वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 143
From जैनकोष
जह फणिराओ रेहइ फणमणिमाणिक्क किरण विप्फुरिओ ꠰
तह विमलदंसणधरो जिणभत्तीपवयणे जीवो ꠰꠰143꠰꠰
(546) जिनभक्तिप्रसन्न जीव को शोभायमानता―जैसे हजार फणावों पर स्थित मणियों के बीच मणि की किरणों से शेष नाग शोभित होता है इसी तरह जिनभक्ति के श्रद्धान से युक्त निर्मल सम्यग्दर्शन के धारक जन शोभित होते हैं ꠰ बताते हैं कि जो कोई खास जाति का नाग होता है नागराज उसके फण में मणि होती है ꠰ गजमोती तो बहुत प्रसिद्ध हैं, हाथी के मस्तक में मोती होता है, यह बात तो बहुत प्रसिद्ध है और कोई असंभव नहीं है ꠰ सीप में भी तो मोती होते ꠰ जो जल में सीप होती, जिसे सूपी भी बोलते, जिससे आम वगैरह छीलते, वह सीप का ऊपर का खोल है उसमें किसी-किसी में कैसा योग है, कैसा नक्षत्र का पानी है, बूंद है ऊपर का कि वह मोती रूप परिणम जाता ꠰ ऐसे ही गजक मस्तक में भी मोती परिणम जाता, सब हाथियों के मस्तक में नहीं होता ꠰ तो किसी नागराज के फण में मणि होता होगा सब नागों के फण में नहीं होता ꠰ तो जैसे उस माणिक्य की प्रभा से वह नाग शोभित है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि और जिनभक्ति से युक्त वह जीव भी शोभित होता है ꠰ अभी देखो चाहे यथार्थ में धर्म हो या न हो रहा हो मगर शृंगार शोभा सब धर्म की क्रिया से ही होता है ꠰ कोई भी उत्सव मनावे उसमें कोई न कोई धर्म की क्रिया हर एक कोई रखता है ꠰ विवाह शादी में यदि न आवे, दर्शन न करे तो सब सूना सूनासा रहता ꠰ बाकी काम तो चाहे सब करे पर धर्म के नाम पर थोड़ा भी काम न करे तो उस समारोह की शोभा नहीं रहती ꠰ पहले समय में तो शादी विवाह के अवसर में भी पूरा एक दिन विधान बांचने का पक्का नियम रहता था ꠰ ज बारात आती थी तो दो तीन दिन रुकती थी ꠰ उसमें एक दिन का पूरा प्रोग्राम मंदिर के अंदर विधान बांचने का रहा करता था, आजकल तो वह सब रिवाज हट गया फिर भी कुछ न कुछ तो धार्मिक प्रसंग रहता ही है ꠰ धार्मिक प्रसंग के बिना किसी भी समारोह की शोभा नहीं होती ꠰ तो समझलो जिंदगी की बात ꠰ धर्म के संग बिना जीवन की भी शोभा नहीं होती ꠰ देखो ज कमठकृत उपसर्ग का निवारण किया तो धरणेंद्र पद्मावती ने नाग बनकर किया ꠰ हजारों फण कर लिये, आखिर ऋद्धि ही तो है, उनकी विक्रिया है और प्रत्येक फण पर मणि की शोभा बनी होगी, तो दृष्टांत दिया है कि जैसे वह शोभित होता ऐसे ही जिनभक्ति परायण ज्ञानी पुरुष भी शोभित होता है ꠰ बताया है समंतभद्राचार्य ने कि सम्यग्दर्शन से संपन्न पुरुष चांडाल के देह से उत्पन्न हो तो भी देव उसको देव कहते, अर्थात् उसको समर्थ ज्ञानी मानते और सम्यग्दर्शन होने के कारण आदरणीय मानते हैं ꠰ जैसे कि राख के बीच में यदि आग ढकी है तो वह राख से ढकी है मगर आग तो जाज्वल्यमान है ꠰ तो ऐसे ही कोई तिर्यंच हो या चांडाल हो और उस जीव को हो गया हो सम्यग्दर्शन तो वह इस तरह मानो जैसे राख से ढकी मुंदी आग ꠰ यहाँ यह ध्यान दिलाया है कि सम्यग्दर्शन से शोभा है, सम्यग्दर्शन से विजय है ꠰