वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 217
From जैनकोष
णिय-णिय-परिणामाणं णिय-णिय-दव्वं पि कारणं होदि ।
अण्णं बाहिर-दव्वं णिमित्त-मित्तं वियाणेह ।।217।।
अपने-अपने परिणमन में अपनी-अपनी अंत:कारणता व अन्य बाह्यद्रव्यों की निमित्तरूपता―प्रत्येक पदार्थों के अपने-अपने परिणमन का कारण खुद-खुद द्रव्य है, अन्य पदार्थ तो केवल बाह्य निमित्त हैं । जैसे हम दुःखी होते हैं तो अपने अज्ञान मोह से दुःखी होते हैं । हमारे दुःख परिणमन में हम ही कारण हैं । अब इस दुःख परिणमन में जो बाह्यद्रव्यों का प्रसंग बना, जिस आश्रय से यह दुःख पर्याय उत्पन्न हुई है, ऐसे कुटुंबीजन अथवा अन्य पुरुष या वैभव आदिक या शत्रु आदिक ये सब बाह्यद्रव्य निमित्तमात्र हैं । वही पुरुष जो इन बाह्य पदार्थों की कल्पना करता है, दुःखी हो रहा है । वह कल्पना को त्याग दे तो उसका दुःख वहीं शांत हो सकता है । जैसे एक कथानक है कि कोई राजा किसी दूसरे राजा पर चढ़ाई करने जा रहा था तो रास्ते में उसे एक जंगल में कोई साधु महाराज दिखे । वह साधु महाराज के पास बैठ गया । साधु कुछ उपदेश देने लगे । कुछ देर में शत्रु की सेना के शब्द सुनाई पड़े तो राजा कुछ सावधानसा हो गया, कुछ देर में और भी शत्रु के शब्द सुनाई दिए तो राजा ने अपनी तलवार पर हाथ रखा, कुछ और शत्रु के शब्द सुनाई दिए तो राजा को और भी अधिक रोष उत्पन्न हुआ, वीरता की मुद्रा उत्पन्न हुई, तो साधु ने पूछा―राजन् ! यह क्या कर रहे हो? तो राजा बोला―महाराज, मेरे निकट ज्यों-ज्यों शत्रु बढ़ता आ रहा है त्यों-त्यों मेरा रोष और भी बढ़ता जा रहा है । तो साधु बोले―राजन् ठीक ही कर रहे हो । शत्रु का नाश करना ही चाहिए, पर सबसे पहिले अपने अति निकट बैठे हुए उस शत्रु का नाश करो जो आपके अंदर किसी को शत्रु मानने का भाव बना रहा है । राजा ने कुछ विचार किया और आत्मचिंतन करके वहीं विरक्त हो गया । अब तो शत्रु सेना उसके पास आती है तो उस विरक्त संत को नमस्कार करके वापिस लौट जाती है । तो ये बाह्यपदार्थ हमारे सुख दु:ख के कारण होते हैं, सो मात्र वे निमित्त है, पर हमारी परिणति में वास्तविक उपादान कारण हम ही हैं । क्रोध, मान, माया, लोभादिक पर्यायें होना, या नर नारकादिक पर्यायें होना, उनका कारण मैं हूँ । और पुद्गल में शरीर की रचना बने या स्कंधों की रचना बने उनका कारण उनका निज-निज द्रव्य है । कालद्रव्य तो एक बहिरंग निमित्त कारण है । उपादान कारण तो प्रत्येक पदार्थ के परिणमन में उनका ही स्वयं-स्वयं का द्रव्य है, सो वह काल अपने गुणों के द्वारा अन्य द्रव्य को नहीं परिणमाता, परद्रव्य के गुणों को अपने में नहीं परिणमाता, किंतु उनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध है । हाँ कालद्रव्य में यह गुण हैं कि पदार्थों के परिणमन में वह कारण होता है ।
अनेक, कारणों के प्रसंग मे विभाव क्लेश होने पर भी अपने क्लेश में अपने अपराध के अन्वेषण का विवेक―देखिये परिणमनमात्र में कारण है कालद्रव्य, पर परिणमन विशेष होने में अन्य पदार्थ भी निमित्त होते हैं । जैसे हम आप रागद्वेष में चलते हैं तो उसमें साधारण कारण तो कालद्रव्य है, लेकिन चेतन अचेतन पदार्थ, ये परिग्रह उसमें बहिरंग आश्रयभूत है, और कर्मों का उदय अंतरंग निमित्त कारण है । तो यों अनेक कारणों के प्रसंग में उस प्रकार के परिणमने की शक्ति रखने वाला पदार्थ स्वयं उस रूप परिणम जाता है । इस संबंध में हमें यह शिक्षा बना है कि हम समझें जब कभी भी हम दुःखी होते हैं तो उस दुःख में हमारा ही अपराध कारण है । हम दूसरे के अपराध से दुःखी नहीं होते, जैसे कि लोग सोचने लगते कि, अमुक ने इस तरह का काम नहीं किया, मुझे बड़ा दुःखी कर दिया, यो जितने व्यवहार चलते हैं, मुझे ये बड़ा हैरान करते हैं, । अरे कोई दूसरा पदार्थ मेरी हैरानी में कारण नहीं है, हमारा ही अपराध हमारी हैरानी में कारण है । हमारा अपराध क्या है? हम रागद्वेष मोह करते हैं, यही हमारा अपराध है । अपराध का अर्थ ही यह है कि जहाँ बहुमत का न हो । हम राग करते हैं इससे दुःखी होते हैं । राग अपराध को छोड़ दें तो हमारा दुःख दूर हो जाय । दूसरी बात यहां कि ऐसा कर्मोदय आया क्यों हम पर कि जिससे हमको दुःखी होना पड़ रहा? तो पूर्वकाल में हमने ऐसा ही रागद्वेष किया था जिसका निमित्त पाकर ऐसा कर्मबंध हुआ था कि जिससे आज दुःखी होना पड़ रहा । तो मेरे दुःख में अपराध कारण है, अन्य पदार्थ मेरा ही मेरे दुःखी होने में कारण नहीं हैं ।
सत्त्वविनिश्चय―हम क्या हैं और जगत के ये दिखने वाले पदार्थ क्या हैं तथा इनका बर्ताव किस प्रकार से है याने ये किस तरह परिणमन किया करते हैं, इन सब विधियों का यथार्थ ज्ञान हो, जाय तो उससे जो ज्ञानप्रकाश होता है उससे आत्मा की उन्नति होती है, इसीलिए, लोकानुप्रेक्षा में सब द्रव्यों का वर्णन किया गया है, और इस समय कालद्रव्य के प्रकरण में परिणमन विधि बतायी जा रही-है । सबसे पहिले तो यह मानना ही होगा कि यह सब पदार्थ है, इनका सत्त्व है । कोई दार्शनिक तो ऐसे हैं कि जो यह कहते हैं कि पदार्थ कुछ हैं ही नहीं सब शून्य है, जो कुछ दिखता है यह मिथ्या है । कल्पनावश सोच लिया है, जगत में कहीं कुछ नहीं है । उनका सिद्धांत इस बात पर आधारित हो सकता ह जैसे जो दिखता है यह सब माया स्वरूप है, इसमें, परमार्थतत्त्व नहीं है, जो आकार है, जो आंखों दिखते हैं मनुष्य पशुपक्षी आदिक रूप ये सब मायारूप हैं परमार्थ वस्तु नहीं हैं, इसी सकल में रहने वाले नहीं हैं । इस पर जब विचार करते हैं कि इसमें परमार्थवस्तु है क्या? जो दिखता है उसमें परमार्थ तो है एक-एक परमाणु जो द्रव्य है, जिसका विनाश नहीं होता, इन सकलों का विनाश हो जाता है । तो जब सकल आकार यों नहीं रहते तो अवकाश मिला कहने का कि यह सब झूठ है? जब और भीतर चले तो परमाणु के निरंश स्वरूप का या जीव के चैतन्यस्वरूप का जब वर्णन किया जाता है तो वह इतना सूक्ष्म वर्णन है कि जिसको सुनकर सहसा यह लग सकती है कि बात है केवल, कुछ चीज नहीं है, जो विकल्प में आये, व्यवहार में आये, तो ऐसे धीरे-धीरे चलकर एक इस दार्शनिक को ऐसा लगा कि कुछ नहीं है, शून्य है, लेकिन शून्य नहीं है । कुछ भी न हो तो उसका माया रूप भी नहीं बन सकता । जो पर्याय है, विनश्वर है । जो बात भी हो, यदि मूल में कुछ सत नहीं है तो उसका यह मायारूप भी नहीं बनता ।
पदार्थों के विपरिणमन की विधि―सब हैं, हम हैं, शरीर है, अन्य चीज हैं । अब इसकी विधि क्या है और परिणमते किस तरह हैं सो यह मानना हो होगा कि प्रत्येकपदार्थ में परिणमने की शक्ति है क्योंकि परिणमते तो वे ही पदार्थ हैं । जैसे जीव क्रोध करता, मान करता तो भले ही कर्म के उदय में करता है लेकिन करता तो जीव ही है ना । परिणमना तो जीव को ही पड़ रहा है ना? तो जीव में उस प्रकार के परिणमने की शक्ति है, न हो तो परिणमन न होगा । तो सभी पदार्थों में यह मानना चाहिए कि उनमें परिणमने की शक्ति है । नई अवस्था उसके स्वयं में बनती है, पुरानी अवस्था उनमें विलीन हो जाती है और वे परिणमने वाले पदार्थ सदा बने रहते हैं। चाहे किसी पर्यायरूप में चलें, पर रहेंगे शाश्वत, क्योंकि सत् हैं । जो सत् है वह कभी मूल से नष्ट नहीं होता । उसकी अवस्थायें बदलती है । तो मैं भी सत् हूँ और मैं कभी नष्ट होने वाला नहीं हूँ, अपनी अवस्थायें बदलता रहता हूँ । पदार्थ में यह स्वभाव ही पड़ा है कि उत्पाद व्यय, ध्रौव्य हुआ करे । अब विशेष रूप का जो उत्पाद है, जैसे रागद्वेष हुआ तो इस विशेषता में कारण अन्य कुछ भी है, अन्य निमित्त के बिना ये समस्यायें न हीं आ सकतीं । तो प्रत्येक पदार्थ स्वयं परिणमन की शक्ति रखता है और उन सब पदार्थों में जीव और पुदगल ये दो जाति के पदार्थ ऐसे हैं जो विकाररूप परिणमने की शक्ति रखते हैं । इनमें विभाव शक्ति है । जैसे आकाशद्रव्य है वह क्या विकार करेगा अपने में ? आकाश में क्या बिगाड़ होगा? कालद्रव्य है । काल में स्वयं में क्या बिगाड़ होगा? यह तो उपचार से कहते हैं कि समय खराब हो गया, पर समय अच्छा व खराब नहीं हुआ करता । जिस समय में पदार्थ बुरे परिणमते हैं, अवनति होती है, अधर्म छा जाता है उसको कहते हैं कि काल खराब आ गया । आजकल बड़ी गड़बड़ियां चल रही हैं तो ये गड़बड़ियां समय में नहीं हैं, किंतु चीजों में है। प्रत्येक पदार्थ अपने परिणमन की शक्ति रखता है, जब वह विकार रूप बनता है तो इसके विकार परिणमन में बाह्य चीजें कारण बन जाती हैं । जैसे जीव का रागद्वेष बनता है तो रागद्वेष प्रकृति का उदय तो है । निमित्त कारण और बाहरी पदार्थों का संग है आश्रयभूत कारण और परिणमने की शक्ति इस जीव में स्वयं है, यह है उपादान कारण । तो जब उपादान कारण योग्य है, काललब्धि प्राप्त है, बहिरंग कारण मौजूद है तब सब बातें समर्थ हैं, और इसे कहते हैं समर्थ कारण । इस स्थिति में उस पदार्थ को उस प्रकार परिणमना पड़ता है । उसके परिणमन को रोकने में कोई समर्थ नहीं । जब इस तरह हम प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप जानते हैं, परिणमन समझते हैं तो बतलाओ कि कौनसी गुंजाइश है ऐसी जिससे यह कहा जाय कि इसका यह पदार्थ है ।
मोहवश क्लेश का लगाव―मनुष्य मोह से ही तो दुःखी हैं । हैं बिल्कुल भिन्न सब पदार्थ । मेरे आत्मा का तो केवल मैं ही आत्मा हूं, अन्य कुछ नहीं है मुझमें, लेकिन मान यह रहे कि यह मेरा घर है, यह मेरा परिवार है, यह मेरी इतने लोगों में इज्जत है । तो ऐसा जो बाह्य पदार्थों में ममत्व है, राग है, यह है अपनी कल्पना । तो अपनी कल्पना से हम दुःखी हो रहे हैं, बाहरी चीजों से दुःखी नहीं हुआ करते । इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग ये बड़े बेढंगे दुःख हैं और प्राय: करके इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग का क्लेश पुण्यवान पुरुषों को ज्यादह हुआ करता है, क्योंकि ठाठ उनको ही मिलते हैं, समागम उनको ही मिलते हैं, अब समागम मिले तो हर्ष किया। अब यह न्याय की बात है कि उन समागमों का वियोग होने पर दुःखी होना पड़ेगा । जिन्हें वियोग का दुःख इष्ट न हो उन्हें चाहिए कि प्राप्त समागमों में हर्ष न मानें, बल्कि अपना ज्ञान, बनायें । यदि समागमों में हर्ष मानते हैं तो यह नियम है कि वियोग में उसको उस ही ढंग का उतने ही गुना दुःख होगा । तो ये बाह्य पदार्थ जब मेरे कुछ हैं नहीं तो उनको अपनाना यह तो अंधकार है, अज्ञान है और इस अज्ञात से हम आप दुःखी हैं । हम आपको दुःखी करने वाला यहाँ कोई दूसरा पदार्थ नहीं है ।
अपने स्वहित की कामना―अब कुछ अपने आप पर अपनी बात घटित करिये । सभी लोग अपनी-अपनी ऐसी स्थितियाँ समझ रहे हैं कि कैसे राग से छूटा जाय? इतना वैभव है, ऐसा घर है, लोगों में इज्जत है, रिश्तेदार, मित्रजन, समाज के लोग साधर्मीजन सभी लोग हमारा परिचय पाये हुए हैं । ऐसी स्थिति में इन सबसे कैसे विरक्त हुआ जाय? तो भाई ज्ञानप्रकाश जिनके जगता है उनके लिए सारा परिचय अपरिचय बन जाता है । जिसे समझा कि लोग मुझे जानते हैं, यहाँ मेरी बड़ी इज्जत है, हमारे ऐसा वैभव है, हमारे ऐसे साधन हैं आदि, वे सब ज्ञानप्रकाश के होने पर मिथ्या बातें प्रतीत होती हैं । मेरा यहाँ अन्य कुछ नहीं है, यह मैं आनंद को लिये हुए हूँ और अनंतकाल तक यही बात रहेगी, जब ऐसा बोध करता है जीव तो उसके लिए ये सब परिचय अपरिचय हो जाते हैं । वे सब परिचय स्वप्नवत् प्रतीत होने लगते हैं । तो किसी दूसरे पर हमारा भविष्य निर्भर नहीं है, हमारे ही परिणाम पर हमारा भविष्य निर्भर है ।
सतसंगता में शांति की असंभवता―आज पुण्य का उदय है, उस स्थिति में धर्म की कोई सुध न रखकर, आत्मज्ञान की कोई बात न रखकर मनमाना विषयों में प्रवृत्ति रखकर, मनमाना मोह बनाकर रहा जाये तो ऐसा कब तक चलेगा? पुण्योदय के मायने क्या हैं? उदय का अर्थ है निकलना । जैसे कहा कि सूर्य का उदय हुआ तो इसका अर्थ है कि सूर्य निकल रहा है । पुण्यकर्म का उदय हुआ मायने पुण्यकर्म बंधा था पहिले शुभभाव से वह पुण्य निकल रहा है, अब वह पुण्य रहित बन रहा है । पुण्य के निकलने का नाम, बाहर होने का नाम है पुण्य का उदय । तब इस दृष्टि से यह समझिये कि जो ठाठ मिलते हैं, वे पुण्य के निकलने से पुण्य के दूर होने से मिलते हैं, अगर पहिले से ही पुण्य दूर रहे उससे नहीं, किंतु पुण्य बंधा हो और फिर वह पुण्य निकल रहा हो तो वहाँ इष्ट समागम मिलते हैं । इस स्थिति से हमको क्या शिक्षा मिली? पुण्य वैभव पुण्य के विनाश से मिल रहा है । यदि पुण्य संचय न किया जाय तो पुण्य का निकलना तो जारी है, निकल रहा है और वह एक ही तो पुण्य नहीं है, अनेक वर्गणायें बराबर निकल रही हैं । तो पुण्य के निकलने में सब वैभव मिले, पर यह निकलता ही रहे, कुछ नया संचय न आये तो क्या उसका भविष्य होगा कि निकट समय में ही इन सबसे हाथ धोना होगा और दुर्गति सामने आयगी । तो भले ही कितना ही वैभव मिला हो, कैसे ही परिजन हों, प्रथम तो लोग इसमें सुखी नहीं हैं, कुटुंब मिला है उसमें भी लोग शांत नहीं हैं, विकल्प हैं, करने का भाव बनाया है, कोई विपरीत चल रहा है उसका दुःख हो रहा है, कोई अनुकूल चल रहा है तो उसके प्रति यह ध्यान बना रहता है कि मैं इसके लिए ऐसा उपाय बना दूँ कि यह सदा सुखी रहा करे, उसके लिए फिर परिश्रम करना पड़ रहा है । तो इष्ट समागमों में शांति नहीं है, सुख नहीं है । और मान लो कल्पना से सुख मान लिया तो जितना मौज माना जायगा उससे कई गुना दुःख उत्पन्न होगा, क्योंकि इस संयोग का ऐसा ही स्वभाव है कि जो पदार्थ मिले हैं उनका वियोग अवश्य होगा । वियोग हो जाने पर चीज मिले या ने मिले, वहाँ तो नियम नहीं है, पर संयोग होने पर वियोग नियम से होगा । तब बुद्धिमानी इसमें है कि ऐसा ज्ञान बनायें, ऐसा उपाय बनाये, ऐसी धुन बनाये कि हम अपने आपके सही स्वरूप को जान जायें । उसमें हमारी रुचि बन जाय । इसमें जो अद्भूत आनंद प्राप्त होगा उसकी तुलना लोक में अन्य किसी घटना से नहीं है ।
असहयोग उपाय से आत्मसाम्राज्य के अधिकारित्व का निर्णय―आत्मानुभूति कैसे हो, आत्मा का अनुभव कैसे प्राप्त हो? इसके बड़े सरल उपाय दो हैं । हमें अपने आत्मा में बसे हुए परमात्मस्वरूप का दर्शन, हो, इसके सरल उपाय दो है―जिन विधियों को करके हम आप इस जीवन में उस परमात्मतत्त्व के दर्शन कर सकते हैं । दर्शन आँखों से न होगा । दर्शन के मायने अनुभव । वे उपाय क्या हैं? उन उपायों के करने से पहिले इतना ज्ञान तो कर लेना जरूरी होगा कि इस मेरे आत्मा का दुनिया में कोई साथी नहीं है । यदि रुचिपूर्वक इसका ज्ञान किया जा रहा है तो विदित होग कि कोई भी मेरा साथी नहीं है । जितने यहाँ परिचित दिखते हैं वे सब स्वार्थ के साथी हैं । मित्र हों, रिश्तेदार हों, परिजन हों, जहाँ जिसका स्वार्थ है वहाँ वे कुटुंबी या रिश्तेदार उसे मानते हैं और जहाँ स्वार्थ में विघात होता है उसी समय वह इस दृष्टि से देखने लगता कि जैसी दृष्टि से गैरों को भी नहीं देखता । हर एक घटना में यही बात जान लें कि आत्मा का साथी कोई दूसरा नहीं है । जब कोई यहाँ मेरा साथी नहीं और मुझ आत्मा को सब कुछ अकेले ही भोगना पड़ता है तो ऐसा साहस जगायें, अपने दिल को ऐसा आराम में ले जायें कि ऐसा अंत: यत्न करें कि कोई भी पदार्थ दिल में न आ पाये । इस पर तो अपना कुछ वश चल सकता है । अगर किसी का ख्याल आता है तो झट यह ध्यान में आये कि यह सब तो व्यर्थ क विकल्प है, ये कोई भी मेरे साथी नहीं है । यों आने वाले उस ख्याल को चित्त से हटा देना होगा । उस समय यह ध्यान में लाये कि ये व्यर्थ के विकल्प तो मेरी बरबादी के ही कारण हैं, संसार में जन्म मरण की परंपरा बढ़ाने में कारण हैं, किसी भी परपदार्थ को मैं अपने चित्त में न बसाऊँ, ऐसा अंत: प्रयत्न करना होगा । यद्यपि इस प्रयत्न के करने में कुछ कठिनाईसी लग रही होगी, लेकिन इसे कोई करने पर उतारू हो जाय तो इस उपाय को वह कर सकता है । लोग अपने चित्त में बसाये रहते हैं, अरे कभी किसी क्षण ऐसा ध्यान तो बनायें कि अब तो किसी भी परपदार्थ को मुझे अपने चित्त में नही बसाना है । यदि किसी ने ऐसा अंत: पुरुषार्थ करके सर्व प्रकार के बाह्य विकल्पों को कुछ क्षण के लिए अपने चित्त से हटा दिया तो वह एक बहुत बड़ी बात है ।
सत्य के आग्रह के उपाय से आत्मसाम्राज्य के अधिकारित्व का निर्णय―एक तो भैया ! पर से असहयोग का अंत: प्रयत्न होना चाहिए, और दूसरा प्रयत्न जो बतावेंगे वह भी इसी का सहयोगी है, वे एक दूसरे के परस्पर सहयोगी हैं । दूसरी बात यह है कि अपने ज्ञान को अपने भीतर निरखने के लिए पहुंचाइये । जिस ज्ञान के द्वारा हम बाहर की चीजें जानने का यत्न करते हैं । क्या है, पदार्थ किसी ढंग का है, जिसे बाहर में हम जानने का प्रयत्न करते हैं, अब वह यत्न न करके कुछ भीतर जानने का यत्न करें कि मैं हूँ क्या? अब उसे सोचिए केवलज्ञान ज्ञान, केवलजानन, ज्ञानज्योति और जानन मात्र है, बस वही मैं हूँ । वह जानन क्या? प्रतिभास । केवल जाननमात्र । अभ्यास की आवश्यकता है, यह सब बात एक दिन में नहीं होती । रोज-रोज इसका अभ्यास हो तो कोई समय ऐसा आयगा कि हम अपने उस जाननस्वरूप को अपने ज्ञान में ले सकेंगे । मैं ज्ञानमय पदार्थ हूँ, केवल जाननमात्र हूँ, अन्यरूप मैं नहीं हूँ, बस एक यही धुन बने । अग्रवाल, जायसवाल, खंडेलवाल, मनुष्य, स्त्री, पुरुष आदिक ये मैं नहीं । मैं तो एक वह सत् हूँ जो चैतन्यस्वरूप है, केवल चैतन्यप्रकाशमात्र है । देखिये उस परमार्थ की बात कही जा रही है, अन्य सब बातों का वहाँ निषेध करना है । मैं सिर्फ ज्ञानमात्र हूं, जानन रूप हूँ, बस यही धुन बनायें और अपने की जानन रुप में निरखने का भीतर में यत्न बनायें, ये दो उपाय ऐसे सरल हैं कि आप मन में ठान लें तो अभी से करना शुरू कर सकते हैं । लोक में कितने द्रव्य हैं, कैसी रचना है, ये बातें नहीं बतायी जा रही हैं, उनके अध्ययन में तो बड़ा समय लगता है । अगर थोड़ा सा ही विवेक हो और इन दोनों उपायों को कर लें तो अपने में अपनी अनुभूति के पा सकते हैं ।
उपाय द्वारा स्वानुभूति की साध्यता―पशुवों में हाथी, शेर, नेवला, बंदर आदि भी जब सम्यक को प्राप्त कर लेते हैं, स्वानुभूति कर लेते हैं, तो हम आप वि शिष्ट मन वाले स्वानुभूति न कर सकेंगे क्या? स्वानुभूति हुए बिना सम्यक्त्व नहीं होता । जब भी सम्यक्त्व होता है स्वानुभूति पूर्वक होता है । सम्यक्त्व की उत्पत्ति का समय स्वानुभव के लिए हुए रहता है, इसके बाद में फिर स्व की अनुभूति रहे या न रहे, सम्यक्त्व रहेगा, प्रतीति रहेगी । तो जब इन पशु पक्षियों को भी स्वानुभूति हो जाती है, जिन्होंने न कोई अक्षर ज्ञान किया, न कोई पदवाक्य
जानते हैं, कोई भाषा इनकी नहीं है, न कभी ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, वे बेचारे कुछ बोल भी नहीं सकते, जिह्वा भी उनकी ऐसी नहीं है कि जिससे अक्षरात्मक भाषा बन सके, फिर भी मन है, भीतर ही भीतर ज्ञान है, वे पशुपक्षी विवेक कर सकते और स्वानुभूति कर सकते हैं, तब मनुष्यजन स्व की अनुभूति न कर सकें यह बात क्यों सोची जाय? हम आपके स्वानुभव हो सकता है, उसके उपाय में लगे । अन्य उपायों में तो जीव की बरबादी ही है? क्योंकि इष्ट समागम मिल गया जो चाहता है वे पदार्थ मिले गए उनमें फिर तृष्णा बढ़ेगी, उन प्राप्त समागमों का फिर बिछोह होगा, बिलगाव होगा तो उसमें दु:ख माना जायगा । तो यहाँ का संयोग भी दु:ख का कारण है और वियोग भी, दु:ख का कारण है। इन बाह्य पदार्थों का ख्याल ही अपने को दु:ख का कारण है । इन बाह्य पदार्थों में अपने को रमाना प्रकट क्लेश है । अत: इनमें रमना योग्य नहीं । इन दोनो उपायों को अगर सुसंस्कृत भाषा में कहा जाये तो यों कहा जायगा―असहयोग और सत्य ग्रह, समस्त बाह्य पदार्थों का तो असहयोग हो और अपने आपका जो चैतन्यस्वरूप है, अपनी ही सत्ता के कारण जो अपने में स्वरूप है उसका किया आग्रह मैं ज्ञानरूप ही हूँ । तो इन दो उपायों से आत्मा की अनुभूति प्राप्त होगी और ऐसा उपाय प्राप्त होगा कि जिस आनंद में वह सामर्थ है कि भव-भव के बांधे हुए कर्मों को दूर किया जा सकता है ।
पुण्य और पाप के फलों से उपेक्षा करके स्वानुभूति का लाभ लेने का संदेश―पुण्य और पाप ये दो ही इस जीव की अशांति के हेतु हैं, क्योंकि इनमें शांति का माद्दा नहीं पड़ा हुआ है । पाप का उदय भी देखिये किसी मुनि के ऊपर उपसर्ग आ रहे हैं, शेर भख रहे, स्यालिनी भख रहे, शत्रु छेद रहे, इसमें उनका पापोदय ही तो कहा जायगा । ये कोई पुण्योदय के काम तो नहीं हैं, लेकिन ऐसे पाप के उदय होने पर भी यदि वह मुनि अपने धर्मभाव को संभाले हुए है तो वह कैवल्य प्राप्त कर लेता है और पुण्य के समागम कितने ही आराम के साधन मिले हों जैसे अनेक चक्रवर्ती उनके विषय के साधनों की बात क्या कहना । कितना ही वैभव था उनके पास, कितनी बड़ी इज्जत थी, जिनका वंदन बड़े-बड़े राजा लोग करते थे, जिनके पास हजारों रानियाँ थीं, सब प्रकार के सुख के (मौज के) साधन थे, लेकिन अंत में देखिये उन चक्रवर्तियों की क्या गति हुई? मरकर नरक गये । तो पुण्य पाप फलों की अपेक्षा करके एक भीतर में अपने ज्ञानस्वरूप का ज्ञान बनायें, उसका आग्रह करें बाह्य वस्तुओं को अपने चित्त से हटायें तो वहाँ स्वानुभूति उत्पन्न होगी और उससे ही शांति प्राप्त होगी । शांति का उपाय सिवाय आत्मप्रबोध के अन्य कुछ हो ही नहीं सकता, अत: स्वाध्याय, अध्ययन, मनन, तत्त्वचर्चण आदि पौरुष करके आत्मतत्त्व का परिज्ञान करें और आत्मतत्त्व की दृष्टि दृढ़ करके स्वानुभूति का परमलाभ लें ।