वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 293
From जैनकोष
वंधाणं च सहावं विपाणियो अप्पणो सहावं च ।
बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खं कुणई ।।293।।
मोक्ष की साधना―जो आत्मा बंधों के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को जानकर बंधो से विरक्त होता है वह पुरुष कर्मों से मुक्त होता है । प्रश्न में जो बात पहिले उठाई गई है उसी का यह समर्थन है, आत्मा ज्ञानमय और आनंदघन है अर्थात् ऐसा विचार अपने आपके बारे में हो कि आत्मा का स्वरूप ज्ञान और आनंद है, ज्ञान तो प्रभु का नाम है और आनंद आल्हाद की नाम हे । जहाँ रंच आकुलता न हो, समस्त गुणों की सम्हाल हो ऐसी स्थिति को आनंद कहते हैं । यह तो है आत्मा का स्वभाव और कर्मबंधों का स्वभाव कैसा है ?
विभाव का विदारण―बंध का स्वभाव आत्मतत्त्व से विपरीत है । आत्मा के ज्ञान में रोड़ा अटकाने के निमित्तभूत तथा आनंद से विपरीत लौकिक सुख और दुःख के परिणाम को उत्पन्न करने में समर्थ बंध के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को पहिले जानना आवश्यक है । ये भिन्न-भिन्न जचेंगे । हमारा स्वभाव दुःख के लिए नहीं है पर बंध का स्वभाव दुःख के लिए है । रागादिक विकार उत्पन्न होना केवल अनर्थ के लिए है, उससे आत्मा को लाभ नहीं है । सो जब यह जान लिया जाता कि आत्मा का हित तो आत्मा के स्वरूप में है और अहित विकार में है तो जो अहित की चीज है उससे उपेक्षा हो जायेगी । यथार्थ ज्ञान बल से जिसको क्या बंधों से वैराग्य हो जाये, अपने रागद्वेष परिणाम से उपेक्षा हो जाये वही पुरुष कर्मों से छुटकारा पा सकता है । ज्ञानी जीव जानता है कि मेरा स्वभाव निर्विकार चैतन्य चमत्कार मात्र है, और बंधों का स्वभाव इस आत्मा में विकारों को करने का है ।
मोह, राग द्वेष से शांति की असंभवता―भैया ! कौन जीव रागद्वेष मोह करके शांत हो सकता है? एक भी उदाहरण किसी का दो कि देखो उसने मनमाना राग किया और शांत हुआ । राग के काल में भले ही बेहोशी से अपने आपको प्रसन्न मानें, कृतार्थ मानें पर चूंकि राग का स्वभाव आकुलता ही है सो आकुलता अवश्य करेगा । रातदिन जो क्लेश रहता है वह क्लेश है किस बात का? रागपरिणाम का, द्वेष तो पीछे हुआ राग के होने के कारण । किसी राग बिना अन्य वस्तु का लक्ष्य करके सीधा द्वेष कभी नहीं होता । जिस चीज में राग है उसमें कोई बाधा दे तो द्वेष होता है । तो सीधा होता है राग । सो सब अपने-अपने चित्त को टटोल लो, जो कुछ थोड़ा बहुत क्लेश है वह राग के कारण है । राग न हो तो कोई क्लेश नहीं है । अपनी-अपनी चीज देख लो । घर में राग, बच्चों में राग, इज्जत में राग, सबमें अपने को बड़ा कहलवाने का राग, कितने राग बसे हुए हैं । उन रागों का स्वभाव ही आकुलता है । कोई दूसरा आकुलता नहीं करता । पुण्य का उदय ही और राग के अनुकूल सब साधन भी मिले, इतने पर भी इस जीव को आकुलता राग के कारण अवश्य है ।
जैन सिद्धांत की वास्तविक भक्ति―जैन सिद्धांत की भक्ति तो यह है कि ऐसा सद्विचार बनाएँ ऐसा सम्यग्ज्ञान उत्पन्न करें कि जिसके प्रसाद से मोह तो बिल्कुल रहे ही नहीं, राग और द्वेष मंद हो जायें । गृहस्थावस्था में राग द्वेष बिल्कुल न रहें यह तो नहीं हो सकता । जब आरंभ और परिग्रह का साधन भी बनाया है तो राग द्वेष तो कुछ न कुछ हुआ ही करेगा, पर यह बात हो सकती है कि मोहबंध न भी हो । ऐसा बिरले को हो सकता है सो यहाँ शंका होती है कि यह भी बड़ा कठिन है कि घर में रहे और मोह न हो, यह तो कठिन मालूम होता है । किंतु शास्त्र और उदाहरण बतलाते हैं कि ऐसे भी ज्ञानी गृहस्थ होते हैं जो गृहस्थी के बीच, दूकान, परिवार, व्यापार सभी की सम्हाल करते हैं और फिर भी उनके मोह नहीं रहता है ।
उदाहरण की खोज―भैया ! भरत जी का उदाहरण प्रसिद्ध है । यदि भरतजी की बात सोचने से हृदय पर छाप नहीं पड़ती, क्योंकि वह बहुत पुराना वृत्तांत है तो अपने ही गांव में, अपने ही देश में अगल बगल के गांवों ज्ञानी गृहस्थ मिलते हो उनको देखो तो कुछ असर पड़ेगा । इतिहास में महापुरुष हुए हैं पूर्वकाल के चतुर्थ काल में, पर कुछ प्रकृति ऐसी है कि वर्तमान में कोई आदर्श मिले तो उसका असर जल्दी पड़ता है । क्योंकि जो बहुत पहिले की गुजरी बात है वह स्पष्ट सामने नहीं आती है और यहाँ वहाँ कोई ज्ञानी मिले तो उसकी बात स्पष्ट आती है । खोजो अपने गांव में कोई है ऐसा विरक्त ज्ञानी गृहस्थ कि कार्य भी सब सम्हाले हैं पर मोह नहीं हे ।
निर्मोह मानव की पहिचान―जिसके मोह न हो उसकी पहिचान यह है कि निसर्गत: शांतस्वभावी हो, किसी भी लौकिक कार्य में हठ न करे, ऐसा हो गया ठीक, ऐसा हो गया ठीक, दूसरे लोग हमारे थोड़े त्याग के कारण यदि सुखी हो सकते हैं तो वे त्याग करने में विशेष सोच विचार न करेंगे । यह है ज्ञानी विरक्त गृहस्थ की पहिचान । धर्मात्माजनों से अनुराग होगा, दुःखी पुरुषों पर उसके दया होगी और आत्मा के चरम विकाश की पूर्ण श्रद्धा होगी, आत्मा है, परमात्मा है, ध्रुव है, जो पदार्थ जैसा है उस प्रकार मानने की श्रद्धा होगी―यह है ज्ञानी पुरुष की पहिचान । अपने गांव में खोजो―मिलेगा ऐसा कोई । ऐसा नहीं है कि न मिले । पर कीचड़ से सने हुये सोने की परख देर से हो पाती है, न मिले आपके गांव में तो आसपास के गांवों में देखो । पंचम काल के अंत तक ज्ञानी साधुओं का भी सद्भाव बताया है तो क्या फिर ज्ञानी गृहस्थ भी न मिलेंगे ।
अंतस्तप―ज्ञानी पुरुष यों देख रहा है कि मेरे आत्मा का स्वभाव तो रागद्वेष मोह रहित केवल ज्ञाता द्रष्टारूप रहने का है । इस मुझ आत्मा में जो अनर्थ उत्पन्न होता है कल्पना जगती है, रागद्वेष मोह होता है वे सब बंध के स्वभाव हैं । ऐसा जानकर जो ज्ञानी बंध से विरक्त होता है वह इन समस्त कर्मों से छुटकारा प्राप्त करता है । इस कथन से यह जानना कि मोक्ष का कारण आत्मा और बँध को भिन्न-भिन्न कर देना है । सबसे बड़ी तपस्या हैं यह कि अपने में जो कल्पनायें उठती हैं, रागद्वेष भाव जगते हैं उनको अपने से न्यारा जानो, विकार जानो, बंध का स्वभाव जानो, हेय जानो, और अपने आपको केवल ज्ञाता द्रष्टा ज्ञायक स्वभाव जानो । ऐसा भीतर में स्वभाव और विभाव के भिन्न-भिन्न जानने का जो पुरुषार्थ है वह पुरुषार्थ मोक्ष का हेतु होता है ।
स्वघटित ज्ञान―भैया ! हम कुछ भी जानें, अपने आप पर घटाते हुए जानें तो हमारा जानना सच्चा है और केवल एक झूठा आनंद लूटने के लिए हम बाह्य पदार्थों को जानें तो वह हमारा सच्चा ज्ञान नहीं है । घर जानने में आ रहा है तो कोई तो यों जानेगा कि मेरा घर है, उसने भी जाना, और कोई यों जानेगा कि मेरा घर नहीं है, इसमें कुछ दिन रहना है यह भी तो घर का जाना हुआ । परंतु पहिले प्रकार का जानना तो मिथ्या है, दुःख के लिए है । और यह मिट्टी ईट का घर है, इसमें कुछ दिन रहना है, इस तरह का जो ज्ञान है यह सच्चा ज्ञान हैं―कारण कि इस ज्ञान में अपने आप पर तत्त्व घटाया । कुछ दिन मुझे इसमें रहना है, मेरे साथ यह घर सदा न रहेगा, ऐसा अपने आप पर घटाते हुए जाना इसलिए वह ठीक ज्ञान हुआ । इसी तरह जो कुछ भी जानों, अपने आप पर घटाते हुए जानो तो वह जानना भला है ।
शरीर का स्वघटित ज्ञान―शरीर को जाने तो अज्ञानी यों जानेगा कि यह ही मैं हूं, दुबला हूँ, मोटा हूँ, गिरती हालत का हूँ, चढ़ती हालत का हूँ, इस तरह जो जाना उसका ज्ञान मिथ्या है क्योंकि उसने अपने आप पर कुछ बात नहीं घटाया । यह भी शरीर को जानना है, और इस तरह भी शरीर का जानना हो सकता है कि यह कुछ समय से बन गया है, कुछ समय तक इसमें मैं रहूंगा, बाद में छोड़कर जाऊँगा । यह शरीर विघटने और गलने का स्वभाव रखता है । ज्यों-ज्यों उम्र गुजरती है त्यों-त्यों शरीर क्षीण होता जाता है । यह तो कुछ समय को मेरा घर बना है, पर, यह मेरा घर सदा न रहेगा, इसे छोड़कर जाना होगा । यह भी तो शरीर का जानना हुआ ना, यों जानने में अपने ज्ञान ने आप पर बात घटाया इसलिए यह ज्ञान सच्चा ज्ञान हुआ ।
बालक पर स्वघटित ज्ञान―विश्व की कुछ भी बात जान लें, पर अपने आप पर घटाकर जानें तो सम्यग्ज्ञान हो जाये । घर का बालक, गोद का बालक, जिसको गोद में लिए बिना काम न सरेगा, उसे बहुत कुछ पालना पोसना भी है, जिम्मेदारी और भार भी है फिर भी उसे इस तरह जानना कि यह मेरा पुत्र है, मेरा यही सर्वस्व धन है, इससे ही मेरी शोभा है, इससे ही बड़प्पन हो रहा है, इस तरह से उस बालक का जानना झूठा ज्ञान है, और उस बालक को इस तरह जानें कि देखो यह जीव किसी गति से आया है कुछ समय को इस देह में रहेगा अपने किए हुए कर्मों को यह साथ लाया है, मेरे से यह अत्यंत भिन्न है, पर इस भव में ऐसा ही समागम हो गया है कि मेरे ही निमित्त से मेरे ही निकट इसका जन्म हुआ है । इस तरह अपने आप पर घटते हुए उस बालक को जानना सम्यग्ज्ञान हो गया ।
धर्मपालन―भैया ! जानना भर ही तो है―तो मिथ्यारूप से न जानो, भली विधिरूप से जानो । जानने को कोई नहीं रोकता । जानना तो हुआ ही करेगा । जाने बिना आप खाली न बैठ सकेंगे । जानो मगर सब चीजों को अपने हित अहित का संबंध जोड़ते हुए जानो । ऐसा जानना यही सम्यग्ज्ञान हो मया । जिस प्रकार के जानने से विकार भाव हटे, रागद्वेष मोह दूर हो उस प्रकार के जानने में प्रयत्नशील रहो । ऐसा ऊँचा धर्म करने के लिए बड़ा त्याग करना होगा । परिणामों में निर्मलता आए तब धर्म पल सकता है । अपन सबको ऐसा धर्म पालने का तरीका बनाना है कि जहाँ चाहे हो, मंदिर में घर में अथवा रास्ता चलते हुए में सभी जगह धर्म पाल सकते हैं । मंदिर हमारे आपके धर्म पालन का मुख्य साधन है । सो कितना धर्म पाला जाता, है, पर रोज ही भूल जाते हैं । सो उस धर्म के स्वरूप को जानने के लिए, याद करने के लिए हमें मंदिर आना चाहिए । परधर्म तो जहाँ चाहे आप पाल सकते हो, जहाँ अपने ज्ञान स्वभाव पर दृष्टि हुई और औपाधिक मायाजाल, विकार भावों से आपकी अरुचि हुई वहीं आपने धर्म पाल लिया ।
शांति का साधन―तो भैया ! शांति का कारण क्या है कि अपने आत्मा के स्वभाव को जानें । इससे बंधों से विरक्ति हो जायेगी । अपनी करतूत से जो क्रोध, मान, माया, लोभ परिणाम होते हैं उनसे वैराग्य प्राप्त करो । मेरे विनाश के लिए ही ये मेरे माया भाव होते हैं । उनसे विरक्ति हो तो यह समस्त कर्मों से मोक्ष करने में कारण है । इस गाथा में पूर्वकथित सिद्धांत का पूर्ण नियम किया । किसी के भी मोक्ष का कारण आत्मा का और बंध भाव के भिन्न 2 कर देने में है ।
शांतिसाधना―देखो भैया ! धर्म का पालन, मोक्ष का मार्ग कितना सुलभ है, भीतर की दृष्टि सही बने तो यह अत्यंत सुगम है और एक अपनी दृष्टि सही न बने तो अत्यंत कठिन है । कठिन ही नहीं किंतु असंभव है, इसलिये बहुत-बहुत चुप रहकर ज्यादा बातचीत न करके अपने आपमें इस तरह का ध्यान बनाया करें कि मैं आत्मा तो विकार रहित हूँ, चैतन्य स्वभाव मात्र हूँ, जैसा प्रभु का स्वरूप है वैसा मेरा स्वरूप है, पर कर्म उपाधि के सान्निध्य से ये विकारभाव जगे हैं । रागद्वेष कल्पनाएँ मोह ख्याल ये चीजें मेरी नहीं है, ये मेरे अनर्थ के लिए हैं, ऐसी ही भीतर में श्रद्धा बनायें और बंधों से विरक्त हो तो इससे शाँति प्राप्त होगी ।
आत्मा और बंध के द्वेधीकरण का साधन―सत्य आनंद चाहने वाले पुरुष को आनंदमय अपने आत्मा का स्वरूप जान लेना चाहिए और अपने आनंद में विघात करने वाले विकार भावों का स्वरूप जान लेना चाहिए । स्वर में ऐसी भावना करें कि जितने भी विकार हैं रागद्वेषादिक हैं वे मेरे से पृथक् हैं । मैं ज्ञानानंदस्वरूप हूँ । ये विकार औपाधिक हैं, ऐसा विवेक करने पर आत्मा से रागादिक दूर हो जाते हैं । इस ही उपाय को एक प्रश्न के उत्तर में कहा जा रहा है । प्रश्न यह किया गया है कि आत्मा और बंध अलग-अलग, किस प्रकार किए जाते हैं? उत्तर में श्री कुंदकुंदाचार्य महाराज कहते हैं―