वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 62
From जैनकोष
जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि ।
जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई ।।62।।
229. जीव का वर्णादिक के साथ तादात्म्य मानने पर अनिष्टापत्ति―वर्णादिक ये समस्त भाव जीव के ही हैं अथवा जीव ही हैं, यदि ऐसा मानते हो तो तुम्हारे मत से अब जीव और अजीव में कोई भेद नहीं रह गया समझो । पहले कहीं कहा गया है कि संसार अवस्था में कथंचित् तादात्म्यता है उसका भाव संयोग अपेक्षा मात्र है । वास्तव में संसार अवस्था में भी जीव का वर्णादि से कभी तादात्म्य नहीं हो सकता । यदि स्वरूप में वर्णादिक हो जाये तो फिर उसका नाम जीव रखने का प्रयोजन ही क्या रहा? पुद्गल ही न कह दिया जाये सीधा । सांसारिक अवस्था में भी वर्णादिक भिन्न हैं, तथा मेरा आत्मा भिन्न है । अपने स्वरूप पर दृष्टि गई तो परपदार्थ से मोह हटेगा । ज्ञानी व मोही में कितना अंतर है? बिल्ली एवं छिपकली जैसे जीवों को मारकर भी भगाना चाहो तो वह कीड़ा को अपने मुंह से नहीं छोड़ेंगे । हिरण जरा सी आहट में घास को छोड़ देता है । ज्ञानी एवं मोही दोनों शरीर की सेवा करते हैं, पर जिसने अंतर समझ लिया वह ज्ञानी है । वर्णादिक तो गुण हैं वह नई दशा उत्पन्न करते हैं पुरानी दशा विलीन करते हैं । आविर्भाव तिरोभाव पर्याय से हुआ वर्णादिक पुद्गल का अनुसरण करते हैं । वर्णादिक का तादात्म्य पुद्गल से रहा । अगर कहा जाये वर्णादिक जीव का अनुसरण करते हैं तो जीव में और पुद्गल में कोई अंतर नहीं रहेगा । अंतर नहीं रहने पर जीव भी नष्ट हो जायेगा तथा जीव के नष्ट होने पर ज्ञायकपना भी नहीं रहेगा । ज्ञायकता नष्ट होने पर ज्ञेय भी नष्ट हो जायेगा, लो सर्वनाश हो गया ।
230. ज्ञानी की निःस्पृहता का बल―अज्ञानी अपने को गृहस्थी में फंसा हुआ पाकर निवृत्त होने की कोशिश नहीं करता, पर ज्ञानी सतर्क रहता है । मैं तो चेतना मात्र हूँ, इस तरह का आभास ज्ञानी को होता रहता है । बड़े अफसर के नीचे कार्य करने वाला नौकर उसके पास जाकर जी हजूरी करता है, काम भी पूर्ण करता है । पर यदि वह हृदय से आफीसर का कार्य नहीं करना चाहता तथा उससे उसे घृणा है तो वह कार्य भी करते हुए नहीं करने के बराबर है । “भरतेश वैभव में भरत चक्रवर्ती का वर्णन ठाटबाट का भी चल रहा है, साथ में वैराग्य का भी चल रहा है । 96 हजार रानियों द्वारा भरत का बड़ा सन्मान किया जा रहा है, भरत भी रानियों को प्रसन्न करने में नहीं चूकते, किंतु टीस कुछ और ही वैराग्य की लगी है ।” सर्व भोग्य सामग्री मौजूद है पर वह उसमें सनते नहीं, यह सबसे बड़ी उनके जीवन की विशेषता रही । विनाशीक वस्तु से प्रेम क्या? रात के बाद दिन है दिन के बाद रात है किंतु दिन भर की थकावट से ऊबने पर रात के आराम का ख्याल रहता है किंतु चित्त में यह बसा है कि रात के बाद दिन तो आना है, वह आराम में क्या आसक्त होगा? जिसे रात में अनेकों ख्याल से दु:ख रहता है और दिन में कार्यव्यास से दु:ख भूला रहता है सुख में लग जाता है उसे यह ख्याल है कि दिन के बाद रात तो आनी है वह सुख में क्या आसक्त होगा? ज्ञानी जीव जानता है सुख दुःख दोनों विनाशीक हैं, वह उनमें क्या लगेगा? लगे तो वह लगन भी तात्त्विक विचारों के द्वारा रफूचक्कर हो जाती है । सुख और दुःख दोनों का जोड़ा है । दुःख ही निरंतर बना रहे यह भी नहीं हो सकता, सुख भी निरंतर नहीं टिकता । यह सांसारिक जीवों का उदाहरण है । परपदार्थ से सुख मानने वाले संयोग में तीव्र बुद्धि रखते हैं । लेकिन जब वियोग होता है तब उन्हें अति दुःख उठाना पड़ता है । आगे पीछे का ध्यान रखकर जो कार्य किया जाता है उसमें दुःख अधिक नहीं उठाना पड़ता ।
231. हितभावना―जो लोग आत्मा को नहीं मानते वे भी मरण समय में अपने बारे में कुछ तो सोचते हैं । चार्वाक जैसी बुद्धि रह जाये तो दु:ख नहीं होना चाहिए । मरते समय यह बुद्धि चार्वाक में भी आ जाती है कि हाय अब मैं मरा, देख लो उसे दुःख सहन नहीं हो पा रहा । बच्चा कपड़ा सुखाते समय कहते हैं―ताल का पानी ताल में जइयो कुआं का पानी कुआं में जइयो मेरा कपड़ा सूख जइयो । इसी तरह चार्वाक लोग कहें कि पृथ्वी का शरीर पृथ्वी में जावे, वायु का वायु में, पानी का पानी में, आकाश का आकाश में और अग्नि का अग्नि में, तो माने तो सही मरते समय तो उनके आत्मा नहीं है और दुःखों से नहीं छटपटावें । क्रोध आने के 5 मिनट पूर्व सोच लिया जावे इससे मेरी हानि होती है तो वह कारण ही उपस्थित न होवे । व्यवहार की दृष्टि प्रबल होने से पर में आपा भूले हैं, निश्चय दृष्टि से कोई भी पदार्थ अपना नहीं है तब वह हित क्या करेगा? वस्तु का विश्लेषण करते समय व्यवहारनय भी विशेष उपयोगी होता है, पर आत्म साधक के लिए निश्चयनय ही कल्याणप्रद होता है । या ज्ञान के लिए निश्चयनय विज्ञान के लिए व्यवहारनय है । निश्चयनय की दृष्टि रखने वाले एवं निश्चय का कथन करने वाले ने व्यवहार का आलंबन न किया हो तो ऐसा कोई होवे तो बतावे । पहला अपना मार्ग तो व्यवहार के द्वारा सुगम कर लिया और दूसरों को निश्चय का उपदेश देने लगे । मैं ज्ञानमात्र हूँ, चैतन्य मात्र हूँ । अगर बाहरी विकल्प छूट जाए तो शांति मिलेगी । अगर परिग्रह का परिणाम कर लिया तो विकल्प उसी के अनुसार के बनेंगे । परिग्रह का प्रमाण करने वाला प्रभाव में नहीं जावेगा । परिग्रह का विकल्प छूट जाए तथा ज्ञान बढ़ाकर अपना समय ज्ञानवार्ता में बितावे बाकी समय में यह उपाय करे कि खाली समय का उपयोग अच्छे में होना चाहिए । रिटायर्ड हो जाने पर धन लाने की तृष्णा छोड़कर आत्मकल्याण के लाभ की लगन होना चाहिए । पढ़ने से निर्मलता आती है ।
232. बुद्धि का उपयोग करने का अनुरोध―प्राचीन ऋषियों की बात समझने में समय व्यतीत होना चाहिए । ज्ञानावरण का क्षयोपशम तो प्राय: सभी भाइयों में विशेष-विशेष है । जिस बुद्धि का उपयोग बड़ी-बड़ी कंपनियों की व्यवस्था में हो लेता है जैसे उत्तर रेलवे, दक्षिण रेल, पूर्व, एवं पश्चिम रेलवे तथा सेन्ट्रल रेलवे का टिकिट किसी भी तरफ से खरीद लो तथा वह पैसा जिस स्थान का सफर होता है वहाँ पूर्णतया पहुंच जाता है उसी तरह जिस क्षयोपशम में इतनी बड़ी विशेषता है तब क्या वह निज का कार्य नहीं कर सकेगा? विशुद्ध, चैतन्य मात्र जीव है किसी भी प्रकार जीव साक्षात् दिखते हैं, फिर उनका लोप करना कहाँ तक उचित है? जैसे पानी में तेल मिलकर एकमेक रूप नहीं हो सकता उसी तरह चेतन से पुद्गल नहीं मिलता, पुद्गल में जीव नहीं मिलता । देह का स्त्री पुत्रादि से कोई प्राकृतिक संबंध नहीं है केवल ऐकांतिक मोह है । हम तुम्हारे नहीं है, तुम हमारे नहीं यह स्पष्ट ज्ञात होते हुए हम उनमें व्यर्थ में मोह कर रहे हैं । बड़ी मेज, कुर्सी आदि अपने-अपने परिणमन के द्वारा कह रही हैं कि हम तुम्हारे नहीं हैं । मोही जीव अपनी ममता से ही कहते हैं तुम हमारे हो । मरते समय तक भी कहते हैं हमारे हैं हमारे हैं । इतने पर भी पदार्थ कहते हैं, हम तुम्हारे नहीं हैं । इस तरह देह को और जीव को एक गिना तो अनेक आपत्तियाँ आ जावेंगी । मैं चेतना मात्र हूँ इतनी बुद्धि रख लौकिक कार्य भी आ जावें तो मोह न करे । इनका सरल उपाय भेदविज्ञान है, यही बीज का कार्य करेगा । भेदविज्ञान की भावना तब तक भानी चाहिए जब तक स्वतंत्र तौर से स्व का अनुभव होने लगे ।
233. गृहस्थ और मुनियों में अंतर― गृहस्थ और मुनियों में क्या शास्त्र है? गृहस्थ की धारा टूट-टूट जाती है । मुनि की धारा समान प्रवाहित रहती है वह हटती नहीं, कार्य दोनों का चालू है, किंतु उनका अंतर निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा । मेल व मालगाड़ी दोनों एक रास्ते से जा रही हैं, लेकिन जब मेल गाड़ी की सूचना 2 या 4 स्टेशन पीछे भी मिल जाये तो मालगाड़ी को पड़ा रहना पड़ता है तथा अगली स्टेशन जब पार कर जाये मेल, तब माल को अवसर मिलता है । इसी तरह का अंतर अश्रेणिगत मुनि और गृहस्थ के कर्मों की निर्जरा में व मोक्षमार्ग में रहता है । मुनि को संसार के भोग हेय हैं पर गृहस्थ उन्हें रुचि से भोगता है । मुनि रूखे अलोने भोजन से भी पेट के गड᳭ढे को भरकर संतुष्ट रहता है किंतु गृहस्थ नई-नई सामग्री भोजन में जुटाने पर भी संतुष्ट नहीं हो पाता तथा ज्ञानी गृहस्थ संतुष्ट रहता । मुनि के तृष्णाग्नि शांत हो जाती है किंतु गृहस्थ की खाई नहीं भर पाती । मुनि की कार्यव्यस्त प्रणाली प्रतिपल निर्जरा का कारण हो सकती है । वहाँ गृहस्थ निर्जरा के विषय में अचेत जड़वत् रहता है, जब कभी उसके भी निर्जरा हो जाती है । गृहस्थ एवं मुनि दोनों के लिए बारह भावनायें सदैव हितकारी हैं । यह बारह भावनायें मुक्तिमार्ग का विचित्र पाथेय हैं ।
234. शास्त्रनिरूपित हितार्थ सार ध्यातव्य―शास्त्रों का सार जीव और पुद्गल को भिन्न समझ लेने में है । इनसे मैं भिन्न हूँ अत: इन किन्हीं भी पर का मैं कुछ नहीं करता केवल इनका विषय करके मैं विपरीत अभिप्राय बना सकता, मोही केवल पुद्गल पर्यायों को देखकर विपरीत मति बनाता है । उसे अन्य की तो खबर ही नहीं, जीव जुदा है पुद्गल जुदा है यह तत्त्व का निचोड़ है । धर्म अधर्म काल द्रव्य भी हैं उन्हें देखकर विपरीत मति बनाता है यह क्यों नहीं कहा? जीव का जो अध्यवसाय हो रहा है वह पुद᳭गल को विषय बनाकर चल रहा है । धर्म द्रव्य को विषय करके कौन क्या सोचता है, उसी तरह अधर्म, आकाश और काल को विषय बनाकर भी कौन पुद्गल के समान रति करता है? धन वैभव को देखकर एवं विषयों में बाधक जो पदार्थ हैं उन्हें देखकर अच्छे बुरे परिणाम करेंगे । जीव और पुद᳭गल के इस भेद को जुदा-जुदा बताने वाले प्रथम तो रूपित्व और अरूपित्व दो मुख्य कारण हैं । पुद᳭गल में रूप रस गंध वर्ण है अत: देह एवं पुद्गल रूपी है, जीव में यह नहीं पाये जाते अत: जीव अरूपी है । या यह जीव का असाधारण गुण नहीं है । धर्म अधर्म आकाश काल में भी रूपीपना नहीं पाया जाता है । इस तरह यह रूपीपना पुद᳭गल में है जीव में नहीं, धर्मादि द्रव्य में नहीं । अत: रूपित्व अरूपित्व के बल पर वस्तुत: भेदविज्ञान नहीं होता है तब विशेषता वह देखी जावे जो पूर्ण अन्वय-व्यतिरेक सहित हो, वह है चैतन्य भाव । जीव में चैतन्य है, पुद्गल में चैतन्य नहीं है । यहाँ आत्मद्रव्य की जानकारी दो प्रकार से की गई । एक विधि द्वारा एक निषेध द्वारा । जीव में चैतन्य है किंतु रूपित्व नहीं है । अन्य विषयों की तुलना में भिन्न-भिन्न बताकर विधि एवं निषेध रूप से आत्मा का लक्षण कहा जाता है, इसी पर पूर्ण तत्त्व की आधारशिला टिकी है याने विधि निषेध द्वारा वस्तु की व्यवस्था होती है ।
235. जीव की वर्णादि से विविक्तता―वर्ण रूप आदिक का तो पुद्गल के साथ तादात्म्य यों है कि पुद᳭गल की चाहे कितनी ही अवस्थायें हैं, वर्ण पुद्गल में बराबर संबंध रखता है । इससे यदि उनके साथ वर्ण का तादात्म्य मान लो तो ठीक है, जो पुद᳭गल का लक्षण है रूपादिक के साथ जैसे तादात्म्य है वह पुद᳭गल है । यदि इसी प्रकार तादात्म्य मान लिया जीव के साथ, तो जीव और पुद्गल में अब भेद क्या रहा? अर्थात् जीव का अभाव हो गया । सब पुद᳭गल हैं जो यह जानन देखनहार है यह जीव है, इसमें भी वर्ण का तादात्म्य मान लिया, यह भी पुद्गल हो गया और पुद्गल तो पुद्गल था ही । स्थूलदृष्टि से भी यह बात समझ में आती है कि जीव यदि वर्णात्मक होता, रूप, रस, गंध, स्पर्शादिक से तन्मय होता, तो यह जानने का काम नहीं कर सकता था । जो मूर्त पदार्थ होता है, जिसमें रूप, रस, गंध आदिक होते हैं वे कभी भी जानने का काम नहीं कर सकते । जानने वाला द्रव्य तो अमूर्त और केवल चैतन्यात्मक होता है । अपने आपको जब तक चित्स्वरूप न स्वीकार करेंगे तब तक आकुलतायें न टल सकेंगी ।
236. ज्ञानमात्र अकिंचन आत्मतत्त्व की चर्चा―है तो यह जीव अकिंचन, अपने स्वरूप के सिवाय इसमें और कुछ नहीं है । लेकिन मोह में यह जीव अपने स्वरूप की तो दृष्टि ही नहीं रख रहा, और सब कुछ इन बाह्य को ही सर्वस्वरूप मान रहा है । कितनी व्याकुलता, कैसी बेचैनी संसारी जीवों को लगी है, ऐसी बड़ी व्याकुलता क्या इस जीव का काम था? क्या इस जीव का स्वभाव था? जीव तो चैतन्य स्वरूप है । उसमें आकुलता का क्या काम है? लेकिन जो समर्थ होता है उसकी यदि बुद्धि बिगड़ जाये तो खोटे कामों को भी बड़ी लगन और अधिकता के साथ कर सकता है । यह चैतन्य आत्मा प्रभु है, समर्थ है, इसकी बुद्धि बिगड़ गयी, अर्थात् स्वयं का क्या स्वरूप है―इस पर दृष्टि न रहकर, बाह्य पदार्थों में दृष्टि बिगड़ गयी, वहाँ चला गया है उपयोग तो इसकी बुद्धि भ्रांत हो गयी । जो बात जैसी नहीं है उसे वैसा मान रहा है । भला बतलावो यह जीव किसी कुटुंब का स्वामी है क्या? वे जीव अलग हैं, यह अलग है? उनका सत्त्व उनका स्वरूप चतुष्टय उनमें है, इसका इसमें है । कुटुंब का यह किसी प्रकार स्वामी तो नहीं है, लेकिन कल्पना में बसा है कि मैं अधिकारी हूँ, इस कुटंब का स्वामी हूँ, ऐसी जो मिथ्या श्रद्धा बन गयी है उसके कारण यह दुःखी हो रहा है । भीतर ही कोई अपने उपयोग का पुरुषार्थ चलाये और यह अपना निर्णय बनाये कि मैं आत्मा तो उतना ही हूँ जितना कि चैतन्यस्वभाव व्याप रहा है, मैं और कुछ नहीं हूँ ऐसी दृढ़ प्रतीति करके यहाँ ही कोई रम जाये तो उसे फिर बाधायें क्या? कुछ भी बाधा नहीं है । बड़े-बड़े चक्रवर्तियों ने, तीर्थंकर जैसे महापुरुषों ने बहुत बड़ी विभूति पाने के बाद भी सार उसमें कुछ नहीं समझा । प्रकट असार उन्हें दिखा । तब उन सब विभूतियों का परित्याग करके अपने आपको अकिंचन अनुभव करने में लग गए थे और उसका प्रताप यह हुआ कि वे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति, अनंत आनंद के स्वामी हो गये ।
237. प्रभु की महिमा का कारण―हम प्रभु को पूजते क्यों है? उनमें हम इन दो महिमाओं को देख रहे हैं इसी कारण पूजते हैं । पहिली महिमा तो वीतरागता की है । यदि प्रभु रागी द्वेषी होते और कदाचित् समर्थ होते तो उनके सामर्थ्य की वजह से चाहे लोग हाथ जोड़ने लगते किंतु हृदय कबूल न करता क्योंकि समझ में आ रहा कि इसके राग है । जैसे यहाँ पर कोई समर्थ पुरुष है, राजा है, लोग जानते हैं कि इसके राग है, द्वेष है तो लोग प्रभु की तरह राजा का आदर तो नहीं करते, किंतु उनकी हाँ हजूरी में पहुंचते हैं, तो लोग समर्थ होने से अपने आपके कार्य से भले ही उनके दास हों, किंतु राजा के प्रति उनका आकर्षण नहीं है । आकर्षण तो वीतरागता का है । प्रभु की पहिली महिमा तो वीतरागता की है और दूसरी महिमा परिपूर्ण ज्ञानप्रकाश की है । प्रभु का ज्ञान परिपूर्ण है, दर्शन शक्ति आनंद से परिपूर्ण है । जिसे एक शब्द में कहा गया―सर्वज्ञता । तो प्रभु की ओर जो भक्तजन खिंचे चले आ रहे हैं उनकी महिमा इन दो बातों से है―वीतरागता और सर्वज्ञता । सो अपने आत्मा में भी देखिये तो राग होना मुझ आत्मा का स्वरूप नहीं है, स्वभाव नहीं है । मेरा तो एक चैतन्यस्वरूप है । स्वच्छता के कारण ज्ञेयपदार्थ उसमें प्रतिबिंबित हो जायें यह इसका स्वरूप है । राग विकार इस जीव के स्वरूप नहीं हैं । तो मैं विकाररहित स्वभाववाला हूँ ना । हो विकार, लेकिन मेरे स्वभाव में स्वरूप में विकार नहीं है । प्रभु अविकार प्रकट हो गए । तो मुझ में अविकार स्वभाव है । इस अविकार स्वभाव के आलंबन के प्रताप से मुझमें भी अविकारता पूर्णतया प्रकट हो जायेगी । अविकार रहने में ही आनंद है । विकार तो अंधेरा है, विडंबना है, इसी से ही जीव की मलिनता है और आकुलता है । अपने विकार रहित स्वच्छ ज्ञानस्वरूप का आदर किया जावे तो यह अविकार भाव प्रकट होगा । तो प्रभु में ये दो महिमायें हैं―निर्विकार रहना और परिपूर्ण विकास वाला होना । निर्विकारता जहाँ होती है वहाँ परिपूर्ण विकास हो जाता है ।
238. धर्मार्थ करणीय यत्न―देखिये भैया ! हमको कैसा यत्न करना है? मेरा परिपूर्ण विकास हो, ऐसी दृष्टि रखकर यत्न नहीं करना है किंतु मेरे में निर्विकारता हो, ये विकारभाव आवरण आदि सब दूर हो जायें, ऐसा लक्ष्य रखकर यत्न करना है, सो ये विकार हट जायें ऐसा भी हम उद्यम क्या कर सकेंगे? विकाररहित जो विशुद्ध चैतन्यस्वरूप है उसका आलंबन लेना है । हम आपके करने के लिए केवल एक ही काम पड़ा है, जो मौलिक है, सत्य है । वह काम यही पड़ा कि मैं विकाररहित विशुद्ध चैतन्यस्वरूप को जानता रहूं, और उसमें ही मैं हूँ ऐसी प्रतीति बनाये रहूं, यही एक काम पड़ा है । इस ही महान कार्य को करने के लिये हम वर्तमान कमजोरी की अवस्था में, गृहस्थावस्था में प्रभु पूजा, स्वाध्याय, गुरु सत्संग, तपश्चरण आदिक प्रयोग किया करते हैं । उनका प्रयोजन एक मात्र इतना है कि मैं विकाररहित विशुद्ध चैतन्यस्वरूप को जानता रहूँ । यह मैं हूँ, तो एक इस उपाय से कि विकाररहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप का उपयोग बनाये रखना विभाव और मलिनतायें दूर होती हैं; आत्मा में जो परिपूर्ण विकास होने को है वह हो जाता है । कार्य केवल एक किया जाना है । जैसे व्यवहार में श्रद्धा केवल एक प्रभु की ओर रखना है, 10 प्रकार के प्रभुओं की ओर नहीं । सभी मत वाले दृढ़ता से अपने एक प्रभु पर श्रद्धा रखना चाहते हैं । जो अनेक प्रभुवों को बुलाते हैं उनके काम सिद्ध नहीं होते । प्रभु का लक्षण एक ही है―जो वीतराग हो सर्वज्ञ हो । दूसरे प्रकार के देवों की श्रद्धा न करना । जैसे यह व्यवहार की बात है तो अध्यात्मयोग की बात यह है कि विकाररहित विशुद्ध ज्ञानस्वरूप की श्रद्धा करना । अन्य-अन्य रूपों में अपनी श्रद्धा न करना । कहीं रहना पड़े, कुछ स्थिति आ जाये, सभी परिस्थितियों में यह निरखना है कि मैं रागादिक विकाररहित शुद्ध चैतन्य स्वरूपमात्र हूं―ऐसी प्रतीति होगी तो इस ओर उपयोग रखने का भाव होगा ही । यहाँ उपयोग रमेगा तो विकास भी होगा और रागादिक दोष भी टलते जायेंगे । केवल एक ही कार्य करना है, कर लें यदि तो समझो कि मनुष्यभव पाना, श्रेष्ठ कुल पाना, सत्संग पाना आदि ये समस्त दुर्लभ समागम सफल हो जायेंगे । एक इतनी ही बात न कर पाये तो चाहे कितना ही कुछ पाया वह सब ढेला पत्थर है । उससे आत्मा को मिलना कुछ नहीं है । विषयों की ओर आकांक्षायें होने से जीवन बेकार और बरबाद ही हो जायेगा । इससे एक निर्णय बनायें कि मुझे जीवन में विकाररहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप के दर्शन करते रहना है, इससे हम इन संकटों से दूर रह सकते हैं ।
239. जीव का वर्णादिक के साथ तादात्म्य के अभाव का कथन―काला पीला नीला लाल सफेदपना, खट्टा मीठा कड़वा चरपरा कषायला रस तथा सुगंध, दुर्गंध और हल्का भारीपन आदि आत्मा में नही है । पुद्गल में ही वर्णादिक का योग है । व्यावहारिक दृष्टि बंध सहित होने के कारण जीव को मूर्तिक कहा है । कारण कि जीव संसार में देह से भिन्न नहीं हुआ । औदारिक वैक्रियिक शरीर स्थूल हैं, यदि यह छूट गया तो और अन्य शरीर मिलने में 2-3 समय का अंतर है तो वहाँ भी तैजस कार्माण तो रहते ही हैं । मतलब यह है कि वर्णादिमान शरीरों के साथ जीव संसार अवस्था में निरंतर रहता है अतएव व्यवहार से वर्णादिमान जीव को कह दिया जाये तो वह एक दृष्टि है । यदि जीव के साथ वर्णादिक तादात्म्य सामने का ही किया जावे तो यह दोष आता ही है कि फिर जीव और अजीव में भेद ही नहीं रहा । इसका कारण यह है कि वर्णादिक भाव क्रम से अपने विकास को प्रकट करने व विलीन करने की पद्धति को रखकर पुद᳭गल द्रव्य के साथ ही अपनी वर्तना रखते हैं, अत: वर्णादि जिसके साथ तादात्म्यरूप हैं वह पुद्गल द्रव्य है । इसी पद्धति से तादात्म्यपना होता है । परंतु तुम मानते हो कि जीव के साथ वर्णादिक तादात्म्य हैं तो पुदगल का ही लक्षण जीव में गया । लो अब पुद्गल से भिन्न कोई जीव ही नहीं रहा । जिज्ञासु को जीव के वर्णादिक के बारे में शंका हुई । तब उसका समाधान किया । जहां कहीं बताया भी है जीव के वर्णादि वह विरोध तो नहीं है किंतु दृष्टि भेद है । केवल जीव का स्वरूप निहारने पर वर्णादिक नहीं हैं तथा संसार अवस्था में देह और जीव का संबंध होने पर दृष्टि देने से उपचार से वर्णादिक हैं । व्यवहार इस तरह से बन चुका कि रूप, रस, गंध, वर्ण जीव का साथ नहीं छोड़ते । तैजस एवं कार्माण एक समय मात्र को जीव का साथ नहीं छोड़ते । अन्य मतानुयायी भी सूक्ष्म शरीर को सदैव जीव का साथी मानते हैं । तैजस, कार्माण के द्वारा शरीर का निर्माण होता है । यह दो शरीर तो सदैव रहते ही हैं, तथा औदारिक या वैक्रियक शरीर भी कुछ समय का अंतर होने पर मिलते रहते हैं । संसारावस्था में ही सही, किंतु यह तो निश्चय कर लो कि यह जीव के ही हैं । यह एक जिज्ञासु का प्रश्न है । इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं:―