वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 153
From जैनकोष
सम्मत्तणावेरग्ग तवो भावं णिरीहवित्तिचरितस्स।
गुणसीलसहावं उप्पज्जइ रयणसारमिणं।।153।।
रयणसार से सम्यक्त्व व ज्ञान की उपलब्धि―यह रत्नसार ग्रंथ क्या-क्या उपलब्धि देता है उसका वर्णन इस गाथा में है। यह रयणसार सम्यग्ज्ञान, वैराग्य, तप, भाव, निरीह वृत्ति, चारित्र गुण, शील और स्वभाव को उत्पन्न करता है। रयणसार ग्रंथ का भी नाम है और रयणसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को कहते हैं। तो यह रत्नमय इन सब शुद्ध वृत्तियों को उत्पन्न करता है और इस रयणसार ग्रंथ के पढ़ने से जो उमंग और ज्ञान प्रकाश मिलता है वह भी इन सब बातों को उत्पन्न करता है। जो रत्नत्रय इन सब को उत्पन्न करता है, यह तो सीधा कथन है और हय रयणसार ग्रंथ इन सब गुणों को उत्पन्न करता है, यह उपचार कथन है जिसका अर्थ यह समझना कि रयणसार के अध्ययन मनन से उन शब्दों का भाव ज्ञात होता और उस भाव में उपयोग होने पर गुण प्रकट हुए सो दोनों ही तरह के अर्थ लगाना। यह रयणसार, यह रत्नत्रयस्वरूप धर्म सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है मायने सम्यक्त्व तो हुआ ही तब तो रत्नत्रय बना मगर सम्यक्त्व होने से रत्नत्रय की धारा चलती रहती है, वह मिटती नहीं है, प्रकट होती रहती है, यह भाव समझना और यह भाव सब में समझना। सम्यक्त्व को मिटने न दें, सम्यक्त्व में प्रगति बनायें, रत्नत्रय की वृद्धि बनायें, यह भाव लेना और रयणसार ग्रंथ के पक्ष में यह भाव लेना कि इस ग्रंथ को पढ़कर इसका मनन करके इस जीव में ऐसे गुण और भाव उत्पन्न होते हैं। यह रयणसार ज्ञान को उत्पन्न करता है, सब तरह की बात इससे विदित होती गई है। सम्यक्त्व के न होने पर जीव की क्या स्थिति होती है? शुभ और अशुभ भाव में जीव पर क्या प्रभाव होता है। भाव के बिना क्रियावों का क्या मूल्य है? परमार्थ भाव ही इसका सर्वस्व है आदिक कथनों का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ और साथ ही श्रावकों के आचरण का दान और पूजा करते रहने का गृहस्थों पर कितना प्रभाव होता है यह भी वर्णन विस्तार से हुआ और इस वर्णन से ज्ञान ही तो मिला। यह रयणसार ग्रंथ सही ज्ञान को उत्पन्न करता है। रयणसार से वैराग्य व तप व भाव की उपलब्धि―यह रयणसार वैराग्य को उत्पन्न करता है। जहाँ ऐसा निरूपण चला कि इंद्रिय विषय और बाह्य परिग्रह परिकर में इनके संपर्क में इस जीव का क्या-क्या अहित है और उससे इस परमात्मस्वरूप जीव का कैसा विकास रुका है। थोथी बात की अटक में आत्मा के स्वभाव का विकास रुका है आदिक वर्णन से यह भगवान आत्मा वैराग्य की शिक्षा ग्रहण करता है। तो यह रयणसार वैराग्य को प्रदान करता है। वैराग्य को प्रदान करने वाला तो ज्ञान है और वह ज्ञान मिला इस ग्रंथ के अध्ययन मनन करने पर, इसलिए कार्य में कारण का उपचार करके बोला जा रहा है। वस्तुतः वैराग्य का जनक क्या है? ज्ञान और वह ज्ञान तो साक्षात् ही जनक है। जो ज्ञान सिर्फ ज्ञान रूप से चल रहा है आत्मा में पूर्वबद्ध कर्म के उदय से जो प्रतिफलन हुआ है उसको भी नहीं अंगीकार कर रहा और उसको उपयोग में भी नहीं ले रहा, ऐसा ज्ञान तो साक्षात् वैराग्य का जनक है। तो वैराग्य का सीधा अर्थ यह है कि आत्मा में उत्पन्न होने वाले विकार से राग न रहना। जिसके उपयोग में राग नहीं है उसके बाह्य पदार्थों में मोह हो ही नहीं सकता और जिसको विकार में राग है तो वह किसी बाहरी बातों को सुनकर बाह्य पदार्थों का त्याग कर दे फिर भी वह त्यागी नहीं है, क्योंकि वह अपने में उठने वाले विकारों पर भावों का त्याग नहीं कर पाया, तो साक्षात् वैराग्य है यही कि अपने आपके परभावों में राग न आये। सो इसका उत्पादक है यह रयणसार। मायने इस ग्रंथ के अध्ययन मनन पर राग जगता नहीं है। यह रयणसार तप का उत्पादक है। इससे शिक्षायें मिलीं, तपश्चरण की विधि ज्ञात हुई। तपश्चरण के लिए उमंग प्राप्त हुई और तपश्चरण में लगा और वहाँ जो आत्मीय आनंद का अनुभव किया उससे इसको तपश्चरण भी सहज बन गया। ऐसे तपश्चरण का उत्पादक यह रयणसार है और रत्नत्रय भाव का उत्साह है। यह रयणसार भाव का उत्पादक है। भावों में जो औदयिक भाव हैं वे तो सर्व संसारी जीवों में चल रहे हैं। उसमें कोई धर्म की महिमा नहीं है। बल्कि वे सब प्रायः अधर्म हैं, पररूप हैं। किंतु जो औपशमिक क्षायिक भाव हैं और सही क्षायोपशमिक हैं जो यह परिणाम ज्ञान से उत्पन्न होता है और शुद्ध भावना के द्वारा उत्पन्न होता है। तो ऐसे ही समीचीन भावों का उत्पादक है यह रयणसार। रयणसार से निरीहवृत्ति की उपलब्धि―यह रयणसार निरीह वृत्ति का उत्पादक है। वृत्ति मायने उद्यम प्रवर्तन और निरीह का अर्थ है इच्छा रहित जो व्यवहार धर्म के भी प्रवर्तन हैं उनमें भी इस जीव का राग नहीं है और बाहरी व्रत तप आदिक क्रियावों को आवश्यक कर्तव्यों को, व्रत समितिरूप प्रवर्तन को यह राग से नहीं करता, किंतु राग के उच्छेद करने के लिए यह आवश्यक समय जानकर व्रत, तप, समिति आदिक क्रियावों को करता है। राग उसे कहते हैं कि जहाँ यह भाव बस जाय कि ऐसी बात मेरे को जन्म जन्म में अनंत काल तक सदैव मिलती रहे। निरीहवृत्ति, इच्छारहित प्रवृत्ति से जिस कार्य में प्रवर्त रहे हैं, उस कार्य के प्रति यह भावना वासना न हो कि ऐसा मुझको सदा मिले, खूब मिले, तो उसे बोलते हैं निरीहवृत्ति। जैसे कोई तो बड़ी उमंग और शौक से खाते हैं और कोई यह सोचकर कि खाये बिना न चलेगा। खालें, तो जैसे उनमें अंतर है वही बात निरीह वृत्ति और मोह वृत्ति की है जैसे जब कोई इष्ट गुजर जाता है तो उस दिन भी खाना पड़ता है। खाये बिना किसी का नहीं चलता और उन्हीं दिनों यदि कोई कहे कि हम विवाह का काम कर लें तो वह विवाह का काम उन दिनों बंद रखना पड़ता। विशेष गर्मी आये तो खाना पड़ता है। वहाँ समझा जा सकता है कि वह भावों से खा नहीं रहा, किंतु खाये बिना चल नहीं सकता। तो सम्यग्दृष्टि के सबमें ही यह भी भाव, वह इन कार्यों को चाहता नहीं है, पर कार्य किये बिना सरता नहीं है। दूकान भी करता, अन्य बातें भी करता मगर वहाँ भी वह निरीह वृत्ति है और मुनिजन तो प्रकट निरीह हैं और यदि किसी के मुनि भेष होकर भी इच्छा रहते हुए भी वह मुनि ही नहीं है तो निरीह वृत्ति का होना यह ज्ञान से संभव है। सो यहाँ रयणसार ग्रंथ निरीह वृत्ति को उत्पन्न करता है। यह कहा जा रहा है, जिसका भाव है कि इस ग्रंथ को पढ़कर मनन कर यह ज्ञानी पुरुष निरीह वृत्ति में हो जाता है। रयणसार से चारित्र व गुण शील स्वभाव की उपलब्धि―यह रयणसार चारित्र को उत्पन्न करता है, चारित्र है वीतराग भाव। जहाँ रागद्वेष कलंक रंच नहीं रहता उसे कहते हैं चारित्र। सो रयणसार ने सब मार्ग बताया, उसके उपाय की उमंग भी दिलाया। अब यह उस मार्ग पर चला और इसने आत्मस्वरूप में रमण करने की विशेष प्रगति पायी। तो यह चारित्र मिला इस रयणसार ग्रंथ के मनन के प्रताप से अथवा रत्नत्रय के प्रताप से वह चारित्र प्राप्त हुआ। यह रयणसार गुण का उत्पादक है मूलगुण और उत्तर गुण, इनको दिलाने तक इनको पालने की प्रेरणा करें, इनका निस्तारण करें तो यह सब रयणसार में किए गए उपदेश के हृदय में उतारने का ही तो परिणाम है और रत्नत्रय भाव के लिए जो उद्यम हो रहा उस उद्यम से भी गुण की प्राप्ति होती है। यह रयणसार ग्रंथ शीलस्वभाव को उत्पन्न करता है। आत्मा का शील है मात्र ज्ञाता दृष्टा रहना। जो आत्मा का स्वभाव है आत्मा स्वयं सत् है अपने सत्त्व के कारण यहाँ क्या बात जगती है कैसी प्रवृत्ति होती है, वह है आत्मा का शील स्वभाव, अर्थात् मात्र ज्ञानस्वरूप परिणमन होने को कहते हैं शील और स्वभाव तो इन सब बातों को तो यह रयणसार ग्रंथ उत्पन्न करता है।