वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 4
From जैनकोष
ताव ण जाणदि णाणं विसयवलो जाव वट्टए जीवो ।
विसए विरत्तमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कम्मं ।।4।।
(7) विषयानुराग रहते हुए यथार्थ ज्ञान होने की असंभवता―जब तक इस जीव पर विषय का बल बढ़ा-चढ़ा है तब तक उस जीव में शुद्ध सही ज्ञान की वृत्ति नहीं होती । कार्य करना है अपने स्वरूप में मग्न होने का । और यह कार्य ज्ञान द्वारा ज्ञान को ज्ञान में बनाये रहने के द्वारा साध्य है । आत्म मग्नता अन्य विधि से नहीं होती । जो अनेक प्रकार के तपश्चरण बताये हैं वे तपश्चरण विषय कषाय की खोटी वासनाओं को नष्ट करने के लिए हैं । आत्ममग्नता तो ज्ञानमग्नता से ही संभव है । उसका कोई दूसरा उपाय नहीं है । चरणानुयोग में जितने भी बाह्यक्रियायें है उनके किए बिना आगे बढ़ न सके यह बात तो ठीक है, किंतु जो क्रियाओं पर ही ऐसी दृष्टि रखे है कि ऐसी चेष्टा के बल पर मैं मोक्षमार्ग में बढूंगा तो वह नहीं बढ़ सकता । तो ज्ञान में ज्ञान ही समाया हो यह स्थिति चाहिए आत्मकल्याण के लिए, सो जिसका चित्त, जिसका उपयोग विषयवासना में ही बर्तता रहे उसको यह ज्ञान कभी प्राप्त नहीं हो सकता । सो जब तक विषय की ओर बरजोरी इस जीव पर चल रही है तब तक वह जानता नहीं है, उसका ज्ञान सही दिशा में नहीं है ।
(8) ज्ञानानुभवशून्य अज्ञानी जन की बाह्यविषयविरक्तिमात्र से कर्मविनाश की असंभवता―कोई विषय से विरक्त मात्र रहे, इतने से कोई पूर्वबद्ध कर्म का क्षय नहीं कर सकता । शुद्ध ज्ञान साथ में हो तब कर्मों का क्षय होता है । अज्ञान से भी तो विषयों से भी तो, कषायों से भी तो हटना है । जहाँ यह श्रद्धा आयी, दृष्टि बनी कि इन पंचेंद्रिय के विषयों को छोड़ने से, त्यागने से धर्म होता है तो उसकी दृष्टि बाह्य विषयों तक रही, बाह्य विषयों से जुटने तक रही । अभी वह मोक्षमार्ग का पात्र नहीं है । उसके यह चित्त में नहीं है कि इन इंद्रियविषयों से हटना किस कार्य के लिए करना पड़ता है । बाह्य से तो हट गया विषयों से, मगर विषयों से हटने का प्रयोजन जब तक अनुभव में न उतरे तब तक वह कर्मों का क्षय नहीं कर सकता । जीव उपयोग स्वरूप है और यह उपयोग क्रम से चलता है । छद्मस्थ का उपयोग एक साथ सर्व पदार्थों को नहीं जान पाता । तो जब छद्मस्थ का उपयोग क्रम से चलता है और उसका उपयोग किसी इंद्रिय के विषय में लगा हुआ है तो जहाँ उपयोग लगा है उस ही रूप वह आत्मा होता है । तो जब विषयों की ओर उपयोग लगा हो तो वह आत्मा भी अपवित्र है । विषयों की ओर उपयोग जिसका लगा है उसका ज्ञानस्वरूप की ओर उपयोग नहीं लगा यह तो बिल्कुल सिद्ध है । सो जिस पर विषय बल चढ़ा हुआ है वह ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व को नहीं पा सकता । सो जब विषयों में चित्त है तब ज्ञान की वृत्ति नहीं जग रही है, क्योंकि विषयों में चित्त रहेगा तो नियम से विषय के साधनों पर तो स्नेह जगेगा और विषयों की बाधावों पर द्वेष जगेगा । तो जहाँ आचरण ही बिगड़ा, रागद्वेष ही बन गए तो वहाँ ज्ञान अपने सही रूप में नहीं ठहर सकता । यह एक धर्म मार्ग में मूल कार्य है । तो अपने यथार्थस्वरूप को जान लें आकाश की तरह अमूर्त निर्लेप, किंतु चैतन्यगुणमय यह आत्मतत्त्व है, इसका जिसने ज्ञान नहीं किया, अनुभव नहीं किया तो वहाँ उपयोग बाहरी पदार्थों में ही रहेगा । सो जिसका उपयोग विषय में रम रहा है, ज्ञान की और नहीं है तौ जो विषयों को न त्याग सके वह तो कहलाता है वहाँ कुशील और जो विषयों को त्यागकर ज्ञान की भावना करेगा वह कहलायेगा सुशील ।