वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 45
From जैनकोष
मुक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमंतरेणापि ।
न हि भवति जातु हिंसा प्राणत्यपरोपणादेव ।꠰45꠰।
योग्याचरणी संत पुरुषों के हिंसा का अभाव―निश्चय से योग्य आचरण करने वाले संतपुरुष के रागादिक भाव नहीं होते और कभी प्राण का व्यपरोपण हो जाये तो हिंसा नहीं लगती । जैसे कोई साधुपुरुष ईर्ष्यासमिति पूर्वक देखकर चल रहा हो और कोई छोटा जीव पैर के नीचे दबकर मर जाये तो भी हिंसा नहीं है क्योंकि उस साधु का हिंसा करने का परिणाम न था । वह तो ईर्यासमिति पूर्वक चल रहा था । आत्मा के परिणाम में जब कोई प्रमाद न हो तो वहाँ हिंसा नहीं लगती क्योंकि पर के प्राणों के अपरोपण मात्र से हिंसा नहीं लगती, किंतु दूसरे के प्राण चले जायें, इस प्रसंग में जिसने संकल्प किया तो संकल्प करने वाले को हिंसा लगी । किसी सज्जन पुरुष के द्वारा सावधानी पूर्वक गमन बन रहा हो तो उसमें भी शरीर के संबंध से पीड़ा होना जाना संभव हे लेकिन हिंसा का दोष नहीं लगता । अपने सारे शरीर में सूक्ष्म कीटाणु बहुत हैं तो अब बतलाओ कि जैसे बैठते हैं तो वजन पड़ता है तो उसमें जीवों का घात हुआ कि नहीं, जो उस शरीर में जीव थे । हमारे बैठने से हमारा शरीर ही तो दबा । तो वहाँ उस जीव को पीड़ा हुई कि नहीं? जैसे एक पैर रखा तो पैर में जो कीटाणु हैं उनको बाधा होती कि नहीं होती । यदि यों मानते जायें तो कोई मनुष्य कभी मोक्ष ही नहीं जा सकता । शरीर का वजन शरीर में पड़ा उसमें भी हिंसा है, फिर मुक्ति का क्या साधन है? उसकी हिंसा नहीं हुई, शरीर में किसी क्षण यदि उसके माफिक व्यवहार भी चल रहा है लेकिन ज्ञानी पुरुष का इसमें फंसाव नहीं होता, इसी कारण से हिंसा नहीं होती ।