वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 3
From जैनकोष
दुक्खेणोयदि णाणं णाणं णाऊण भावणा दुक्खं ।
भावियमई व जीवो विसयेसु विरज्जए दुक्खं ।।3।।
(5) ज्ञान की दुर्लभता व ज्ञान से भी अधिक ज्ञानभावना की दुर्लभता―प्रथम बात तो यह है कि ज्ञान का पाना ही बड़ा कठिन है । संसार में कितने जीव हैं ? मनुष्यों की संख्या तो सभी गति के जीवों से थोड़ी है । कुछ मनुष्यों को छोड़कर, कुछ ऊँचे देवों को छोड़कर प्राय: सर्वत्र अज्ञानदशा छायी है, भले ही कुछ सम्यग्दृष्टि सभी गतियों में होते हैं, मगर ज्ञान की विशेषता सब जगह नहीं मिलती । देखो यह कभी एकेंद्रिय था तो उसका कितनासा ज्ञान? दोइंद्रिय हुआ, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पांचइंद्रिय वाला हुआ, असंज्ञी रहा तो वहाँ कितना सा ज्ञान? मनुष्यों में भी कौन कितना ज्ञान रखता है, ज्ञान की प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ है । इसके विषम में तो कहा है―‘धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान ।’ धन हो, स्वर्ण हो, चांदी हो, वैभव हो, राजपाट हो, कुछ भी अन्य बात हो वह सब सुलभ है । ‘दुर्लभ है संसार में एक यथारथ ज्ञान ।’ संसार में यदि कोई दुर्लभ है तो यथार्थ ज्ञान दुर्लभ है । ज्ञानों में भी दुर्लभ ज्ञान यथार्थ ज्ञान है । जैसा जो पदार्थ है वैसा ही वह ज्ञान में आये तो वह अशांत नहीं रहता । सीधा सच्चा मार्ग मिलता है, इस कारण यथार्थ ज्ञान का पाना बहुत दुर्लभ है । ज्ञान भी प्राप्त कर लिया तो उसकी भावना करना बड़ा कठिन है । जैसे आत्मा के विषय में कुछ ज्ञान बनाया यह मैं अमूर्त हूँ अपने स्वरूपास्तित्व मात्र हूँ इसका अन्य पदार्थों से कुछ भी संबंध नहीं, इसका सर्वस्व यह ही है, ज्ञान कर लिया, पर ऐसी भावना बनी रहे, ऐसा ख्याल, ऐसी दृष्टि बनी रहे, उपयोग इस सहज यथार्थ स्वरूप की ओर रहे, यह बात बड़ी कठिन है । जब तक ज्ञानभावना नहीं बनती है तब तक पाये हुए ज्ञान का विश्वास नहीं रहता । योग्य क्षयोपशम है, पर वह रहेगा, बढ़ेगा, प्रगतिशील होगा इसका कुछ विश्वास नहीं । कारण यह है कि ज्ञानभावना के द्वारा ही ज्ञान का और विकास बढ़ता है, ज्ञानभावना जिसके नहीं है तो एक जानकारी मात्र से वह उन्नति न कर पायेगा । तो कभी जान भी लिया, ज्ञान भी पाया तो अब ज्ञान की भावना बनाये रहनी बहुत कठिन है । आज जितना संसार में दुख है मनुष्यों को सभी को वह ज्ञानभावना के न होने से कष्ट है । कष्ट तो भ्रम से चल रहा है । बाहरी पदार्थ मेरे कुछ नहीं हैं, फिर भी बाह्य पदार्थों से ही लगाव बना रहे तो यह प्राकृतिक बात है कि उसको कष्ट ही होगा । भ्रम समाप्त तो कष्ट समाप्त ज्ञान की यथार्थता अनुभव में आये, फिर वहाँ कष्ट का क्या काम? सो ज्ञानभावना बड़ी कठिनाई से प्राप्त होती है ।
(6) ज्ञान और ज्ञानभावना की दुर्लभता से भी अधिक विषयविरक्ति की दुर्लभता―किसी जीव ने कुछ ज्ञान भी कर लिया, ज्ञान की कुछ भावना भी बनती है, लेकिन विषयों से विरक्ति पाना बहुत कठिन बात है, यों कहो कि ज्ञान और ज्ञानभावना का फल है विषयों से विरक्त हो जाना । सो विषयों से विरक्ति जब तक न मिले तब तक ये सब लाभ भी कुछ लाभ नहीं हैं । हाँ इतना लाभ अवश्य है कि ज्ञानभावना है तो उसका संस्कार रहेगा, तो आज नहीं तो कभी हम उद्धार का मार्ग पा लेंगे । पर जब भी उद्धार के मार्ग में बढ़ेंगे तो विषयों से विरक्ति पूर्वक ही बढ़ सकते हैं । जब तक जीव को भेदविज्ञान नहीं हुआ तब तक उसका मन स्वच्छंद डोलता है, बड़ी-बड़ी साज-शृंगार शोभा की चीजों में वह मन बहलाता है । वह शांति का मार्ग नहीं पा सकता । तो सर्व श्रेयों में श्रेय बस यही सहज आत्मस्वरूप है जो सहजसिद्ध है, जहाँ बनावट रंच नहीं है, ऐसा कारणसमयसाररूप अपना स्वभाव अनुभवना यह है बहुत उच्च काम इस जीवन में । तो ज्ञान पाया, ज्ञान की भावना भी पायी किंतु विषयों से विरक्ति पाना बहुत कठिन है । तो हमें शिक्षा यह लेना है कि अपने में उत्कृष्ट ज्ञानभावना बनायें और विषयों से विरक्त होने का लक्ष्य बनाकर उस ज्ञानभावना से अपने को पवित्र बनायें ।