वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 295
From जैनकोष
सम्मत्ते वि य लद्धे चारित्तं णेव गिण्हदे जीवो ।
अह कह वि तं पि गिण्हदि तो पालेदुं ण सककेदि ।।295।।
सम्यक्त्वलाभ, चारित्रग्रहण, चारित्रपालन की उत्तरोत्तर दुर्लभता―सम्यक्त्व की प्राप्ति दुर्लभ है । इससे पहिले जितनी दुर्लभ बातें बतायी गई थीं वे सब हम आपको मिली हुई हैं। साधुवों का संसर्ग भी होता ही रहता है ।
सदाचार भी यथायोग्य सबके हैं । जीवन भी पर्याप्त मिला हुआ है, यों सारी बातें हम आपको मिली भई हैं । अब सम्यक्त्व की प्राप्ति की जो चर्चा है बस इसके बाद सभी ने घुटने टेक दिए । सम्यक्त्व नहीं मिला । और मिला भी है सम्यक्त्व किसी को, पर वह जीव चारित्र को ग्रहण नहीं करता । प्रथम तो सम्यक्त्व प्राप्त हुआ भी या नहीं, इसका भी कुछ निर्णय नहीं दिया जा सकता । अपनी ख्याति लाभ की वजह से भी ऐसा कहा जा सकता है कि हमें सम्यक्त्व हो गया है । और, किसी के वास्तव में सम्यक्त्व हो तो चारित्र ग्रहण नहीं करता । जिसके सम्यक्त्व हो गया उसके चारित्र तो कुछ न कुछ हो ही जाता है । उसके ऐसा भाव बन जाता है कि हमें संयम से रहना चाहिए । करते हैं संयम मगर विशेषरूप से चारित्र को ग्रहण नहीं कर पाते । तो चारित्र सम्यक्त्व से भी दुर्लभ हो गया । और कदाचित चारित्र का ग्रहण करते हैं तो उसका पालन कर सकने में असमर्थ हो रहे हैं । यह सब भीतरी भावों की बात कही जा रही है । ऊपरी चारित्र का पालन तो आवेशवश भी हो सकता है, मगर अंतरंग में यह आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप में रमण करे, इस प्रकार की भीतर में धुन हो जाना यही है वास्तविक चारित्र का मूल । तो इसकी धुन नहीं होती है अपने आपमें रम जाने में । तो सम्यक्त्व प्राप्त होने पर भी चारित्र का ग्रहण दुर्लभ है और चारित्र प्राप्त हो जाने पर भी उसका पालना कठिन हो रहा है ।