वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 84
From जैनकोष
वहुसत्त्वघातिनोऽमीं जीवंत उपार्जयंति गुरुपापम् ।
इत्यनुकंपां कृत्वा न हिंसनीया: शरीरिणो हिंस्रा: ꠰꠰84।।
हिंसक जीवों पर कृपा के लिये हिंसकों के हिंसन का कुतर्क और उसका समाधान―धर्मपालन का आधार अहिंसा हे । जहाँ अहिंसा है वहाँ धर्म हे जहाँ हिंसा है वहाँ अधर्म है । इस प्रसंग में बताया जा रहा है कि कोई पुरुष यदि ऐसा बिचार करे कि यह हिंसक पुरुष बहुत से जीवों को मारता है । यह हिंसक प्राणी बड़ा पाप बांधता है, इस हिंसक को मार दें तो बेचारे के पाप बच जायेंगे । ऐसी दया करके हिंसक को मार देना चाहिये । ऐसा कुछ लोगों का ख्याल है, किंतु यह बात धर्म सम्मत नही है । तुम किस-किस प्राणी की व्यवस्था बनावोगे कि यह जीव हिंसक है, तुम कहां तक निर्णय बनावोगे कि यह जीव हिंसक है, यह बहुत से जीवों का घात करता है इसलिए इसे मार दो तो यह पाप से बच जायेगा । कहां तक ढूँढ़ोगे और फिर यह तो एक बाहरी बात है । अंतर की बात देखो जो जीव विषय कषायों में मग्न हो रहे हैं, अपने आप में रागद्वेषमोह में मुग्ध हो रहे हैं वे तो निरंतर हिंसा किये जा रहे हैं उनका इलाज तुम क्या करोगे? अपने आपकी बात सोचना चाहिये कि हमारे अहिंसा धर्म प्रकट हो । बाहरी व्यवस्था बनाकर कोई अहिंसक वातावरण बना ले अथवा हिंसा का परिहार कर दे यह बात न बन सकेगी । यह निर्णय लेना कि ऐसा परिणाम बनावें, जिसमें अपने आपके परमात्मस्वरूप का दर्शन होता रहे और इसी बुनियाद पर बाहर में दूसरे जीवों का सताना न बने । यह अहिंसा का वातावरण है । जिसका लक्ष्य विशुद्ध होगा वह पुरुष किसी भी अवस्था में हो अपने पद के अनुसार ऐसा ही व्यवहार रखेगा जिससे बाहर भी अहिंसा हो और अंतरंग में भी अहिंसा हो । अहिंसा के परमधर्म बताया है और बताया है कि जहाँ यह धर्म है, जहाँ यह अहिंसा है वहाँ नियम से विनय है? उसका भाव यह है कि अपना परिणाम विशुद्ध रखना, निर्मल सो अहिंसा है, यही धर्म है । जो अपना परिणाम निर्मल बनायेगा उसकी नियम से विजय होगी । तो अहिंसा से विजय ही है इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है ।