वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 31
From जैनकोष
जो सुत्तो ववहारे सो जेई जग्गए सकज्जम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ꠰꠰31।।
व्यवहारसुप्त योगी का आत्मजागरण व व्यवहारजागृत योगी का आत्मसुप्तपना―जो मुनि व्यवहार में सोया हुआ है अर्थात् लौकिक कार्यों से उदासीन रहता है वह अपने काम में जगता है अर्थात् कर्मबंध में सावधान रहता है, जो मुनि व्यवहारचारित्र में जगता है मायने लोक व्यवहार के कार्यों में सावधान रहता है वह अपने काम में सोता है, मोक्षमार्ग उसका नहीं चलता है ꠰ जैसे कहते हैं कि एक म्यान में दो तलवार नहीं रहते, ऐसे ही एक उपयोग में दो बातें न रह सकेगी कि लौकिक कार्यों में उमंग भी रहे और मोक्षमार्ग भी बना रहे, जिसको लौकिक बातों की उमंग है उसको मोक्षमार्ग नहीं, जिनको मोक्षमार्ग है उनको लौकिक कार्यों में उमंग नहीं । मुनि का कार्य ज्ञान ध्यान और तपश्चरण है । ज्ञान मायने ज्ञाता मात्र रहना, ध्यान मायने आत्मतत्त्व का एकाग्र चिंतन होना और तपश्चरण मायने अनशन आदिक अनेक प्रकार के नियंत्रण, कायक्लेश । तो उत्कृष्ट काम तो ज्ञान है, ज्ञातामात्र रहे, जाननहार रहे, रागद्वेष से रहित एक जानन की स्थिति, पर यह न बने तो ध्यान में रहे, भावना में रहे और यदि ध्यान भी न बने तो तपश्चरण करे । सबका प्रयोजन है ऐसी स्थिति पाना जहाँ रागद्वेष के विकल्प न जगें, केवल जाननहार हों । सो जो योगी व्यवहार में नहीं गिरा वह अपने कार्य में, आत्मध्यान में, आत्मानुभव में आत्माभिमुख रहने में सावधान रहता है और जो योगी व्यवहार में जाग रहा, सावधान हो रहा, लोकव्यवहार में उमंग रख रहा वह अपने कार्य में सोया हुआ है । अब इन दोनों में हेय उपादेय का निर्णय बनावें । लोकव्यवहार में पड़ने से आत्मा का क्या लाभ ? उस समय भी यह विकल्प करके क्षोभ कर रहा और आगे भी क्षोभ से कर्मबंध होगा तो आगे भी क्षोभ मिलेगा, और एक आत्मदृष्टि रखने से तत्काल शांति है और शांति का सिलसिला बन जाता है । इससे योगी पुरुष सर्वपरिग्रहों के त्यागी साधुजन अपने कार्य की ही धुन रखते हैं और व्यवहार से उपेक्षा करते हैं ।