे देशचारित्र बढ़ता जाता है । देशचारित्र में जो दूसरी तीसरी चौथी आदि प्रतिमायें हैं तो वे प्रतिमा में कैसे बढ़ती हैं? अप्रत्याख्यानावरण का तो अनुदय सब में है । अब जो प्रत्याख्यानावरण कषाय है, जो मुनि के व्रत को रोकती है । उस कषाय का जैसे-जैसे मंद उदय होता जाता है वैसे ही वैसे प्रतिमा बढ़ती जाती है, क्योंकि 11वीं प्रतिमा के बाद साधु का पद आता है । वहाँ प्रत्याख्यानावरण कषाय बिल्कुल नहीं रहती । देश चारित्र में ये 11 भेद किये गये हैं । पहिली प्रतिमा में तो सप्त व्यसनों का त्याग, अष्टमूल गुणों का पालन ये सब निरतिचार बताया है । इन अष्ट मूल गुणों के निरतिचार पालने में मर्यादा । की बात आती है । कोई पूछे कि मर्यादा की बात ग्रंथों में कहां लिखी है तो पहिली प्रतिमा में जो बताया है, उसका ही अर्थ है कि मर्यादित भोजन हो । क्योंकि मर्यादा से बाहर के भोजन में अनेक जीव आ जाने से मांस खाने जैसी बात हो जाती है । अमर्यादित चीजों के खाने में मांस का अतिचार है । तो पहिली प्रतिमा में मर्यादित भोजन हो जाता है ꠰
देशचारित्र में द्वितीय प्रतिमा―दूसरी प्रतिमा में 5 अणुव्रतों का पालन हैं―तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अहिंसा अणुव्रत में त्रस हिंसा का सर्वथा त्याग है । सत्याणुव्रतों में असत्य का त्याग है, अचौर्याणुव्रत में चोरी का सर्वथा त्याग है, ब्रह्मचर्याणुव्रत में परिग्रह का परिमाण रखना बताया है । यों 5 अणुव्रत हो गए ।
दिअणुव्रत में दिशा का प्रमाण बताया है कि मैं अमुक दिशा में इतने मील से अधिक न जाऊंगा । इस दिअणुव्रत वाले को उतनी दूरी से अधिक की चीज मंगाना अथवा उससे बाहर भेजना इसमें निषेध हैं । देशव्रत में उसके भीतर ही मर्यादा कर ले कि इन 10 दिनों में अथवा इतने दिनों में मैं इस नगर से बाहर न जाऊंगा । प्रयोजन यह है कि बहुत दिनों का संकल्प विकल्प न करना पड़े, समुचित दायरे में आरंभ रहे । अनर्थ दंडविरतिव्रत में बिना प्रयोजन के काम न करना बताया है । जैसे पाप भरें उपदेश देना, हिंसक वस्तुओं का उपयोग करना, या बिना प्रयोजन पानी बहाना, आग जलाना, कुत्ता बिल्ली आदि हिंसक जीव बिना प्रयोजन पालना ये सब अनर्थदंड हैं । इन सबका त्याग देशव्रत में बताया हे । चार शिक्षाव्रतों में पहिली है सामायिक शिक्षाव्रत । समय पर सामायिक करना और दूसरा है―अष्टमी चौदस वगैरह का उपवास करना । उपवास तीन तरह के हैं―उत्तम उपवास, मध्यम उपवास और जघन्य उपवास । जो सप्तमी नवमी को तो एकाशन करे, दुबारा जल भी न ले और अष्टमी को उपवास करे । पूर्ण व्रत रखें वह उत्तम उपवास है और सप्तमी नवमी को तो उत्तमव्रत एकाशन करे, दूसरी बार कुछ न ले किंतु अष्टमी को सिर्फ एक बार जल ग्रहण कर ले वह मध्यम उपवास है और जो सप्तमी नवमी को उत्तमवत् एकाशन ही करे, इन तीन दिनों में किसी एक दिन किंतु अष्टमी के दिन नीरस या एक दो रसमात्र में एक बार आहार ग्रहण करे वह जघन्य उपवास है । तीसरा शिक्षाव्रत है भोगोपभोग परिमाण । भोगोपभोग की चीज का परिमाण कर लेना । जैसे कोई लोग हरी का नियम ले लेते कि हमने 30 हरी सिर्फ जिंदगीभर के लिये रखी है तो यह भोगोपभोग परिणाम में आता । तो भोग की चीज तो हरी भी है और जो सचित नहीं है ऐसा भी है, पर हरी पर इस लिये बल दिया कि उसमें एकेंद्रिय जीवों की हिंसा बचे । उपभोग का परिमाण करना ꠰ जैसे इतने पलंग रखना, इतने बिस्तर रखना, इतने वस्त्र रखना ।
रखना, यह सब भोगोपभोग प्रमाण में है । चौथा शिक्षा व्रत है अतिथिसम्विभाग व्रत । इसमें किसी त्यागी मुनि को पहिले आहार दे बाद में खुद आहार करना बताया है । यदि कोई त्यागी मुनि न मिले तो द्वार से पड़गाह कर या किसी त्यागी मुनि का पता लगाकर बाद में आहार करना बताया है ।
देशचारित्र में तृतीयादिक प्रतिमायें―तीसरी प्रतिमा में तीन बार सामायिक का नियम है । चौथी प्रतिमा में अष्टमी चतुर्दशी वगैरह के निरतिचार उपवास का नियम हैं । 5वीं प्रतिमा में बताया है कि सचित्त अचित्त चीजों को मुंह से नहीं खा सकता । उसका कारण है कि उसके करुणा का भाव जगा है । छठी प्रतिमा में, रात्रिभोजन का त्याग बताया है । रात्रिभोजन का त्याग तो पहिली प्रतिमा में भी है मगर छठी प्रतिमा वाला रात्रि को न खुद खायेगा, न दूसरों को खाने की अनुमति देगा और न रात्रि के खाने को अच्छा कहेगा । सब तरह से उसके रात्रिभोजन का त्याग हो जाता है । 7वीं प्रतिमा में ब्रह्मचर्य की प्रतिमा आ जाती हे । घर में रहते हुए भी पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहता है, अपनी स्त्री तक से भी सहवास नहीं कर सकता । आठवीं प्रतिमा में आरंभ का त्याग हो जाता है याने खेती, व्यापार, रोजगार इन सबका त्याग कर देता है । 8वीं प्रतिमा वाला पेन्शन तो ले सकता है, पर और व्यापार नहीं कर सकता क्योंकि पेन्शन तो पहिले की कमाई है और वह माहवार सरकार से ले रहा है, पर वह ब्याज वगैरह पर रुपया उठाने का काम नहीं कर सकता, नई चीज नहीं कमा सकता है । 8वीं प्रतिमा वाला खुद बनाकर खा सकता है । पैसा रखे हो पर पैसे से नई कमाई नहीं कर सकता । 9वीं प्रतिमा में पैसों का त्याग है । रह रहा है घर में पर धन धान्यादिक किसी भी चीज में हुकुम नहीं चला सकता कि यह मेरा हे । वह तो अब जो कपड़े पहिने है उतना ही परिग्रह है । लड़के लोग लिवा ले गये तो भोजन कर आये, पर किसी पर हुकुम नहीं चला सकते कि हम भूखे रह गए । 10वीं प्रतिमा में घर के कामों में अनुमोदना भी नहीं कर सकते । 9वीं प्रतिमा में तो सलाह दे सकते थे । 11वीं प्रतिमा में क्षुल्लक व्रत है, बाद में ऐलक व्रत है । तो जैसे-जैसे प्रत्याख्यानावरण कषायें मंद होती जाती हैं वैसे ही वैसे प्रतिमारूप व्रत बढ़ता जाता है । तो इसे कहते हैं देशचारित्र ।