वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 14
From जैनकोष
कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाइं सत्थाईं ।
सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होंति ।।14।।
(27) बहुशास्त्रज्ञाता होने पर भी अधर्मप्रशंसक शीलव्रतज्ञानरहित भिक्षुओं की अनाराधकता― जो पुरुष बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं और कुमत कुशास्त्र की प्रशंसा करने वाले हैं व शील और व्रत एवं ज्ञान इनसे रहित हैं वे आत्मस्वभाव के आराधक नहीं हैं । आत्मा का शील है ज्ञानस्वरूप । जो आत्मा का स्वरूप है, सो ही आत्मा का शील है । वे पुरुष शील से रहित हैं जो कुमति कुशास्त्र की प्रशंसा करते हैं, कैसा विचित्र अभिप्राय होता है कि जैन तत्वों का ज्ञान भी बहुत है फिर भी खोटे शास्त्रों की प्रशंसा करने वाले होते हैं, उनको जैनसिद्धांत की बात भीतरी नहीं आयी और अन्य लोगों की बात आसान है, इस कारण उनकी प्रशंसा करते हैं वे पुरुष शील, व्रत, ज्ञान इन तीनों से रहित हैं, उन्हें, सच्चा ज्ञान होता तो अध्यात्मदृष्टि की ही उनको धुन होती, सो जो लोग बहुत शास्त्रों को जानते हैं और कुमत कुशास्त्र की प्रशंसा करते हैं तो यों जानना कि कुमत और कुशास्त्र से ही उनको राग है, उनको उन्हीं कुशास्त्रों से प्रीति है तब उनकी प्रशंसा करते हैं तो वे सब मिथ्यात्व के चिन्ह है और जहाँ मिथ्यात्वभाव है वहाँ ज्ञान भी मिथ्या है और जहाँ ज्ञान मिथ्या है वहाँ विषयकषाय से रहित होना नहीं बन सकता । विषयकषाय से रहित हों, विकार न आयें, केवल ज्ञाताद्रष्टा रहे तो यह ही है आत्मा के शील का पालन । सो जिनके मिथ्याबुद्धि लगी हैं वे आत्मा के शील का पालन नहीं कर सकते और जिनके मिथ्यात्व लगा है उनके व्रत भी नहीं पलता, ऐसा कोई व्रत आचरण यदि करे तो वह मिथ्याचारित्ररूप चलता है, सो जो पुरुष कुमत कुशास्त्र की प्रशंसा करने वाले हैं वे रत्नत्रय के आराधक नहीं हो सकते, जिन्होंने आत्मा का अनुभव पाया वे आत्मा का अनुभव जिन कथनों में मिले उन कथनों से ही प्राप्त करेंगे, पर अन्य शास्त्र तो राग बढ़ाने वाले हैं, आत्मानुभव की ओर ले जायें, ऐसी कथनी कुशास्त्र में नहीं है । तो जो कुशास्त्र की प्रशंसा करते हैं उनमें रत्नत्रय नहीं है, यह बात नि:संदेह है ।