वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 13
From जैनकोष
विसएमु मोहिदाणं कहियं मग्गं पि इट᳭ठदरिसीणं ।
उम्मग्गं दरिसीणं णाणं पि णिरत्थयं तेसिं ।।13।।
(25) यथार्थदर्शियों की विषयमोहित होने पर भी मार्गलक्ष्यता―जो पुरुष ज्ञानी हैं, सही मार्ग दिखाने वाले हैं, पर विषयों में विमुग्ध हैं तो भी उनको मार्ग की प्राप्ति हो सकती है, पर जो उन्मार्ग के दिखाने वाले हैं उनका ज्ञान पाना निरर्थक है । उनको लाभ नहीं हो सकता । ज्ञान पाकर और ज्ञान से सही प्ररूपणा पाकर अपने लिए सही निर्णय करके भी यदि उसके विषयों में वृत्ति बनती है तो भी वह पार हो जायेगा । यह अल्प दोष आगे दूर हो जायेगा, किंतु जो उल्टा ही मार्ग बताये और उल्टा ही हठ करे तो उसको मार्ग का लाभ नहीं होने का, क्योंकि उसने एक ज्ञान की दिशा ही बदल दी । इसमें यह बतलाया था कि ज्ञान और शील में विरोध नहीं है, अर्थात् जो शील है सो ही ज्ञान है, फिर भी ज्ञान हो और विषयकषाय होकर ज्ञान बिगड़ जाये तब शील नहीं है । ज्ञान पाकर चारित्रमोह के उदय से विषय नहीं छूटे और इससे विषयों में विमुग्ध रहे और मार्ग का प्ररूपण सही करे, विषयों के त्याग रूप ही करे तो भी उसे मार्ग की प्राप्ति हो जायेगी, किंतु दोष भी करे और दोषों को गुणरूप सिद्ध करे तो उसको मार्ग का लाभ नहीं मिल सकता । दोष करता हुआ दोष को जो दोष जानता है वह तो सुलझ जायेगा और जो दोष करता हुआ दोष को गुण बताता है और ऐसा ही प्ररूपण करता है, ऐसे पुरुष को सन्मार्ग नहीं प्राप्त होता ।
(26) उन्मार्गप्ररूपण करने वाले के ज्ञान की भी निरर्थकता―चार प्रकार के पुरुष होते हैं, एक तो ज्ञान सही है और विषयों से भी विरक्त है । और एक वह, जिसका ज्ञान सही है, पर कर्मविपाकवश उस मार्ग पर चल नहीं पाता व विषयों में अनुरागी हो जाता है । और एक वह पुरुष है कि विषयों में अनुराग भी है और उन विषयों का समर्थन भी करता है, दोष को दोष रूप नहीं कह सकता और एक चौथा पुरुष ऐसा लीजिए कि जिसके ज्ञान भी बहुत है, आचरण भी करता, विषयों को भी छोड़ रहा और फिर खोटे मार्ग का प्ररूपण करता है तो इसमें दृष्टि से घटित करना चाहिए कि जो ज्ञानी है और विरक्त है, यथार्थ प्ररूपण करता है, वह तो उत्तम है और जो ज्ञानी है व यथार्थ प्ररूपण करता है, पर विषयों को छोड़ नहीं पाता है, वह उसके बाद का है । जो ज्ञानी है व विषयों का अनुराग नहीं करता, विषयों को छोड़ता है, मगर खोटा प्ररूपण करता है वह जघन्य है और फिर प्ररूपण भी खोटे करे, विषयों में भी आसक्त हो तो वह ऐसा अत्यंत निकृष्ट जीव है । पर यहाँ केवल आत्मा के शील स्वभाव पर दृष्टि देकर निरखें तो चाहे कोई भी जीव हो, कैसा भी जीव हो, ज्ञान का काम तो मात्र जानन है और जितना ऐब लगा है वह ज्ञान के दोष की बात नहीं है, किंतु उपाधि और कर्मविपाक के संसर्ग की बात है । सो यहाँ मुख्यतया यह कहा कि खोटे मार्ग के प्ररूपण करने वाले का सब कुछ ज्ञान भी निरर्थक है ।