वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 63-64
From जैनकोष
जदि संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी ।
तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ।।63।।
एवं पुग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी ।
णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पुग्गलो पत्तो ।।64।।
हे मूढ़मते ! यदि तुम्हारे आशय में संसारी जीवों के वर्णादिक होते हैं तो संसारी जीव रूपीपने को प्राप्त हो गये । रूपीपन को प्राप्त तो पुद्गल द्रव्य है । अब रूपीपन को प्राप्त उस लक्षण से जीव भी रूपी हो गया । अब तो आगे यह कहना पड़ेगा कि निर्वाण को प्राप्त होता हुआ भी पुद्गल ही जीवपने को प्राप्त हो गया । देखो यदि संसारावस्था में जीव के वर्णादिक हैं ही ― यह माना जाये तो यह दोष आयेगा कि संसारी जीव रूपी ही हो गये और जो रूपी है वह पुद्गल है तो मुक्त होने पर भी जीव के वर्णादिक कहना पड़ेगा । अथवा यों मानना होगा कि पुद्गल ही मोक्ष को प्राप्त हो गया । संयोग में सर्वस्व मानने वालों के लिये जीव के वर्णादिक हैं । चाहे वे यह भी मानें कि मुक्तावस्था में जीव के वर्णादिक नहीं हैं तो भी हठपूर्वक अथवा स्वरूप में संयोग मानने से जीव रूपी कहलाने लगा तथा जो-जो रूपी होता है वह पुद्गल द्रव्य है । पुद्गल का जीव के साथ तादात्म्य मानने पर जीव के मुक्त होने पर पुद्गल ही मुक्त हो गया―यह सिद्ध हुआ । मोही जीवों ने शरीर, धन, पुत्र, कलत्र, कुटुंब, मकान, जायदाद को अपनी मान ली है । मोही जीव के अगर यह बात पैदा हो जाये कि शरीर भी अपना नहीं, मैंने व्यर्थ में शरीर को आत्मा मान लिया है । शरीर को अपना मानने से रूपी मानते ही थे । कुछ ज्ञान होने पर इस जीव को यह समझ में आया कि संसारावस्था में ही जीव रूपी था । जीव का स्वभाव रूप, रस, गंध एवं वर्ण से रहित है । यह उसका रंचमात्र भी नहीं है । जीव में प्रधान तत्त्व चित्स्वरूप आत्मा है ।
241. जैनशासन की विवेकी जगत को देन―हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्याग अन्य धर्मों में कहा है, तथा जैन धर्म में भी कहा है तब इसमें ऐसी क्या विशेषता जो जैन धर्म को प्राणपण से पालन करें तथा अन्य धर्मों से मन को हटा लेवें । अब अगर ऐसी बात है कि अन्य कोई विशेषता नहीं तो जिसका जहाँ मन चाहेगा उसे पालन करेगा । अन्य मनुष्य कहने में भी नहीं चूकते, वे तो सब धर्मों को समान कहते हैं, उन्हें परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं, फिर भी भोले प्राणी तो सरल मार्ग पर शीघ्र चल पड़ते हैं । कठिनाइयों से बचने वाला जीव सरलता से जीवनयापन करने में खुश होकर सुख मानता है । वह सोचता है बंधन जितने हटे उतना अच्छा, पर वहाँ इन सबकी मूल में ही भूल है । ऐसे भोले जीव धर्म के स्वरूप को नहीं समझे । यथार्थ में वस्तुस्वरूप को यथार्थ जानना धर्म है । जैन धर्म में वस्तु का स्वरूप यथार्थ दर्शाया है यही विशेषता है । तो जितने तत्त्व हैं वह सब सत् हैं । प्रत्येक द्रव्य स्वतःसिद्ध है और स्वयं सत् है तथा प्रत्येक द्रव्य अविभाज्य है । पहले कुछ नहीं था और नया द्रव्य कहीं से पैदा हो जाये यह बात नहीं है, यह पूर्णतया भूल से भरा रास्ता है । अगर ईश्वर ने जगत को बनाया तो उसके बनाने के पहले क्या था? कोई कहेगा आकाश था, वह भी किसने बनाया? वह कहते हैं ― ईश्वर ने इच्छा मात्र से बनाया है, ईश्वर ने ही अपने उपादान से विकसित होकर जगत का निर्माण किया या अन्य पदार्थ का उपादान बनकर जगत का निर्माण किया, तब तो संपूर्ण जगत ईश्वरमय हो गया । फिर चेतन अचेतन सभी वस्तुयें ईश्वर के स्वरूप के अनुरूप होना चाहिये । यदि इनका उपादान ईश्वर नहीं तो जिन तत्त्वों से सृष्टि की वे तत्त्व पहिले से ही थे, उनका विशेष रूप बना दिया होगा । अगर ऐसा कहोगे तो प्रत्येक वस्तु का स्वतःसिद्ध होना अनिवार्य हो गया, जबकि प्रत्येक द्रव्य अलग-अलग है, सब द्रव्य स्वतःसिद्ध हैं, पर्याय को ही जो द्रव्य मानते हैं तब उसका पलटना नहीं होना चाहिए था, किंतु प्रत्येक द्रव्य क्षण-क्षण में परिणमन कर रहे हैं । कोई द्रव्य किसी अन्य को निमित्त पाकर भी परिणामी हो जाये तो वह भी स्वतःसिद्ध हुआ । आत्मा स्वतःसिद्ध है, स्वत:परिणामी है उसमें अन्य की सहायता की जरूरत नहीं है । अतएव बनना, बिगड़ना और बना रहना तीनों बातें सिद्ध होती हैं ।
242. आत्मा की चिद्रूपता का प्रत्यय―आप हम सब एक-एक पदार्थ हैं, बनते, बिगड़ते और बने रहते हैं । मनुष्य बन गये, पशु बिगड़ गये, आत्मा वही बनी है । जो बनता है वह पर्याय बनती है तथा पूर्व की पर्याय बिगड़ती है, जीव वही रहता है । आत्मा में वर्णादिक का तादात्म्य नहीं होता है । जीव सदैव अजर अमर है । कर्म मूर्त हैं और आत्मा अमूर्त है । आत्मा को छोड़कर कर्म अलग रहते नहीं हैं । किंतु इस दृष्टि को छोड़ आत्मा को तत्त्व की दृष्टि से देखना चाहिए । दोनों का निमित्तनैमित्तिक संबंध है । एक समय को भी आत्मा रूपी नहीं बनता है । भूल से भी मान बैठो तो स्वभाव का कहना है, यह मैं कभी भी अन्य रूप नहीं होता । खेल तो देखो, स्वभाव तो अन्य रूप बनता नहीं किंतु मोही जीव अपने को रूपी मानता रहता है । यह तो वैसा है जैसा सभी ज्ञानी जान सकें । जैसे पुरुष कैसा है, क्या वह किसी का बाप है? क्या वह किसी का पुत्र है? वह तो जैसा है वैसे सभी जानेंगे । एक स्थान पर अनेक देश के आदमी इकट्ठे किये जायें वे जैसा इसे देखें सो सही, सब एक-सा देखेंगे । और एक दूसरे का रिश्ता जानने या नाम जानने को कोई भी कुछ नहीं बता सकेगा जब तक उसको दूसरे व्यक्ति के द्वारा परिचय न मिल जावे । बात यह है कि अन्य बात तो कल्पित है । नाटक में किसी मध्य को राजा बना दिया जाये तो वह अपने को वैसा ही अनुभव करने लगती है । जैन धर्म में स्याद्वाद का वर्णन है वही वस्तु स्वरूप है और वही अनेकांत का निर्देशक है । जीव उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त होकर संसार में रहता हुआ स्वभाव में अंतर नहीं आता है । मां अपने बच्चे को पीटती भी है किंतु क्या उसके प्यार करने के स्वभाव में अंतर आता है? नहीं, सद्गुणों को लाने के लिये माँ बच्चे को ताड़ित करती है । वैसे ही आत्मा अनेक पर्यायों में भटककर तथा अनेक रूप धारण कर भी निज स्वभाव नहीं छोड़ता । स्वभाव हमारा सदा से रक्षा करता आया है, वह कभी भी अन्यरूप नहीं हुआ हमने पर्याय से चाहे कुछ भी ऊधम किया । यह मोही परवस्तु रूप भी अपने को मान बैठा था, वह परवस्तु रूप संसारावस्था में भी नहीं है । पुद्गल को छोड़ अन्य द्रव्यों में न पाया जाये वह तो रूपित्व है । जो-जो रूपी है वह जानता नहीं । आत्मा सदा जानता है । वह संसारावस्था में स्व-हितैषी है । चार्वाक अर्थात् सुंदर लगने वाला वचन जिसका है या जिसकी वार्ता मन को मोहित कर लेवे उसके सिद्धांत पर चलने को अधिक मात्रा में तैयार हो जावे तथा जब तक जीओ तब तक अन्याय करके भी मौज करो, क्योंकि यहाँ आत्मा का अभाव मान लिया है । तब तो उन्हें परलोक से कोई प्रयोजन नहीं रहा कि जब चार्वाक भी मरते हैं तो वह पाँच तत्त्वों से यह नहीं कहते कि पृथ्वी पृथ्वी में समावे, वायु वायु में, अग्नि अग्नि में, जल जल में समावे । यह सब न होकर प्राणों को बचाने के लाले पड़ते हैं । सब इंद्रियों को संयमित करके जो-जो अनुभव में आता है वह परमात्मा का तत्त्व है । स्वानुभव ज्ञान और चारित्र दोनों के द्वारा वह साध्य है । स्वानुभव का उपाय चारित्र है । इस चारित्र के द्वारा अंतरंग की बात साध्य है ।
243. देही को जीव मानने का ईषत् प्रयोजन―वर्णादिक जीव में नहीं हैं, कल्पना से मान लिया है । कल्पना से कुछ भी मान लो―एक लाख रुपये की हवेली बनवाकर कहते हैं यह मेरी है । सफाई करने वाला भंगी भी उसे अपनी कहता है । यथार्थ में दोनों की नहीं । कल्पना से तीन लोक के राज्य को भी अपना कहो वह अपना नहीं, अपनी वह वस्तु है जो सदैव अपने पास रहे । कल्पना की थकान होने पर गद्दे तकिये भी आराम नहीं देते । ज्ञान का आराम पाने पर कंकड़-पत्थर पर सोकर भी आराम मिलेगा । यह वार्ता चल रही है कि जीव के वर्णादिक नही हैं । मुक्तावस्था में भी नहीं हैं । संसारावस्था में भी वर्णादिक नहीं हैं । वर्णादिक तो पुदगल में पाये जाते हैं । क्योंकि वह रूप रस गंध वर्ण से सहित होता है । प्रश्न होता है एक इंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पंचेंद्रिय तो जीव हैं तथा यह पर्याप्त व अपर्याप्त भी होते हैं । संसारी दो तरह के होते हैं― (1) त्रस, (2) स्थावर । यह जीव है । मुख्य प्रश्न है, प्रकरण चल रहा है अध्यात्म का, चूँकि जीव तो एक चेतना मात्र है । जिस स्वरूप जीव है वह शुद्ध है, शरीर से रहित है । शरीर उसका साथी नहीं तो उसको मारो काटो छेदो उसका अपराध क्या? इस पर उत्तर देते हैं ― यह नहीं कहना चाहिए, कारण जब तक जीव संसारावस्था में रहता है तब तक शरीर नियम से होगा, मुक्त होने पर नहीं रहेगा । व्यवहार से ये सब एकेंद्रियादिक जीव हैं । इनके विरोध, विरोध की प्रवृत्ति होने पर अपराध होता ही है । यहाँ शुद्ध स्वरूप का वर्णन है इसलिये ऐसा कहा गया है कि निश्चयनय से चेतना मात्र जीव है । मारना काटना छेदना की चर्चा उठने से जीव की द्रव्य हिंसा होगी, जो महान अनर्थ होने पर घोर पापबंध अर्थात् दुर्गति का कारण होगा ।
244. इंद्रियरचना―भैया! एकेंद्रियादिक तो जानते ही होंगे सब । एक त्यागी थे जो शास्त्र सभा में प्रश्न कर रहे थे कि जानते हो एक इंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय जीव तक कौन-कौन होते हैं? प्राय: कई जगह शास्त्र सुनते जायेंगे और कहेंगे धन्य हैं महाराज स्वीकृतिरूप सिर हिलाते जायेंगे, कोई कहे समझ में आया कि नहीं तो हाँ के अतिरिक्त अन्य उत्तर नहीं देंगे । त्यागीजी ने पूछा पंच इंद्रिय जीव किसे कहते हैं तो उत्तर मिला हाथी को क्योंकि उसके चार पैर होते हैं और पांचवी सूँड होती है । तथा चार इंद्रिय? घोड़े को क्योंकि उसके चार पैर होते हैं । सूंड नदारद है । तीन इंद्रिय जीव? (तिपाई) के लिए जो दांय का अनाज उड़ाते समय काम में आती या गाय भैस लगाते समय काम आती है । दो इंद्रिय जीव हम हैं। क्यों ? हम और हमारी स्त्री दोनों है लड़के बच्चे नहीं हैं, अत: दो इंद्रिय हैं तथा एक इंद्रिय जीव किसे कहते हैं ? उत्तर मिला महाराज जी एक-इंद्रिय जीव आप हैं क्योंकि आप अकेले ही हैं । इस तरह कुछ श्रोता इसी धुन के होते हैं । खोजने पर यहाँ वहाँ मिल जायेंगे । सही तरीके से एक इंद्रिय जीव आदि इस तरह हैं―एकेंद्रिय जीव; जिसके केवल स्पर्शन इंद्रिय हो । जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति (वृक्ष आदि) । दो इंद्रिय जिसके स्पर्शन और रसना ये दो इंद्रियाँ हों । जैसे लट, केचुआ, कौड़ी, शंख । तीन इंद्रिय जिसके घ्राण व पूर्व की दो इंद्रियाँ हों । जैसे चिंऊटी, चींटा, बिच्छू, तिरूला । चार इंद्रियाँ जिसके पहले तीन इंद्रिय के साथ चक्षु और हो जैसे भ्रमर, बर्र, मक्खी । पाँच इंद्रिय पूर्व की चार इंद्रियों के अतिरिक्त कर्ण भी हो । जैसे मनुष्य, गाय, भैंस, बकरी, सर्प, आदि । इनकी बनावट क्रम से है । शरीर में या सभी जगह स्पर्शन इंद्रिय, रसना उसके बाद तथा उसके ऊपर घ्राण, बाद में चक्षु तथा उसके पश्चात् कर्ण की रचना है । इन इंद्रिय वालों के विषय में शिष्य की शंका थी ना उस पर कहा जा रहा है । कर्म सिद्धांत की प्रकृतियों में, एकेंद्रिय प्रकृति, दो इंद्रिय प्रकृति, तीन इंद्रिय प्रकृति, चार इंद्रिय प्रकृति पर्याप्त प्रकृति और अपर्याप्त प्रकृतियां यह सब पौद᳭गलिक जड़ से उत्पन्न हुई हैं फिर इन्हें जीव क्यों कहते हो ? शरीर है सो जीव नहीं है, अन्य पदार्थ क्या जीव हैं ? जीव चैतन्यशक्ति मात्र है ।
245. अनेक अनुभूतियों चित्स्वरूप की झलक―जब विपत्ति आ पड़े तो अपने को बचाओ अपना कार्य बनाओ यह भी है चैतन्य शक्ति की एक झलक, वस्तुत: मलिन जीव अपना विषय कषाय का ही भाव बना पाते अन्य को क्या करें? काम, क्रोध, लोभ विकार जिसका प्रबल हो वह जीव क्या अन्य को मारेगा, पीटेगा? कषाय पैदा हुई और उसमें बह गया इतना ही किये, कोई उपाय से विषय कषाय कम नहीं होती । बातूनी भेद विज्ञान से भी नहीं घटती । विषय कषाय तत्त्व के निर्णय से पलायमान होते हैं । चोरों ने पशु चुरा लिये, सबेरा होने पर पशु भाग गये, चोर वैसे ही रह जाते हैं । उस तरह विषय कषायों ने तत्त्व को चुरा लिया है । चोर किसी घर में घुसा और उस घर में अगर कोई बुढ़िया हुई तो उसके खाँसने से जैसे चोर भाग जाते हैं, उसी तरह तत्त्व ज्ञान से सजग रहने वाले मनुष्य के पास से विषय कषाय रूपी चोर आहट पाते ही रफूचक्कर हो जाते हैं । चोरों को प्राण बचाने के लिए दरवाजा खोजना जरूरी हो जाता है, उसी प्रकार विषय कषायों के विकारों के परमाणुओं को अपना स्थान अन्यत्र खोजने की आपत्ति आती है । अग्नि हाथ पर रखने से अपना ही हाथ जलता है उसी तरह क्रोध से अपना सर्वांग नुक्सान होता है । मान करने वाले का अपमान ही होता है तथा घमंडी माना जाने से अन्य मनुष्य व्यवहार तक भी नहीं रखते । लोभी की दशा तो किसी से छिपी ही नहीं, जो कि अपने धन का स्वयं न भोग कर सकता है और न दान दे सकता है तथा दूसरे ही उस पर ऐश करते हैं एवं लोक में कंजूस, लोभी आदि उपनामों से पुकारा जाता है । मरते समय विषयों के छोड़ने का दु:ख होता है । नेतागिरी, इज्जत, कीर्ति आदि यहीं रही जा रही है, स्त्री पुत्र आदि कोई साथ नहीं दे पा रहा, इसका दुःख मात्र पल्ले पड़कर रह जाता है । स्वतंत्रता का बोध हो जाये तो सोचे यहाँ से मरने के पश्चात् अन्य स्थान पर अपना अनुभव करूँगा, पर-पदार्थ तो मेरे हैं नहीं उन्हें अपना मान कर मैं क्यों दुखित होऊं? जो अपने को मरने का अनुभव न करे सो अमर, वृद्धावस्था का अनुभव न करो सो अजर । जो अपने को मनुष्य अनुभव करे सो मनुष्य और मनुष्य अनुभव न करके निजस्वरूप भावना करे सो शुद्ध चैतन्यमात्र परमात्म तत्त्व है ।
246. आंतरिक टटोल―यहाँ मुख्य बात यह चल रही है कि एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक एवं पर्याप्त प्रकृति तथा अपर्याप्त प्रकृति से और जड़ से जो रचा गया उसे चैतन्य कैसे कहते हो? द्वंद्व अर्थात् दो से जकड़ा गया ऐसे द्वंद्व में पड़े हुओं के लिये आचार्य की परम करुणा हुई है, अगर एक ही रहते तो सुखी रहते । दो का ही नाम संयोग है तथा जहाँ संयोग है वहाँ दुःख है । जो भी आकुलता में है उसे समझना चाहिए यह परपदार्थ ग्रस्त है या उसे अपना समझ लिया है । आसक्ति हुई तब इंद्र में पड़ गये न देखने में आय है अकेले स्त्री होने पर वह कभी-कभी सुख से जीवन व्यतीत करती है किंतु जब किसी बालक को गोद ले लेती है तो सारी जायदाद तक बर्बाद हो जाती है और रोटी तक को तरसना पड़ता है । इस द्वंद्व में जो पड़ा है वह द्वंद्व में है और इसमें जो नहीं है वह द्वंद्व में नहीं है । अन्यत्र भी कल्पना कितनी ऊंची है? रावण को जीतने के लिए रामचंद्रजी जब गये तो साथ में वानरों की सेना ले गये । उन्होंने समुद्र को लाँघ लिया था उससे रहस्य निकालो । बानरों ने समुद्र लांघा ही था किंतु यह तो नहीं जाना था कि इसकी तह में कितने-कितने श्रेष्ठ रत्न हैं । इसी तरह हम शास्त्रों को पढ़ लिख गये पर यदि यह नहीं समझते कि इनमें कितना तत्त्वरूपी रत्न भरा है तो हम शास्त्रों को लांघ मात्र गये, असली रहस्य उन्हीं में भरा रहा । तत्त्व जानने वाले को निंदा एवं प्रतिकूलता से घबड़ाहट नहीं होती । उन रत्नों को अंतश्चारित्र से टटोलें ।
247. संसारावस्था में जीव को वर्णादिमय मानने की शंका व समाधान―शंकाकार के अभिप्राय से यह बात कही गयी थी कि जीव संसार अवस्था में तो वर्णादिमय हो जायेगा, मुक्त अवस्था में वर्णादिमय न रहेगा । यहां जीव के विशुद्ध स्वरूप का वर्णन करते समय एक ही जीव स्वीकार किया गया था जिसका सर्वस्व सार चैतन्यशक्ति से व्याप्त है अर्थात् चित्स्वरूप मात्र । अनादि अनंत सहज चैतन्यभाव इसको जीव कहा है । इसके अतिरिक्त जो भी परभाव हैं, परपदार्थ हैं वे सब अजीव हैं । चैतन्यभाव से अतिरिक्त जो रागादिक भाव हैं वे भी अजीव हैं, अर्थात् जीव नहीं हैं । तब जीव में वर्णादिक तो क्या संभव होंगे? इस पर शंकाकार ने यह सम्मति दी कि जीव के वर्णादिक संसार अवस्था में तो मान लो मुक्त अवस्था में मत मानो । उसके उत्तर में कह रहे हैं कि यदि संसार अवस्था में रहने वाले जीवों के तुम्हारे अभिप्राय से वर्णादिक मान लिये जायें तो इसका अर्थ कम से कम इतना तो हो ही जायेगा कि संसारी जीव रूपी होते हैं । जब संसारी अवस्था में जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य संबंध मान लिया तो संसारी जीव तो रूपी बन गए और जो-जो रूपी होते हैं वे कहलाते हैं पुद्गल । तो तुम्हारे लक्षण के अनुसार ये जीव पुद्गल द्रव्य कहलाते हैं । संसार में तो रहा पुद्गल और पुद्गल का मोक्ष हो गया सो बन गया जीव । कुछ ऐसी बात बन पड़ेगी । तब फिर पुद्गल का निर्वाण हुआ और वह जीव बन गया तो अर्थ क्या निकला कि अब यह पुद्गल जीवत्व को प्राप्त हो गया । जो-जो कुछ रूपी माने गए हैं वे पुदगल ही हैं । तो संसार अवस्था में जीव रूपी मान लिया जाये तो संसार में यह पुद्गल है और फिर पुद्गल को मोक्ष हुआ । साथ ही जिसका द्रव्य से तादात्म्य संबंध होता वह तो द्रव्य से कभी छूटता ही नहीं । तो मोक्ष क्या हुआ? जीव नामक कोई पदार्थ ही नहीं रहा । तो जीव का मोक्ष ही क्या? इससे मानना चाहिये कि वर्णादिक भाव जीव के नहीं हैं । यद्यपि इस संसार अवस्था में कितनी विकट विडंबना हो रही है, शरीर में विकट बंधे है तभी तो शरीर से निराला ज्ञानमात्र स्वरूप उपयोग में रहे, भिन्न निराला दिखे और शरीर से इसका कोई प्रतिबंध न रहे, यह सब हो कहाँ पा रहा इस समय? शरीर का ऐसा विकट बंधन है कि शरीर के साथ यह जीव चले, जीव के साथ शरीर चले । इतने विकट बंधन में भी जीव में वर्णादिक नहीं लग सकते । यह सब निमित्त-नैमित्तिक भावों से बंधन पड़ गया, फिर भी जीव में पुद्गल का गुण नहीं बसा ।
248. चैतन्यस्वरूप आत्मप्रतीति करने की शिक्षा―इस प्रकरण से हमें क्या शिक्षा मिलती कि हम अपने को अचलित चैतन्यस्वरूप मानें । इसके हठी बनें, इसके आग्रही बनें । चाहे कितनी ही विकट परिस्थिति हो, मैं तो चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ । आकुलताओं का निर्माण कब होता है जब हम चैतन्यस्वरूप मात्र अपनी दृष्टि से चिग जाते हैं । हूँ मैं अकिंचन । मेरे में मैं ही हूँ, मेरे से अतिरिक्त मेरे में अन्य कुछ नहीं है, पर इस अकिंचनता को छोड़कर जब हम दृष्टि में कुछ बनते हैं, बड़ी पोजीशन वाले, नाम वाले, जब हम बनते हैं बस वहाँ से क्लेश शुरू हो जाता है । आखिर जब भी निर्वाण होगा, जब भी परम शांति प्राप्त होगी तो इस ही उपाय से होगी । पर को पर जानकर, निज को स्व समझकर पर से हटें और अपने में उपयुक्त होवें । यही उपाय जब भी बन पायेगा तो हमारा निर्वाण निकट होगा । तब इसी दृष्टि से चलें ना अपने में । एक दृढ़ निर्णय और संकल्प के साथ चलें तो हमें शांति प्राप्त होगी । शांति का उपाय किसी परपदार्थ का संचय नहीं हो सकता । प्रथम तो परपदार्थों के संचय की बुद्धि में अज्ञानता बसी है और अज्ञानता से ही क्लेश होता है । फिर दूसरी बात यह है कि परसंचय इच्छानुकूल होता कब है? ऐसा पुण्य किसी में भी नहीं बताया गया कि जिस काल में इच्छा हो उसी काल में भोगोपभोग योग्य वस्तु की प्राप्ति हो । क्योंकि यदि भोग उपभोग है तो उसकी इच्छा क्या? इच्छा किसी बात की तब ही होती है जब वह वस्तु न हो । हुये की इच्छा क्या? तब इच्छा का स्वरूप ही यह कह रहा कि ऐसा पुण्यवान जगत में कोई नहीं है जिसकी इच्छा की तुरंत पूर्ति हो जाये । बड़े-बड़े चक्रवर्ती पुण्यवान तीर्थंकर जैसे महापुरुषों के भी जिस काल में इच्छा है उसी क्षण में उसकी पूर्ति नहीं है । अगर इच्छा के विषयभूत पदार्थ उपलब्ध हों तो तत्संबंधी इच्छा बन नहीं सकती । एक तो यह सिद्धांत के अनुसार बात कही जा रही है और फिर इच्छा के बाद कितना ही समय गुजर जाता तब उसकी पूर्ति होती है । तो दु:ख मात्र इच्छा है । इच्छा का विनाश कैसे हो ? इसका उपाय निकाला―चीजों को छोड़कर भागना, त्यागना, यद्यपि यह भी एक सहायक है । इच्छा का नोकर्म न रहे तो इच्छा के बनने में दिक्कत आती है । क्योंकि इच्छा के दूर करने का यह मौलिक उपाय नहीं है । मौलिक उपाय क्या है ? यह विदित हो जाये कि इच्छा तो मेरे स्वरूप में है ही नहीं । यह तो विकार है, औपाधिक है । इच्छा बनेगी पर इच्छा मेरे स्वभाव में नहीं है । मैं तो अपने स्वरूप मात्र हूं, अपने आपका होना, होते रहना इतना ही मात्र हूं, इच्छारूप नहीं हूं । केवल एक चेतना चैतन्यप्रतिभास इतना ही मात्र मैं हूं । अविकार चैतन्यस्वभाव की प्रतीति होने पर और इसको ही अपनाने पर जीव को इच्छा दूर करने का मार्ग मिलता हे । भीतर में उपयोगी की श्रद्धा में यह बात जब ही बैठ जायेगी कि मैं तो विकाररहित, इच्छारहित एक चैतन्य प्रतिभासमात्र हूं, तो इसको न यह इच्छा होगी कि लोग मुझे कुछ समझें, न इस जगत में बड़ा बनने की इच्छा होगी कि लोग मुझे कुछ बड़ा जान जायें । इसका तो यह भाव रहेगा कि जैसा यह मैं सहज हूं वैसा ही मैं अपने उपयोग में रहा करूं इसके अतिरिक्त उसके मौलिक कोई चाह नहीं है । यों तो ज्ञानी पुरुष भी जब तक शरीर में रह रहा है, गृहस्थी में बस रहा है, भूख प्यास की बाधाओं में चल रहा है तब तक वह कुछ इसकी ओर भी उपयोग देगा लेकिन श्रद्धा में यही बात समायी रहती है कि मैं विकाररहित, क्षुधा आदिक दोषों से रहित, शरीर से रहित केवल चैतन्यमात्र हूं ।
249. निज की प्रतीति का बल―निज की प्रतीति में इतना महान बल पड़ा है, उस ज्ञानी में ऐसा साहस है कि मैं अनादि से रुलता चला आया तो क्या भव-भव में बंधे हुए कर्म मेरे साथ लगे हैं ? जो ये सारे के सारे संकट एक ज्ञानमात्र दर्शन से अनुभव से कट जाते हैं । निर्लेपता का स्वभाव ज्ञानी में आ जाता है । जैसे स्वर्ण कीच में भी पड़ा हो तो सुवर्ण का स्वभाव कीचड़ को अंगेजता नहीं है अर्थात् स्वर्ण में जंग नहीं चढ़ती और लोहे में कीचड़ को अंगेजने का स्वभाव पड़ा है । जरा सी शीतल हवा लगे, कुछ कारणकलाप जुटे कि जंग लग जाती है । तो अज्ञानी जीव में तो पर को अपनाने की प्रकृति पड़ी है और ज्ञानी जीव में पर से दूर हटे रहने का स्वभाव आ गया है । उसे तो यह लोक अपरिचित विदित होता है । वे ही मनुष्य, वे ही मित्र, वे ही कुटुंबी जिनमें ये जन्म से रच-पच रहे थे तब तो बड़ा परिचय मान रहे थे, उसी पुरुष को जब तत्त्वज्ञान का उदय होता है तो उसे ये सब अपरिचित से लगने लगते हैं । कहां है मेरा कोई, कौन जीव मेरा है ? क्या कर सकेगा कोई मेरा ? वस्तुस्वरूप जब समझ में आया कि यह अभेद्य है, किसी वस्तु का गुण दूसरे में नहीं पहुंचता, किसी की परिणति दूसरे में नहीं पहुंचती, तब फिर क्या है? यह मैं कृतार्थ हूँ । मुझे पर के करने में क्या रखा है? पर में कुछ किया ही नहीं जा सकता । वैसे तो अनादिकाल से लेकर अब तक भी मैंने पर में कुछ नहीं किया, विकल्प मचाता रहा, पर को करने का विकल्प तो करता रहा, पर किसी भी अन्य वस्तु को मैं कर नहीं कर सका । कैसे कर लें? वस्तुस्वरूप तो अनादि से ज्यों का त्यों सबमें व्यवस्थित है । तो जब भी ज्ञान का उदय होता है और इस ज्ञान के प्रयोग में, उपयोग में विशुद्ध आनंद का अनुभव करता है तब उसे आत्मा ही प्रिय हो जाता है, अनात्म-तत्त्व में प्रेम नहीं जाता । तब इच्छा कैसे हो! इच्छा न हुई तो बाधायें सब दूर हो गईं । तो ऐसे जीव का स्वरूप जिस ज्ञानी को अनुभूत हुआ है उसका यह निर्णय है कि रागादिक अध्यवसान भी मेरे नहीं हैं, तब वर्णादिक जिनका कि उपादान पुद्गल हैं वे मेरे कैसे हो सकते हैं?
250. मोह में इंद्रिय अनिंद्रिय के दुरुपयोग की प्रकृति―कुछ भाषाविद्वान लोग मानते हैं यह विश्व प्रकृति से रचा गया है । प्रकृति से अहंकार, अहंकार से गण, गण से इंद्रियाँ, इंद्रियों से पंचभूत । उनका प्रयोजन क्या है कि यह बताना कि दृश्यमान यह जीव नहीं है । पढ़ लिखकर अधिक ज्ञान बढ़ावें, समझने के साथ मनन करें । अज्ञानी पढ़ लिख कर भी दुःख सहकर भी उन्हीं में फिर से पड़ जाता है । स्त्री मर गई तो दूसरी शादी कर ली, फिर भी दोनो के रहने पर कुछ समय बाद दो में से एक कोई पहले मरण को प्राप्त होगा, उनमें से किसी एक को पहले रोना पड़ेगा । संयोग समागम का फल रोना ही है । ऐसे में अपना हित नहीं सोचते तो फिर क्या किया जायेगा (अंतरंग पीड़ा के साथ सचेत करते हुए), शब्द बोलते तो वाक्य बना, वाक्यों के द्वारा एक दूसरे की भाषा आपस में समझने लगे । इस जीभ से सत्य वचन बोल लेने या असत्य वचनों का प्रयोग कर लेवे । जीभ तो एक ही है । हाथों से दान दे लेवे, जिनेंद्रदेव की अर्चना कर लेवे या इन्हीं हाथों से दूसरे को बांध लेवे । नाक तो व्यर्थ की वस्तु प्रतीत होती है । कितनों की तो नाक पर ही झगड़ा चल जाते तथा जड़ मूल तक से उसे हटाने को कोई मनुष्य तैयार हो जाते हैं । नाक के द्वारा सुगंध दुर्गंध के विकल्प जाल में फंसकर कुछ कार्य करने से कर्तव्य विमुख हो जाता है । आंख से सिनेमा, स्त्री पुत्र देख सकता है या शिमला गया तो वायसराय की कोठी देख ली । और चाहे तो मंदिर जावे वहाँ जिनबिंब आदि के दर्शन कर ले । कानों के द्वारा या तो फड़कते हुए गाने सुन सकता है या तत्त्ववार्ता सुन सकता है । जिसके देखने सुनने, चखने, कहने, स्वाद लेने या, देने लेने में मोह राग द्वेष है उसे कुछ भी अच्छा प्रतीत हुआ यह सब उन् इंद्रियों का दुरुपयोग करना है । देव शास्त्र, गुरु की सेवा करने, तत्त्व समझमें में इन्हीं इंद्रियों को संलग्न किया जाये तो सदुपयोग करना कह सकते हैं । और तात्विक बात तो यह है कि सर्वोत्तम तो इंद्रियों से अतीत चैतन्यमात्र की दृष्टि है ।
251. सुंदरता की पोल―जिन्हें कोई सुंदर कहता है वे सब क्या हैं? सो सुंदर शब्द स्वयं ही बता देता है । सुंदर शब्द में सु+उंद+अर=सु प्रत्यय है, उंदी क्लेदने धातु है जो भले प्रकार से तड़फा-तड़फा कर दुःख पहुंचावे यह सुंदर शब्द का अर्थ हुआ । इष्ट समागम मिलने पर कहता है, बड़ी सुंदर घड़ी है, मेज है, मकान है अर्थात् उन पदार्थों के द्वारा खूब तड़फो । पदार्थ को इष्ट अनिष्ट माने सुख दुःख होता । यह विकार स्वभाव का विस्तार नहीं है । अपना जो चैतन्य है उसका अनुभव किया जाये । होगा वहाँ स्वभाव विस्तार निरुपद्रव तत्त्व को निश्चिंत होकर अंतरंग में स्थान दिया जावे, जब तक चित्त में विकार व विकल्प बहुलता नहीं होती तब तक तो साता व सौम्यता रहती और जब कोई विषयविकृत कल्पना जागी कि साता व सौम्यता विदा मांग लेती, किसी सभा में अगर फलानेचंद को सभापति बनाने का प्रस्ताव किया जाये तो वह उस पद पर आसीन होकर अनुशासन करने के लिए अकड़ कर बैठेंगे या अति नम्रता दिखावेंगे, यह अंतर अपने को सभापति मानने से आ । बच्चा छोटा होने पर बड़ा होता है, शादी होती है, बाल बच्चों वाला होता है । यौवन में धनादि कमाने में दत्तचित्त रहता है । एक व्यक्ति शादी के पूर्व खेलते मां से मांगकर खाते थे, मां से उचित विनय करते एवं निर्भीक हो बात करते थे किंतु शादी होने पर लड़की वाली माँ के दामाद बन गये, तब खाते समय नहीं-नहीं करेंगे भोज्य सामग्री लेने में, ढंग से बैठेंगे, सीमित बात करेंगे । यह परिवर्तन कहां से आ गया, पूर्व के रंग ढंग क्यों तबदील हो गये, यह सब विकल्पों का खेल है । यह बात मन में आ गई मैं दामाद हूं वे अपने को कुछ से कुछ अनुभव करने लगते हैं । लेकिन परपदार्थ के सुधार करने का मैं क्या हकदार हूँ अपना स्व का हित किया जाये तो संसारसमुद्र से निकलने का मार्ग मिले । अन्यथा अनादिकाल से भटकता हुआ मोक्षमार्ग को भूल रहा है । कवि की पंक्ति क्या ही रोचक है । “भ्रमते अनादि काल, भूलो शिव गैलवा”―क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकार में फंस कर मैं अपनी निज स्वरूप की संपत्ति क्यों गमाऊं? अगर यह विचार पूर्ण रीति से बैठ जाये तो कौन जीव अपने को विषयों में फंसाना अच्छा मानेगा?
प्रकरण यह चल रहा है, इंद्रियां जो है उनका निर्माण जीव से नहीं है किंतु वे पुद्गल से निर्मित हैं । एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय पर्यंत शरीर रचना अपने ही आधीन है । सर्प कुंडली बनाये जंगल में पड़ा है, वही चलने के लिए सीधा हो जाता है । तो यहाँ कर्ता कर्म करण वही सर्प हुआ । निश्चय से कर्म और करण एक होते हैं । सर्प की कुंडली सर्प के द्वारा ही बनी । पुद्गल से जो बनेगा वह पुद्गल और जड़ ही रहेगा । जिसके द्वारा जो वस्तु बनेगी वह उसी रूप रहेगी । सुवर्ण के द्वारा बने गहने सुवर्ण ही रहेंगे, उनमें चांदी की कल्पना नहीं की जा सकती । इसी तरह जीवस्थान हैं ।