वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 218
From जैनकोष
सव्वाणं दव्वाणं जो उवयारो हवेइ अण्णोण्णं ।
सो चिय कारण-भावों हवदि हु सहयारि-भावेण ।।218।।
अन्योन्य उपकार में अन्य की बाह्य सहकारीकरणता―जगत् में यह देखा जा रहा है कि एक द्रव्य के निमित्त से दूसरे द्रव्य के काम बन जाते हैं, तो यहाँ जो समस्त द्रव्यों का परस्पर उपकार होता है सो वह सहकारी भाव से कारण भाव है उपादान से नहीं । वस्तु के निज स्वरूप पर दृष्टि दें तब तो वहाँ सिर्फ इतना ही विदित होगा कि वस्तु है और उसमें परिणमने का स्वभाव है सो अपनी योग्यता से अपने में परिणमन करता चला जाता है । कोई इस बीच यदि ऐसा प्रश्न कर दे तो फिर दूसरे पदार्थ की कोई बात न रही तो इस दृष्टि में जबकि केवल एक वस्तु पर ही दृष्टि रखकर कहा जा रहा और कोई जरा छेड़ दे तो उस समय की दृष्टि की धारा के कारण यह उत्तर होगा कि उस समय बाहर के जो द्रव्यों का संबंध है वह निमित्त मात्र है । अब दूसरी दृष्टि में आकर देखें कि किस तरह से ये सब कारणकार्य विधान चल रहे हैं, तो यह सब प्रतिनियत व्यवस्था विदित होती है । केवल इतने मात्र से उत्तर नहीं बनता कि परिणमते हुए पदार्थ के सामने जो चीन हो उसे निमित्तमात्र कहते हैं । केवल इस विधि से बात न बनेगी, क्योंकि यहाँ? प्रतिनियत व्यवस्था देखी जौ रही है ऐसे ही पदार्थ निमित्त हों तब यहाँ ऐसा ही कार्य होता है । यदि इसमें अव्यवस्था होती कि कभी उस पदार्थ के कारण और तरह का कार्य बने कभी और तरह का कार्य बने तब तो यह कहा जाता कि जो सामने था उसे निमित्त कह दे, अथवा इतना भी कहने की जरूरत क्या हैं? लेकिन जब प्रतिनियत व्यवस्था लोक में देखी जा रही है तो कारण और कार्य का सयुक्तिक निर्णय करना पड़ेगा और वह सयुक्तिक निर्णय यही है कि परिणमने वाले पदार्थ की जैसी शक्ति है उस योग्यता के अनुसार अनुकूल बाह्य निमित्त मिल जायें तो वहाँ परिणमन हो जाता है । यह बात दूर जगह घटाते जाइये ।
कारणकार्यविधि के कुछ उदाहरण―गुरु ने शिष्य का उपकार किया उपदेश दिया, और शिष्य में ज्ञान उत्पन्न करने में वह कारण बना, तो वहाँ जो ज्ञान बना ऐसी जो शिष्य में योग्यता थी उस तरह का ज्ञानप्रकाश करते की पात्रता थी तो अंतरंंग कारण तो शिष्य का ही सामर्थ्य रहा । उसके ही कारण उसका ज्ञान बना, पर बहिरंग कारण गुरु का उपदेश आदिक प्रयत्न रहा, क्योंकि वहाँ विकास की योग्यता तो उसके थी और गुरु ने समझाया तो उस प्रसंग में आकर उसने अपनी सामर्थ्य का विकास किया । तो यह प्रतिनियत व्यवस्था है । जैसे घड़ा बना मिट्टी में ही उस मिट्टी में योग्यता थी तो योग्य मिट्टी, कुम्हार का प्रयत्न और उस समय जल आदिक का संयोग या उन साधनों के बीच का प्रसंग पाकर मिट्टी में घड़ा पर्याय बनी । अब उस मिट्टी में घड़ा बनने का सामर्थ था तब ही तो बना । रेत में अथवा अन्य पथरीली मिट्टी में तो घड़ा नहीं बन जाता, जिस मिट्टी घड़ा बनने की योग्यता थी उसी में बना । तो अंतरंग कारण तो उस मिट्टी की योग्यता कही जायगी, जिन-जिन प्रसंगों में बना, वे प्रसंग प्रतिनियत व्यवस्था रखते हैं । कुम्हार प्रतिदिन निःशंक होकर उसी विधि से घड़ा बनाता है, इससे सिद्ध है कि वे सब बहिरंग कारण हैं और नियमित है तो वह मिट्टी अपनी योग्यता से घटरूप बन गई । सर्वत्र ऐसा ही कार्य कारण विधान है । जीव में जो रागद्वेषादिक भाव होते हैं, जितने भी विकल्प होते हैं सो इस जीव में उन विकल्पों के करने का सामर्थ्य है तभी तो विकल्प हुए ।
ये रागद्वेष मोह विकल्प आदि सभी प्रकार के इन विभावों को रच सकने का इस जीव में सामर्थ्य है । तो अंतरंग कारण तो जीव का उपादान कहलाया । पर कर्मोदय के बिना ये बातें नहीं होतीं । उस प्रकार का कर्मोदय हो तो जीव में राग होता, द्वेष होता । तो वहाँ कर्मोदय निमित्त कारण हुआ । और, कर्मोदय निमित्त है, पर कर्म के फल को पाने के लिए बाह्य नोकर्म भी हुआ करते हैं । अगर बाह्य नोकर्म बिल्कुल न रहें तो वह उदय अन्य रूपों में फल देकर चला जाता है । तो इसका नोकर्म है बाह्यपदार्थ अर्थात् बहिरंग सहकारी कारण हैं वे । इसी तरह मित्र, स्त्री, पुत्रादिक, वैभवादिक चेतन अचेत पदार्थ बाह्य आश्रयभूत कारण हैं । हम लोगों के जो राग हुआ करते हैं उनमें उपादान कारण तो हम खुद हैं, निमित्त कारण कर्म का उदय है और आश्रयभूत कारण बहिरंग सहकारी कारणमात्र हैं ये चेतन अचेतन पदार्थ ।
अपने क्लेशों में अपने अपराध की निरख―उस समस्त विवेचनों से यह निर्णय करना कि ये समस्त रागादिक विभाव हमारे दु:ख के कारण हैं, इन दु:खों में अपराध तो हमारा ही मुख्य है। हम चेतते नहीं, असावधान है, या पहले से हमने ऐसा ही खोटा संस्कार रचा है कि हमें दु:खी होना पड़ता है। बड़े से बड़े पुण्यवान जीव भी रागद्वेष से दु:खी हुए। श्री रामचंद्र जी, जिनकी अलौकिक महिमा थी, जो आज भी पुरुषों के द्वारा स्मरण किए जाते हैं उनको भी कर्म का उदय आने पर सीता का वियोग, लक्ष्मण का वियोग आदि अनेक घटनायें जीवन में आयी। तो बड़े-बड़े पुरुषों के भी ये स्थितियां बन जाती हैं। तब यहाँ के इन प्रसंगों में सुख की क्या आशा करना? ये सब गुण स्वप्नवत् विदित हो जाते हैं जब काल गुजरता है। जैसे अब से पहले वर्षों के ही समागम विषय भोग, सुख, मौज ये सब आज स्वप्नवत् लग रहे हैं ना। क्या था, कुछ न था, भ्रम था। तो इसी तरह समझिये कि आज जो कुछ समागम मिल रहे हैं वे सब असार हैं, स्वप्नवत् है। भीतर में आत्मा के ऐसा ज्ञानप्रकाश है कि यदि वह अपने भीतर सम्हाल करे और ज्ञानभाव का स्पर्श कर ले अनुभव कर ले तो इस जीव को अलौकिक अद्भुत आनंद प्राप्त होता है। बाहर में इस जीव का क्या रखा है? सब धोखा है, छल है, भ्रम, बरबादी है। तो ये जितने विभाव होते हैं, ये हमारे बाह्य कारणों के बीच होते हैं तब तो ये मायाजाल हैं, भ्रम हैं, विनश्वर हैं, असार हैं।
निर्विकल्प परिणमन का आदर―केवल कालद्रव्य का निमित्त पाकर अन्य कोई कारण न आये, अपने आपमें जो स्वानुभव का आनंद प्रकट होता है वही सारभूत है। लोग विशेष के लिए ललचाते हैं, यह पुरुष विशेष है, यह काम विशेष हुआ। विशेष-विशेष की तृष्णा रखते हैं, पर ऋषि संतजन कहते हैं कि उस विशेष का व्यामोह छोड़ो, अपने आपका जो अपनी ज्ञानज्योति का अनुभव है, जो इन विकल्पों की अपेक्षा से सामान्यस्वरूप है उसका आदर करो। अज्ञानी जनों को इस आत्मस्वरूप का परिचय नहीं है और इसी कारण जो मुद्रासहित पदार्थ हैं उनमें ही इसकी रुचि बनती है। यह अंतस्तत्त्व कैसे आये अनुभव में, यह शब्दमय तो है नहीं कानों से सुन लिया जाय, कुछ भीतर आवाज समझ ली जाय कि कैसा आत्मा है। आत्मा का रूप तो है नहीं जो आंखों से परख लिया जाय कि आत्मा का काला, पीला आदिक कैसा रूप है? आत्मा गंधवान पदार्थ भी नहीं है जो नासिका द्वारा जाना जा सके। आत्मा में रस भी नहीं है जो रसनाइंद्रिय द्वारा परखा जा सके, और स्पर्शइंद्रिय के द्वारा भी यह आत्मा छूने में नहीं आता। आत्मा में स्निग्ध रूक्ष आदिक भी नहीं है। तो इंद्रियां असफल हैं इस आत्मतत्त्व के समझने में। मन एक भीतरी इंद्रिय है तो यह मन बहुत कुछ आत्मतत्त्व के समझने में सफल तो होता है, पर जिसको कहा गया है आत्मा का साक्षात् दर्शन अनुभव, स्वानुभव, उस समय इस मन का व्यापार नहीं है । यह मन इस आत्मानुभूति के अर्थ बहुत कुछ काम कर लेता है, पर ऐन टाइम जब कि आत्मा का अनुभव हो रहा हो उस समय यह मन छुट्टी पा लेता है, एक अद्भुत अनुभव है आत्मा के ज्ञानस्वरूप का अनुभव करना मन ने बहुत कुछ कार्य किया, स्वपर विवेक बनाया । इस भावमन के द्वारा
हमने वस्तुस्वरूप को समझा जाना, और इसमें तर्क वितर्क भी किया, स्वलक्षण की पहिचान भी किया, मगर जिसे कहते हैं ज्ञानानुभव, ज्ञान में केवलज्ञानस्वरूप का समा जाना । यह है निर्विकल्प अनुभव । मन का काम विकल्प करने का है, उस समय मन किस स्थिति में आ जाता है और किस स्थिति से रहकर वह अपना अस्तित्व बनाये रहता है, वह एक बड़े रहस्य की चीज है । वहाँ स्वानुभूति के समय में आत्मा को केवल उस ज्ञान के सत्यस्वरूप का परिचय हो रहा है । तो ऐसे परिणमन के, अनुभवन में कालद्रव्य निमित्त हो रहा है, और यह बात तो है किसी थोड़े क्षण की बात । सिद्ध भगवान जो शाश्वत शुद्ध है, उनका जो परिणमन है वह धर्मादिक द्रव्यों में जैसे कालमात्र कारण है इसी प्रकार वहाँ कालमात्र कारण है । तो समस्त द्रव्यों में परस्पर जो कार्य कारणभाव है वह सहकारी कारणपने से है, दूसरा कहीं उपादान कारण नहीं बन जाया करता है । यहाँ परखना है अपने को यह कि मुझे अपने आपका निर्णय करना चाहिए और यहाँ ही कोई काम करना है जिससे कि हमारा उद्धार होगा, शांति प्राप्त होगी । तो इस प्रसंग में बताया जा रहा कि लौकिक अलौकिक आदि जो सभी तरह के कार्य हो रहे हैं उनमें अन्य द्रव्य का परस्पर सहकारी कारणभाव है ।