वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 144
From जैनकोष
जह तारायणसहिय ससहरविंबं खमंडले विमले ꠰
भाविय तह वयविमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ꠰꠰144꠰꠰
(547) दर्शनविशुद्ध व्रतविमल जिनलिंग की शोभायमानता व कार्यकारिता―जैसे ताराओं के समूह से सहित चंद्रमा का बिंब शोभायमान होता है इस आकाशमंडल में ऐसे ही सर्व प्राणियों में जिनका व्रत निर्मल है, सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है, ऐसा यह जिनलिंग, यह मुनि पद सबमें सुशोभित होता है ꠰ जिनको स्याद्वाद पर श्रद्धा है उनको किसी भी बात में विवाद नहीं उपस्थित होता, क्योंकि वस्तु के स्वरूप की समझ स्याद्वाद से ही नती है जिसने जो कुछ जाना वह किसी नय की दृष्अि से ही तो जाना ꠰ अब यह समझ बनायें कि ये इस नय से कह रहे हैं, साथ ही यह भी समझ बना सकते हैं कि दूसरे नय को नहीं मान रहा इसलिए एकांती है, पर समझ में तो आया कि जो कुछ यह कह रहा है यों ठीक कह रहा है ꠰ अब एक बात सोचो, हम अन्य दर्शन की बात कह रहें कि लोगों में यह प्रचार बहुत अधिक है कि कोई एक ईश्वर होता है और संसार के जीव अजीव सब पदार्थों को रचता है ꠰ अच्छा तो उनका कहना भी किसी-किसी ढंग से चल-चलकर हुआ ही तो है ꠰ कैसे हुआ कि बात तो असल में यह है कि प्रत्येक जीव के अपने भावों के अनुसार कर्म बंध होता और उनके उदय से ये सब रचनायें चलती हैं ꠰ मनुष्य हैं, पशु हैं, पक्षी हैं ये सब रचनायें बनी और जो पत्थर है, ईंट है, काठ है, ये भी तो जीव के शरीर थे ꠰ जीव निकल गया शरीर रह गया ꠰ त्रस जीवों का शरीर तो बिगड़ जाता है जीव के निकलने के बाद, पर ये पृथ्वी, वनस्पति इनका शरीर बिगड़ता नहीं है जीव निकलने के बाद, और देखो कैसा बढ़िया ये फर्श बना है तो यह जीव का ही तो शरीर है पत्थर ꠰ यह एकेंद्रिय जीव था ꠰ तो यह भी रचना उस जीव की अपने कर्म के अनुसार हुई थी ꠰ तो जो भी रचनायें हो रही है वे सब अलग-अलग एक-एक जीव के विचार से, भावना से चल रही हैं, इसलिए यह तो मान लिया जायेगा कि प्रत्येक जीव अपनी-अपनी सृष्टि कर रहे हैं ꠰ जीवकाय को छोड़कर यह है क्या ? तो सब जीवों ने अपनी-अपनी सृष्टि रची ꠰ इतनी बात तो सही है ꠰ अब आगे और बढ़े, सब जीवों ने सृष्टि की, पर वे सब जीव स्वरूप से एक समान हैं, यह भी ज्ञान जगा ꠰ जब स्वरूप से एक समान हैं तो यह एक भ्रम न गया कि जीव एक ही है ꠰ वहां बोलने का रिवाज भी है ऐसा ꠰ जैसे गेहूं को कोई ढेर पड़ा है तो सारे दाने एक तरह के हैं सो उनको लोग यह कहते हि यह गेहूं किस भाव में दोगे ꠰ रिवाज भी है ऐसा कहने का ꠰ तो सब जीव जब एक समान है तो उनको एक वचन में बोला जायेगा ꠰ और तीसरी बात क्या कि जीव सब ईश्वर के रूप हैं ꠰ सभी ईश्वर स्वरूप के संपन्न हैं ꠰ तो धीरे-धीरे जैसे कहते ना―अंगुली पकड़कर पौंचा पकड़ना, तो ऐसे ही पहले यह जाना कि ये सब जीव सृष्टि कर रहे हैं, फिर यह जाना कि सब जीव एक समान हैं, सो एक ही है ꠰ यों तनिक अंतर आया फिर यह जाना कि सब जीव ईश्वर स्वरूप ही हैं ꠰ तो यों बात फैल गई कि कोई एक ईश्वर इस सारे जगत की रचना करता है ꠰ अब बतलाओ यह जो कहना है यह तो बहुत उल्टा कहना है मगर इन उल्टे भी तथ्यों को नयों से और थोड़े विचारों से भी ठीक बना सकते हैं तब फिर कौनसा विषय ऐसा है कि जिसको हम ठीक न बना सके ? अंतर इतना पड़ेगा कि दूसरे प्रतिपक्ष नय को न मानने से एकांती बन गया, मगर कुछ जाना सो कुछ अंश थे तब ही तो जाना ꠰ और जो स्याद्वाद का आलंबन ले उसने सब बात को पूरी तरह से जान लिया ꠰ तो यों दर्शनविशुद्ध व व्रत से निर्मल इस जिनलिंग को बताया है आगम में कि ये हैं साधु परमेष्ठी, सो हे मुने शुद्ध सम्यक्त्व से सहित होकर आत्मस्वभाव की भावना करके अपने आपको आचरण में लावो क्योंकि जीव का शरण अपने आपका ज्ञान और अपने आपको अपने स्वभाव में स्थिर करना यह जो आत्मपुरुषार्थ है यह ही इस जीव को शरण है ꠰ इस कारण पूर्ण शक्ति के साथ आत्मा का दर्शन, आत्मा का ज्ञान और आत्मा का आचरण पालन करें ꠰