वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 152
From जैनकोष
काम दुहिं कप्पतरुं चिंतारयणं रसायणं परमं
लद्धों भुंजइ सोक्खं जं इच्छियं जाणं तह सम्मं।।152।।
सम्यक्त्व की कामधेनुवत अभीष्ट परमानंद दायकता―सम्यग्दर्शन से युक्त पुरुष सत्य शांति को प्राप्त करते हैं। शांति तो अपना स्वरूप है और उस स्वरूप को जो ध्यान में लाता है कि मैं निराकुल क्षोभरहित केवल ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व हूँ ऐसा जो अपने पवित्र स्वरूप को ध्यान में लाता है वह ही पुरुष तो उस केवल आत्मा से उत्पन्न हुये सुख को पाता है और जो लोग अपने अंतः स्वरूप में उपयोग नहीं जमा पाते और बाह्य पदार्थों में इन विषयभूत पदार्थों में जो आशक्त होता है इनमें जो लिप्त होता है वह पुरुष आत्मा का ध्यान कभी भी न बना पायगा। जो पुरुष सम्यक्त्व युक्त होता है और स्वच्छ ज्ञान स्वरूप का अनुभव करता है वह पुरुष उत्तम सुख शांति को प्राप्त करता है। जैसे कामधेनु अभीष्ट पदार्थ को प्रदान करती है इसी प्रकार सम्यक्त्व सहित पुरुष अभीष्ट कल्पित आनंद को प्राप्त करता है कामधेनु की इस तरह की प्रसिद्धि है कि कोई एक इस प्रकार की गाय है कि जिसका दर्शन या जिसकी सेवा करो तो जिस चीज की चाह करो उस चीज को दे-दे। वस्तु सिद्धांत से ऐसा हो नहीं सकता पर कितनी ही बातें रूढि के शब्दों में बोलकर दृष्टा में आया करती है वस्तुतः तो अपने ही अनुभव से अपनी सद्गति का शांति का अनुभव बनता है। यहाँ दृष्टांत में कुछ लौकिक बातें रखकर कह रहे हैं कि कामधेनु इस तरह के रसायन को प्रदान करती हैं ऐसे ही यह सम्यक्त्व उस मोक्षसुख के बीजरूपीध्यान को उत्पन्न कराता है। सम्यक्त्व की कल्पवक्षारिवत् अभीष्टफलदायकता―जैसे कल्पवृक्ष अभीष्ट फल को देता है ऐसे ही सम्यक्त्व अभीष्ट अनंत आल्हाद आनंद को प्रदान करता है कल्पवृक्ष स्वयं दूसरों को कुछ दे ऐसा नहीं है पर जिस के पुण्य का उदय है सो वह जो चाहता है वह उस जगह प्राप्त हो जाता है तो ऐसे स्थान को कल्पवृक्ष कहते हैं। तो कल्पवृक्ष ने अभीष्ट तत्त्व प्रदान किया इसमें महिमा कल्पवृक्ष की नहीं है किंतु अपने निर्मल भाव की है तो दूसरे पदार्थ सुख स्थान बन जाते हैं ओर अपने भाव उत्तम नहीं हैं तो दूसरे पदार्थ शांति के स्थान नहीं बन पाते। तो यह सम्यक्त्व कल्पवृक्ष की तरह अभीष्ट फल देने वाला है। चिंतामणि रत्न अभीष्ट तत्त्व को प्रदान करता है। वास्तव में चिंतामणि है क्या? कोई पत्थर होता है या क्या हुआ करता है। वह चिंतामणि रत्न मिल तो जाय, चिंतन में आये सो सब की सिद्धि हो जाय, ऐसा चिंतामणि रत्न कोई पत्थर नहीं है। कोई हीरा जवाहरात नहीं है किंतु यह चैतन्य स्वरूप है और इसकी दृष्टि जिसे प्राप्त है उसको सब कुछ अभीष्ट मिलता है तो निज चैतन्य स्वरूप के अनुभव में कोई वा´छा ही नहीं रहती। तो जहाँ कोई इच्छा नहीं वहाँ सब कुछ की प्राप्ति होना कहलाता है। इच्छा अप्राप्ति है। इच्छा का न रहना प्राप्ति है, क्योंकि किसी भी शांति के अनुभव के समय में इच्छा न रहे इस कारण सुख शांति मिले यह तत्त्व बसा हुआ है। भोग भोगने से शांति नहीं मिलती किंतु भोग भोगने की इच्छा न रहे उससे शांति मिलती है। तो चिंतन किसका हो? इच्छा रहित चैतन्य स्वरूप का तो चैतन्य स्वरूप का चिंतन मनन यह ही वास्तविक चिंतामणि है। यह चिंतामणि जिनको प्राप्त हुआ है उनको सर्व अभीष्ट की सिद्धि है। इच्छा के अभाव का फल सौख्यलाभ―सौख्यसिद्धि भोगों से नहीं होती परिग्रह के संचय से नहीं। मकान कोठी बना लेने से नहीं, किंतु इच्छा न रहे उससे सुख होता है। यह रीति सभी प्राणियों की है। घटना समीक्षा करके निरख लो, धार्मिक कार्य करता हुआ या घर का कार्य करता हुआ कार्य करने के बाद जो शांति का अनुभव बनता है सो कार्य करने से बना या कार्य हो चूकने पर इच्छा न रहे उससे बना। दो बातें सामने हैं। मोही जीव हैं, इस कारण असली बात पर तो दृष्टि जाती नहीं कि मेरे को इस समय जो शांति मिल रही है वह इच्छा के न रहने से मिल रही, यह तो समझते नहीं और सोचते यों हैं कि यह कार्य किया इससे शांति मिली। कभी किसी की इच्छा हो कि मैं अमुक तीर्थ को जाऊं और तीर्थ पर जब तक न पहुँचे तब तक उसके आकुलता रहती है और तीर्थ स्थान पर पहुँच गए तो वहाँ शांति का अनुभव होता है। वह शांति तीर्थ पर पहुँचने से नहीं मिली, किंतु तीर्थ पर पहुँचने पर उस की इच्छा न रही इससे शांति मिली। अच्छा लौकिक कामों में देख लो इच्छा हुई कि ऐसी कोई कुटी बनवा लूँ महल बनवा लूँ, तो जब तक वह नहीं बन पाता तब तक उसे बड़ा कष्ट रहता है। बन चुकने के बाद एक संतोष की श्वांस लेकर आराम से बैठता है सो वह आराम वह शांति मकान बनने से नहीं हुई किंतु ये अनुभव करके कि अब मेरे करने को काम नहीं रहा उससे शांति प्राप्त हुई है। किसी मित्र का पत्र आ जाय कि मैं 1॰ बजे की ट्रेन से आप के यहाँ के स्टेशन से गुजर रहा हूँ, मेरे से स्टेशन पर मिल लेना। अब मित्र से अनुराग तो था ही सो पत्र के मिलते ही चित्त में काम की बात आ गई कि मित्र से मिलना है, अब आकुलता हो गई। वह सारे काम निपटाने में जल्दी मचा रहा। स्टेशन पर पहुँच गया, गाड़ी 15 मिनट लेट से आने की बात सुनी तो वहाँ बड़ा खेद माना। रोज जो नहीं खेद मानता था। गाड़ी आयी तो झट गाड़ी में इधर उधर देखना भागना दौड़ना शुरू कर दिया और जिस डिब्बे में वह मित्र दिखा उसमें घुस कर उससे गले से गले मिलकर बड़ा प्रसन्न हुआ। इसके बाद दो चार मिनट में ही वह इधर उधर की खिड़की से झाँकने लगता कि कहीं गार्ड सीटी तो नहीं दे रहा। तो बताओ उसे मित्र के मिलने से सुख मिला क्या? नहीं, यदि मित्र से मिलने का सुख होता तो फिर वह उस मित्र से मिलता ही रहे, खिड़की से बाहर क्यों झाँकता? तो वास्तविकता वहाँ यह है कि उसे मित्र से मिलने का सुख नहीं हुआ किंतु मित्र से मिलने का काम अब नहीं रहा इसका सुख हुआ। तो ज्ञानी जीव वस्तुस्वरूप को समझकर पहले से ही श्रद्धा किए हुए हैं कि मेरे को बाहर में करने का कोई काम ही नहीं है, क्योंकि यह मैं आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ कर भी नहीं सकता। बाहर में अब कुछ करने को रहा ही नहीं है। है ही नहीं। सो वह अपने में कृतार्थता का अनुभव करता हुआ आराम से बैठे, उसको शांति है, तो शांति पर प्रसंग से नहीं मिलती, किंतु अपने अविकार सहज ज्ञानस्वरूप परमात्मतत्त्व की आराधना से प्राप्त होती है। जहाँ अब तक दृष्टि करते आये वहाँ अब कर दी जाय पीठ और जहाँ अब तक पीठ करते आये वहाँ अब कर दी जाय दृष्टि तो कल्याण बिल्कुल सुगम है। भव-भव में बाह्य पदार्थ की ओर दृष्टि करते आये और यह मोही अपने में थकान का अनुभव नहीं करता। सार नहीं है बाहर के मर्म में। तो जो अपने अध्यात्मस्वरूप का मनन करता है उस ज्ञानी जीव को आत्मीय आनंद मिलता है और यही आनंद कर्मों के क्षय का कारण है। इस प्रकार जो अपने स्वरूप में रमता है वह योगी शिवगति पथ का नायक होता है।