वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 219
From जैनकोष
कालाइ-लद्धि-जुत्ता णाणा-सत्तीहि संजुदा अत्था।
परिणममाणा हि संयं ण सक्कदे को वि वारेदुं ।।219।।
समर्थ कारण के होने पर कार्य की अवश्यंभाविता―अब इस गाथा में बताते हैं कि यह कारण कार्य विधान प्रतिनियत है कि जिसके बल पर ये समस्त कार्य हो रहे हैं । कार्य होने में एक तो काललब्धि चाहिए । काललब्धि कोई अलग वस्तु नहीं । जिस काल में वे समस्त कारण जुट जाते हैं, जिसे समर्थ कारण कहते हैं तो उसको काललब्धि कहते हैं । अर्थात् अंतरंग कारण सही हों, बाह्य- निमित्त कारण मिलें और जितने सहकारी कारण चाहिएँ वे उपलब्ध हों तो ऐसी स्थिति में कार्य नियम से होता है, इसी बात को इस विधि में बताया जा रहा है । समर्थ कारण होने पर कार्य होता ही है । उसे इंद्र, चक्रवती, धरणेंद्र आदिक कोई मेटने में समर्थ नहीं । जैसे चावलों में पकने की शक्ति है, ऐसे ही चावल, जो पक सकते हैं उन चावलों को जलते हुए चूल्हे पर रखी हुई बटलोही में पानी भरकर रख दिया गया, नीचे अग्नि जल रही है, उसको रोकने का प्रतिबंधक कारण भी कुछ नहीं है तो ऐसी स्थिति में अब उन चावलों को पकने से रोक कौन सकता है? इसी श्रद्धा के बल पर तो प्रतिदिन लोग चावल बटलोही में भरकर चूल्हे पर रख देते हैं और नीचे आग जला देते हैं । उनके कान में कभी ऐसा विचार नहीं आता कि आज भात बन भी पायेगा या नहीं, क्योंकि उनको पूर्ण श्रद्धा रहती है कि ये चावल पक अवश्य जायेंगे । हाँ यदि नीचे अग्नि न जलाई जाय या उस बटलोही में चावल को जगह पर कंकड़ भर दिये जायें तो वे न पक सकेंगे । पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन चारों के होने पर, जिन बहिरंग सहकारी कारण के होने पर योग्य चावल पक जाया करते हैं, वे सब हों तो वहाँ वह कार्य होता है । वहाँ उसे रोकने में कोई समर्थ नहीं है । कोई यदि यह कहे कि बीच में ही बटलोही उठा लें तो कैसे वे चावल पक सकेंगे? तो भाई बता तो रहे हैं कि सर्व कारण मिले हुए हों तो वहाँ कार्य को रोकने में कोई समर्थ नहीं । हाँ यदि द सभी योग्य कारण न मिलें तो उस कार्य का होना रुक जायेगा । तो जैसे सर्व कारणों के बीच में योग्य परिणम सकने वाला उपादान अपने में परिणमन करता है यों ही हम आप सब रागी जीव, उदय भी कर्मों का चल रहा है और बहिरंग कारण आश्रय भी जुट जायें तो वहाँ राग करते हैं ।
धर्ममार्ग में प्रगति करने का अपना कर्तव्य―कर्तव्य यह है कि अपना ज्ञान सही बनायें, क्षयोपशम भी तो ज्ञानावरण का चल रहा है । कुछ मंदकषाय की बात भी तो चल रही है, वैसी योग्यता भी तो है । हम उस योग्यता को अपने कार्य में लें, अध्ययन द्वारा ज्ञानोपयोग हमारा बने । हम यथार्थ बात समझें, मैं मैं हूँ, बाकी परपदार्थ पर है, पर से मैं अत्यंत निराला हूँ, ऐसा दर्शन करने का पौरुष बनायें तो यह रागभाव मंद हो जायेगा, और कभी यह रागभाव संपूर्ण मेट सकने में समर्थ हो सकेंगे । जैसे कोई चींटी जब किसी भींत पर चढ़ती है तो बीसों बार चढ़-चढ़ कर गिरती रहती है, पर उसके अंदर कुछ ऐसा ही आग्रह है कि उसी भींत पर वह फिर चढ़ने लगती है और कभी वह चढ़ ही जाती है, तो इसी तरह हम इस संसार में अनेक बार धर्म के लिए अपन उत्साह बनाते हैं, कुछ चढ़ते हैं फिर गिरना पड़ता है, फिर कुछ चढ़ते हैं फिर गिरना पड़ता है । पर इस चढ़ने के आग्रह में (धर्मपालन के आग्रह में) अपनी हिम्मत न तोड़े, अपने धैर्य को न खोलें, कितनी ही असफलतायें मिलें, पर अपना कदम पीछे न हटायें, अपने धर्मपालन के कदम को आगे ही बढ़ाते जायें तो निश्चय ही वह समय आयेगा कि हम पूर्णरूपेण धर्मपालन के पात्र बन जायेंगे । वह धर्म है क्या चीज? वह एक ज्ञानसाध्य बात है । यह एक दृढ़ता से समझने की बात है । और उसही ज्ञानबल से एक ऐसा बल प्राप्त होता है कि हम बाहर बातों को पूर्णरूपेण सहन कर सकने में समर्थ हो सकते हैं । तो अनेक शक्तियों से संयुक्त यह जीव उस-उस प्रकार की कारण सामग्री में अपना परिणमन बनाता है ।
विकास के समर्थ कारणों में विकास की अवश्यंभाविता―एक भव्यत्वशक्ति भी है, उससे युक्त जो जीव हैं वे उस तरह का साधन बनायें तो अपने में उस धर्मभाव को प्रकट कर सकते हैं । तो यह समझना चाहिए कि हम अपने अंत: पौरुष में बढ़ सकें, ऐसे साधन जुटायें, सत्संग अधिकाधिक समय तक रखें, जिस संग में हम रहते हैं, योग्यता हम में नाना तरह के परिणमन की है, हम उसका प्रभाव अपने में बना लेते हैं, सत्संग बहुत काल तक रहे, स्वाध्याय, ज्ञानोपयोग बहुत काल तक रहे, संस्कार इसी में आत्मा के बनते हैं, इसको संस्कृत किया जाय, उस ही ज्ञानधारा में इस उपयोग को लगाया जाय तो हमारा संस्कार ज्ञान और धर्म का बन सकेगा, और उसके बल पर हम अशांति से दूर हो जायेंगे, शांति प्राप्त कर लेंगे । कितना सुगम तो मार्ग है, केवल एक व्यामोह को हटाकर अपने आपमें भीतर परखने की बात है । हम यदि यह दृढ़ निर्णय करके रह जायें मेरा कहीं कुछ नहीं है, किसी से कुछ प्रयोजन नहीं है, मैं अपने में बसे हुए उस सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन करके तृप्त रहूंगा, अब मुझे अन्य बातों से कुछ प्रयोजन नहीं है । मेरा केवल एक यही काम है, सर्व से मैं निरपेक्ष होकर मैं एक इस सहज परमात्व के दर्शन में ही आसक्त होऊँगा, ऐसा दृढ़ संकल्प करके भीतर में इसकी धुन बनायें तो फिर ज्ञानानुभूति के अनेक क्षण आयेंगे, और इस ज्ञानानुभव मैं ही वह बल है कि भव-भव के संचित कर्मों की निर्जरा करने में कारण बनता है, इस पौरुष में हमें आगे बढ़ना चाहिये और आज के पाये हुए जो पुण्य समागम हैं श्रेष्ठ कुल, जैनदर्शन की प्राप्ति और जानने समझने की योग्यता और यथावसर सत्संग का मिलना, ये
सब हमारे सफल हो जायेंगे जब कि हम अपने आपके उस सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन करने में अपना उपयोग लगायेंगे ।