वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 61
From जैनकोष
तत्थभवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी ।
संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई ।।61।।
225. जीव के वर्णादिमत्त्व के संबंध में शंका व समाधान―शंकाकार कहता है कि जब तक भव लगा है जीव के संसार में शरीर धारण कर रहा है तब तक तो संसार अवस्था में भी जीव के साथ वर्णादिक का तादात्म्य मान लेना चाहिये । हाँ जब संसार से छूट जायेगा यह जीव, शरीररहित हो जायेगा तब ये वर्णादिक कोई न रहेंगे, किंतु जब तक संसार अवस्था है तब तक तो जीव के साथ वर्णादिक का तादात्म्य संबंध मान लेना चाहिये । शंका तो उसकी है । पर शंका निर्मूल है । तादात्म्य संबंध वहाँ हुआ करता है जहाँ जिसकी सारी अवस्था में जो जिस रूप से रह सकता है । और जिस किसी अवस्था में जिस रूप से नहीं रह सकते उसका तो तादात्म्य संबंध नहीं माना जाता है । यदि पुद्गल की भाँति जैसे कि पुद्गल में वर्ण का तादात्म्य संबंध सदा है, चाहे इसकी कुछ भी पर्याय हो, स्कंध को छोड़कर परमाणु भी बन जाये तो परमाणु अवस्था में भी वर्णादिक का संबंध है, तो कहा जा सकता है कि पुद्गल के साथ वर्ण आदिक का तादात्म्य है, लेकिन यहाँ जीव में तो संसार अवस्था से जब तक कि शरीर के साथ संबंध है, किसी दृष्टि से वर्णादिक से साथ तादात्म्य हो रहा है लेकिन मोक्ष अवस्था में तो वर्णादिक के साथ किसी भी प्रकार संबंध नहीं है तो जीव का वर्ण के साथ तादात्म्य नहीं माना जा सकता । संसार अवस्था में भी रहकर यह जीव इतना फंसा हुआ, बंधा हुआ रहकर भी जीव कर्म के उदय में नाना रागादिक विकार करता हुआ भी यह जीव जीव के स्वरूप पर जब दृष्टि देता है तो वर्णादिकरूप नहीं है, रागादिक रूप नहीं है । जैसे खूब खौलते हुए पानी में भी जब पानी के स्वरूप पर दृष्टि देते हैं तो पानी गर्म नहीं है उसका ठंडा स्वभाव है । गर्म पानी में भी जब स्वरूप अथवा स्वभाव पूछा जायेगा तो हर एक कोई ठंडा ही कहेगा । तो संसार अवस्था में यद्यपि जीव के साथ पुद्गल उपाधि का संबंध निरंतर लग रहा है तो भी उसके साथ तादात्म्य नहीं है । यदि ऐसा ही दुराग्रह करोगे कि हम तो संसार अवस्था में जीव के साथ वर्णादिक का तादात्म्य ही मानेंगे तो फिर जीव अजीव में भेद क्या रहा?
226. अन्य भाव से जीव के तादात्म्य का अभाव―भगवान कुंदकुंदाचार्य महाराज बतला रहे हैं कि यदि जीव के साथ वर्णादिक का तादात्म्य मान लोगे तो यह दोष होगा कि जीव के वर्णादिक होते तो संसार से मुक्त होने पर वर्णादिक रहना चाहिए, सो बात है नहीं । तब फिर लड़के बच्चे कैसे जीव हो जायेंगे ? परिवार के लोग कुछ भी नहीं कह रहे कि तुम हमारे पीछे मूढ़ बन जाओ । जो सब अवस्थाओं में जिस रूप से व्यापक हो और जिस रूप का कभी भी त्रिकाल में संबंध न छूटे वह जीव का है । ऐसे संबंध को तादात्म्य कहते हैं । संसार अवस्था में तो वर्णादिक देखे जाते हैं, वास्तव में तो सांसारिक अवस्था में भी वर्णादिक जीव के नहीं हैं । व्यवहारत: भी वर्णाद्यात्मकता हर समय रहती हो सो बात नहीं है । जीव के साथ कर्म के संयोग नहीं हैं ऐसा कह सकते हो नहीं । यहाँ किसी भी समय देख लो कर्म नोकर्म का संयोग लगा है, सो संयोग से भी जीव में वर्णादिक नहीं हैं । वस्तु का स्वरूप जब समझा जाये, तब ज्ञात होगा कि प्रत्येक वस्तु एक अपने असाधारण गुण को लिए हुए है, असाधारण गुण अनादि से अनंत तक रहता है । यह जीव अपने लिए शरीर से भिन्न सुख से भी नहीं कहता । अग्नि के साथ शरीर भस्म हो जायेगा । अगर उसमें सारभूत बात होवे तो प्रेम करो । घृणा पैदा करने वाला मल मूत्र कफ नाक का लुआब, आंखों का कीचड़ एवं कर्ण का मैल निष्कासित होता रहता है । फिर ऐसे अपवित्र शरीर में ममता क्यों? नाक, कान, आँख चेहरे को देखकर अनुभव कर रहे―यही मैं हूँ । शरीर से भिन्न मैं आत्मा चेतना मात्र हूँ ऐसा सोचें तो फिर ममता कैसे रहे? जग में बड़प्पन यही है कि स्वात्मानुभव की प्रतीति हो जाये ।
227. परिग्रहव्यामोह में शांति की असंभवता―जगत में इस क्षणभंगुर शरीर की झूठी इज्जत बढ़ा ली, 4 आदमियों से वाह-2 करा लिया तो क्या वह स्थायी रहेगा? योगी शुद्ध आत्मा का अनुभव करते हैं, आत्मज्योति बढ़ी तब बड़े कहलाये । तीर्थंकर का पुण्य है कि देवियां गर्भ में आने के 6 माह पूर्व से माता की सेवा करती हैं । जन्म समय देव भगवान का अभिषेक करते हैं । गृहस्थावस्था में उतना बड़प्पन था । परिग्रह में रह रहकर किसने सुगति पाई? अपने-अपने घर का खाकर किसने मुक्ति पाई? अन्य का कष्ट न सहना पड़ा और मुक्त हो गये ऐसे उदाहरण विरले हैं । भरत चक्रवर्ती, बाहुबलि बिना अन्य का आहार लिये मुक्त हुए । “फांस तनकसी तन में साले, चाहे लँगोटी की दु:ख भाले ।।” पैसे की थोड़ी भी चाह दु:ख देने वाली है । जैनधर्म तो यही कहता है जहां पूर्ण निष्कलंक परिणाम हो वहाँ आपा पर का भास होता है । अन्य उपाय नहीं है । दुर्लभता से मनुष्यजन्म पाया, वह धर्म साधन के लिए है, उसमें राग द्वेष एवं प्रीति की बात क्या? ये सबके आत्मा में निज शुद्धस्वभाव का घात कर रहे हैं । ये भाव सुहावने लगते हैं पर उनका परिणाम कटुक होता है । जरा-सा विकल्प भी धर्मसाधन नहीं होने देता । विकल्प से न धर्म, न अर्थ और न ही पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, न पालन पोषण है, व्यर्थ में अपना घात करता है । बाहुबलि के मन में यह बात बैठी थी मैंने बड़े भाई का अपमान किया, लगता है बाहुबलि जी बहुत अच्छा सोच रहे थे । पर देखो, शुभ विकल्प हो चाहे अशुभ, वह मोक्ष को रोकता है । धर्म कमाने का उद्देश्य तत्संबंधी उपदेश है । धर्म की चर्चा बड़े पुरुष से करो यह भी तो विकल्प है । आत्मा पर करुणा करो । जिस विकल्प में पड़े उस घेरे से मुक्त होने की कोशिश करो । ज्ञानी मोह को देखकर पश्चाताप करता है तो कुछ ठीक ही है, किंतु मोही अन्य को देखकर कहे यह मोह में कैसे दु:खी हो रहे सो जंगल में तो आग लगी और स्वयं डाल पर बैठकर कहे वह जल गया, अरे वह जल गया, पर अपनी नहीं सोचता कि मैं भी जलूँगा―इसपर बुद्धि नहीं दौड़ती । दूसरे के दुःख को तो कहता है किंतु अपनी मानो पूर्ण सुध ही भूल चुका । कैसा प्रताप है अज्ञान का, जो मुझमें बुद्धि है वह श्रेष्ठ बुद्धि है इससे अधिक नहीं सोचता । डेढ़ आंख का किस्सा हो रहा है । एक आंख अपनी देकर दुनिया की आधी आंख ही मानता है । अपनी वेदना मेटना चाहिए तब दूसरों की पीड़ा अनुभव किया जाये ।
ज्ञानी वह है जो अपने समान सबको समझे । सब प्राणियों को चैतन्यमात्र देखे । चेतना में द्रव्यदृष्टि से कोई अंतर नहीं है । व्यर्थ ही बाहर क्यों दौड़ा? बाहर मैं क्या करूंगा, मैं अपनी क्रिया अंतरंग में ही तो करूंगा । जो मेरी सामर्थ्य में नहीं है ऐसा कार्य क्यों करूं? जो कि भाव मन में बन जाये उसका खेद करना चाहिए ।
228. अहंकार की दुःखमूलता―अभिमान दुःख का मूल है । जो मैंने किया वह ठीक किया, यह व्यर्थ का व्यामोह है । जो कर्तव्य का अभिमान है वही दुःख की निशानी है । शरीर को वृद्ध मत होने दो, शरीर को आत्मा से अलग मत होने दो, यह क्या अपनी शक्ति से कर सकता है? कुछ कर पाता नहीं केवल विकल्प का कर्ता हो रहा है । मनुष्य तीतर को लड़ाकर खुश होता है, कुत्ते, मनुष्यों को, पशुओं को लड़ाकर प्रसन्नता का अनुभव करता है । इसमें विकल्प करके पाप के कर्ता हुए और कुछ कर सके नहीं । मेरा बाकी इसमें कोई संबंध नहीं है । यह चैतन्य पिंड महामोह राजा के आधीन होकर दुःख उठा रहा है । मैं शुद्ध चेतना मात्र हूँ, जानन मात्र हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, प्रतिभास मात्र हूँ । जितना जाननपन है वह तो मैं हूँ इसके अतिरिक्त जो भी विकल्प है वह मैं नहीं हूँ । यद्यपि विकल्प भी उपाधिवश आत्मा में हो रहे हैं तथापि मेरे स्वभाव का विस्तार न लेने से वे सब तरह मैं नहीं हूँ । परिजानन मात्र ही वृत्ति रखी जावे तो निर्विकल्प आत्मा का अनुभव हो लेवे । देह का भान भी न रहे, ऐसी भावना में आत्मा को शांति मिलेगी । परपदार्थों को अपना मानने में कर्म ही बंधेंगे । अब आगे श्रीमत्कुंदकुंददेव यह कहते हैं कि यदि कोई ऐसी ही हठ करे कि जीव का वर्णादिक के साथ तादात्म्य है ही तो इस दुरभिनिवेश होने पर क्या अनिष्टापत्ति आती है―