वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 297
From जैनकोष
रयणु व्व जलहि-पडियं मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं ।
एवं सुण्च्छिइत्तां मिच्छ-कसाये य वज्जेह ।।297।।
मनुष्यत्वलाभ की दुर्लभता जानकर मिथ्यात्व कषाय के परिहार का कर्तव्य―जैसे समुद्र में गिरा हुआ रत्न फिर से मिले यह बहुत दुर्लभ बात है इसी प्रकार मनुष्य पर्याय भी अति दुर्लभता से प्राप्त होती है । जब जीवों की हम दृश्यमान अनेक स्थितियों पर दृष्टिपात करते हैं तो अपनी मनुष्यजन्म की सफलता का भली प्रकार बोध होता है । कीड़ा मकौड़ा, स्थावर, पशुपक्षी आदिक के कितने ही प्रकार के दुःखों को हम देख ही रहे हैं । उनको देखकर पता पड़ता है कि वास्तव हमें आज जो यह मनुष्यभव मिला है वह अत्यंत श्रेष्ठ और दुर्लभ मिला है । तो मनुष्यपना पाना अति दुर्लभ है ऐसा निश्चय करके अब करना क्या है? मिथ्यात्व और कषायों को छोड़े । मनुष्य होकर अगर मिथ्यात्व और कषायों में लगे रहे तो मनुष्य होना न होना बराबर है । लाभ क्या मिला, विषयों का सुख तो पशु पर्याय में रहते वहाँ भी मिलता, मनुष्य हुए तो यहाँ भी मिल रहा । उसमें कोई विशेषता नहीं है । विशेषता यह है कि मिथ्यात्व और कषाय इनको छोड़ें । प्रभु की रोज पूजन वंदना करने आते हैं तो क्यों आते हैं? मिथ्यात्व कषाय उनका सब नष्ट हो चुका है इसी कारण उनका सर्वस्व प्रकट हुआ है । तो भगवान सर्वज्ञ हुए है इसका तो प्रधान महत्त्व नहीं समझते, अरे किसी ने थोड़ा जाना किसी ने बहुत जाना, वह एक स्वाभाविक गुण है, हुआ ही है ऐसा, किंतु उनको जो आनंद प्रकट हुआ है और सदा के लिए कल्याणमय हैं, परमशिव हुए हैं वे वीतरागता के कारण ऐसे हुए हैं । रागद्वेष अब नहीं रहा इस करण से उनकी महत्ता है, सर्वज्ञता हो न हो, ऐसा तो होता नहीं कि न हो, लेकिन सर्व जान लेने से हम को इष्ट कुछ नहीं विदित होता, जान लिया सब । क्या हुआ, अरे भगवान ना जानते सब और हम आप रागी लोग जानते सब तो उससे फायदा भी निकलता (हंसी) । वे प्रभु तो वीतराग हैं और सबको जान रहे हैं तो उससे क्या फायदा? और, यहां हम आप अगर सब जान लेते तो बढ़िया व्यापार करते । जान लेते कि इस चीज का भाव बढ़ जायगा, इसका कम हो जायगा तो उसी के हिसाब से व्यापार करके लाभ उठा लेते । (हँसी) तो देखिये जिनको जानने की जरूरत है वे जानते नहीं और जिनको जानने की कुछ जरूरत नहीं वे सब कुछ जानते हैं । जानना इसकी कोई महिमा नहीं है, महिमा है वीतरागता की । उनके रागद्वेष न रहा, जो भिन्न औपाधिक चीज थी, बाहरी बात थी, न रही, ठीक है । रहेगी कैसे ? उसकी क्या महत्ता? महत्ता तो गुण विकास की है, सर्वज्ञता की है तो ऐसी सर्वज्ञता मिथ्यात्व कषाय के दूर होने से प्रकट होती है । तो यह काम करने का है ।
मिथ्यात्व की परिहार्यता―भैया ! एक निर्णय रख लो । ये बच्चे लोग साथी न बनेंगे, जिनमें हम झूठी इज्जत समझते हैं कि इसमें हमारा सब कुछ बड़प्पन है, वे लोग साथ न दे देंगे । परिवार का कोई साथी न होगा । साथ देने वाला है तो हमारा विशुद्ध परिणाम है । भली प्रकार भीतर में निश्चयकर लो और इस निश्चय के अनुसार अपना आशय बनाकर कुछ उसका प्रयत्न करलो तो मिथ्यात्व और कषाय को छोड़ें । मिथ्यात्व वह कहलाता है कि जो बात जैसी नहीं है उसको उस प्रकार माने । यह देह अपना नहीं है पर इसे मानें कि यह मैं हूँ तो यह मिथ्यात्व है । परिजन परिवार मैं नहीं हूँ लेकिन उन्हें माने कि यह मैं हूँ, ये मेरे हैं यह मिथ्यात्वभाव है । भीतर में जो रागद्वेषादिक कल्पनायें उठ रही हैं, सुख दुःख उत्पन्न होता है यह भाव भी मेरा स्वरूप नहीं है, पर इन सबमें यह मोही जीव एकमेक हो रहा तो यह उसका मिथ्यात्व है । इस मनुष्यपर्याय को पाया है तो मिथ्यात्व के नाश करने का उद्यम करें । धन वैभव जोड़ने के लिए सभी लोग रात दिन जुटे हुए हैं । जिनका उदय अनुकूल है थोड़े से श्रम से बात बन जाती है और जिनका उदय प्रतिकूल है वे कितना ही श्रम करें तो उससे सिद्धि कुछ नहीं होती । तो जब हमारे भाव के साथ जिसका अविनाभाव आज नहीं, मैं सोचूँ कि धन आ जाय, जब ऐसा नियम नहीं है तो उसके प्रति क्यों इतनी अधिक उमंग रखते? इतनी दृढ़ता रखना चाहिए कि जो कुछ आना है वह उदयानुसार आयेगा, और जो आयेगा उसी में अपनी व्यवस्था बना लेंगे । और अपना अधिकाधिक समय ज्ञानार्जन और आत्मसाधना में लगायेंगे । काम यह एक ही करना है । पर को अपना मानना, पर को स्वयं यह मैं हूँ ऐसा समझना, रागद्वेष सुख दुःख आदिक परिणामों को आत्मा मानना, इन सब मिथ्यात्व भावों का त्याग करें । जब आगे कुछ रहना नहीं है, सबका विछोह होगा तब-फिर किसी भी परपदार्थ से क्या मोह करना? वहाँ इतना साहस बनाने की जरूरत है, कि मेरे ये कुछ नहीं हैं । उनकी ओर से तृष्णा कम करें और ज्ञानसाधना में अपना चित्त विशेष लगायें तो जीवन सफल होगा, नहीं तो सभी लोग जन्मते हैं और मरते हैं । तो इन कषाय भावों का त्याग करें, इससे ही इस नर-जीवन की सफलता होगी ।
कषायों की परिहार्यता―कषायें 4 प्रकार की होती हैं―क्रोध, मान, माया, लोभ । और ये चारों चार-चार तरह की होती हैं । कोई विकट क्रोध करता है और कोई हल्का । कुछ और हल्का है, कुछ बिल्कुल ही हल्का है, जिन्हें कहते हैं अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । ऐसी कषाय जो दूसरे भव में भी साथ जाय । वह अनंतानुबंधी कषाय कहलाती है । प्राय: संसारी जीवों में अनंतानुबंधी कषाय बसी हुई है । किसी से कुछ भी अपना बिगाड़ समझ में आया तो उसका सर्वस्व विनाश करने के लिए तुल जाते हैं । बताइये उससे लाभ क्या मिलता? लोग तो कहते हैं कि आजकल सज्जनता का जमाना नहीं है, लेकिन उनका यह कहना झूठ है । अरे सज्जनता कोई करते ही कहाँ है? हाँ थोड़ासा ऊपरी-ऊपरी दिखावटी सज्जनता करते, हैं, परिणाम यह होता है कि फल उन्हें जो मिलना चाहिये था उसका उल्टा मिलता है । अरे सही ढंग से कोई सज्जनता बर्ते तो फिर देखिये उसको लाभ मिलता है कि नहीं । सज्जनता करने से लौकिक लाभों से भी वंचित न रहेगा । तो कषायें मत करें। कोई पुरुष अपना विरोधी हो और उसके प्रति सज्जनता बर्ती जाय, हृदय से उपकार करने के भाव से उसके प्रति सज्जनता का व्यवहार किया जाय, अगर ऐसी विशुद्धि उत्पन्न हो तो उस विरोधी के हृदय में भी फर्क आ जायगा, लेकिन लोग सही ढंग से सज्जनता बर्तते नहीं हैं और दोष देते हैं जमाने का कि आजकल सज्जनता बर्तने का जमाना नहीं है । तो क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों कषायें अनंतानुबंधी भी होती हैं, जिनका संस्कार, वासना परभव तक साथ जाता है । इन कषायों को छोड़े तो सम्यक्त्व उत्पन्न हो जायगा । अपना जो आत्मा का सहजस्वरूप है उस स्वरूप का अनुभव होगा और उनके जो विशुद्ध आनंद प्रकट होगा उसके अनुभव द्वारा यह जान लेंगे कि संसार के भी पदार्थ में राग करने में आनंद नहीं है । राग में आनंद कैसे होगा? राग खुद दुख का अविनाभावी है । जहाँ राग परिणाम हो रहा वहाँ तुरंत क्लेश हो रहा, राग स्वयं क्लेश रूप है । तब राग करके आनंद की आशा कहाँ की जा सकती है? तो अनंतानुबंधी कषाय मिटे वहाँ आत्मा का अपनी सुध हो जाती है । फिर इसके बाद अप्रत्याख्यानवरण और-और छोटी कषायें उन सबको दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए । यहाँ यह बतला रहे हैं कि ऐसा मनुष्यजन्म पाया है जो अति दुर्लभ है, तो इस मनुष्यजन्म पाने की सफलता इसमें है कि मिथ्यात्व और कषाय का त्याग कर दें ।
लौकिक वैभव के अर्जन के लक्ष्यों की सारहीनता―लोग धन वैभव के संग्रह के लिए इसीलिए तो मरे जा रहे हैं कि उन्होंने दो बातें सोची हैं―धन वैभव बढ़ाने के प्रयोजन में एक तो यह कि दुनिया में हमारी इज्जत बढ़ जाय । बड़े-बड़े समारोहों में आगे लोग बैठायेंगे और अनेक जलसों में सभापति बनाये जायेंगे, वहाँ हमें प्रतिष्ठा प्राप्त होगी । लोग भी समझ जायेंगे कि यह हैं धनिक पुरुष । तो एक तो इज्जत बढ़ेगी इस ख्याल से धनवृद्धि में जुटे हैं । दूसरा ख्याल यह बन जाता है कि हमारे बालक बच्चे सब अच्छी तरह सुख में रहेंगे, इनको धनी बना दें और ये सुखी रहें, इससे हमारा आत्मा भी शांत रहेगा । मगर दोनों ही प्रयोजनों पर विचार तो करो । दुनिया के लोग हमारी इज्जत करेंगे । तो पहिले तो वे दुनियां के सभी आदमी अपनी ही इज्जत सम्हाल लें । मरकर पशु पक्षी न बनें । यहाँ पर ही अनेक अज्ञान अंधकार उनके न रहें तो वे क्या अपनी ऐसी इज्जत सम्हाल सकने के काबिल हैं? नहीं । अरे वे खुद जन्म मरण करने वाले हैं, स्वार्थी हैं, कषायों से भरे हैं, मिथ्यात्व से भरपूर हैं, ऐसे इन कुछ से जीवों से कुछ थोड़े से शब्द प्रशंसा के सुनने को मिल जायें ऐसी चाह करना कितनी बड़ी कुबुद्धि है? क्या मिलता है? कबसे हम मनुष्यजीवन में आये है? इससे पहिले हम क्या हुए होंगे उसकी कुछ आज सुध नहीं है । इस थोड़े से जीव के लिए यश की क्या चाह करना? इस जीवन में ही उस यश से लाभ क्या पाया? और, आगे भी उससे क्या लाभ मिल जायगा? वर्तमान में भी लाभ नहीं है । अगर कुछ स्वार्थीजनों ने इज्जत कर दी तो इज्जत की चाह रखने वाले ये पुरुष उन जीवों के आनंद और आराम के लिए कितना कष्ट सहते हैं? यह किसका फल है? थोड़ीसी इज्जत मानने का और उसका फल क्या मिला कि सारा जीवन संकट में डाल लिया । कुछ लोग इज्जत बोल देते हैं तो इसके फल में इसे कितना क्या और देना होगा सो यह बड़े संकट की बात है । दूसरी बात यह कि बाल बच्चे सुख से रहेंगे, धनिक रहेंगे इसलिए बहुत धन कमाकर रख जाना चाहिए । सो ये भी असार बातें हैं । कितना ही कोई कमाकर रख जाय, उनका उदय पुण्य का नहीं है तो थोड़े ही दिनों में वह सारा धन समाप्त हो जायगा । और, आप कितना ही कमाकर धर जायें वह सब थोड़ा है, उनका अगर पुण्य अनुकूल है तो वे उससे हजार गुना कमा लेंगे । और, इसी संबंध में दूसरी बात यह समझें कि कल्पना से मान लिया कि ये मेरे पुत्रादिक हैं । इनके लिए हमें धन अर्जित करके रख जाना चाहिए, तो वे हैं क्या इसके? मरण के बाद वे क्या सुख में निमित्त हो सकते हैं? कुछ बात भी पूछ सकेंगे क्या? ये सब किसी काम न आ सकेंगे? और जीवन में भी काम नहीं आते । बच्चों की सेवा करते-करते जिंदगी बिता डालो तो उससे इस आत्मा को लाभ क्या मिला? सभी लोग अपने-अपने अनुभव से पूछ लें ।
गृहस्थी की परिस्थिति में मनुष्य का कर्तव्य―गृहस्थी में कर्तव्य केवल एक यही है कि जब गृहस्थ हैं तो इस नाते से कुछ समय व्यापार करना या सेवा सुश्रुषा आदिक के जो काम करने हों सो करें, परिस्थिति है । फिर उदयानुसार जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही अपनी व्यवस्था बना लें और जीव को इतना निरपेक्ष रखें कि इसे धर्मसाधना में लगायें । यह काम अगर किया जा सका तो दुर्लभ मनुष्यजीवन पाने की सफलता है, नहीं तो जैसे कीड़ामकोड़ा पशुपक्षी आदिक बने ऐसे ही मनुष्य बन गए । उससे लाभ क्या उठाया? तो अति दुर्लभ मानवजीवन को पाकर कर्तव्य यह है कि मिथ्यात्व और कषाय को छोड़े । मनन करें अपने स्वरूप का । मैं हूँ । हूँ ना, न होऊँ तो यह बड़े मजे की बात होगी । असत् में सुख दुःख क्या होगा, पर ऐसा है कहाँ? मैं तो हूँ, अस्तित्व का अभाव कहां से होगा? मैं हूँ तो किसी न किसी अवस्था में रहता हूँ । अब शांति वाली अवस्था चाहिए तो उसका उद्यम करना होगा । अशांति और क्लेश की अवस्थायें तो हो ही रही हैं । अपना जैसा स्वरूप है वैसा शुद्ध जान लेंगे केवल ज्ञानमात्र स्वरूप है हमारा । इसमें कोई दूसरी चीज मिली हुई नहीं है । रागद्वेष जो हममें आते हैं तो पर-उपाधि के संबंध में आ रहे हैं । मेरे स्वभाव में राग नहीं पड़ा है । मेरा सहजस्वरूप तो सिर्फ ज्ञानमात्र है । तो ऐसा ज्ञानमात्र मैं अपने स्वभाव से हूँ, सहज हूँ, उसकी सुध ली जाय तो यह मनुष्यजन्म और श्रेष्ठभव का पाना सफल हो जायेगा। और, यदि विषय कषायों में ही लगे रहे तो मनुष्यजन्म के पाने का क्या फायदा ? तो दुर्लभ मनुष्यजन्म पाकर हे कल्याणार्थी जनो ! मिथ्यात्व और कषायों का परित्याग करें। किसी ने कुछ उल्टा सीधा कह दिया तो यहाँ आग बबूला हो गए। ऐसा कह क्यों दिया इसने? मैं तो इससे बदला लूंगा। यह सब क्या है? अंधकार है। भीतर में निर्णय तो स्वच्छ रखना है। भले ही गृहस्थी में अनेक प्रसंग ऐसे होते हैं कि उनका अगर प्रतिकार न किया, उचित ढंग से उनकी अक्ल ठिकाने न लाये तो संभव है कि ये बहुत दिनों तक हैरान करेंगे । और, प्रथम तो यह बात है कि न उनकी अक्ल ठिकाने लायें और समता रखें, व सबके हित की बात सोचें तो भी गृहस्थी में गुजारा चल जायेगा, और इसके लिए तो बड़ा साहस करना होगा। भले ही अल्प साहस की बात बने, मगर निर्णय शुद्ध रखना चाहिए। जगत में अनंत जीव हैं, कोई किसी का इष्ट मीत नहीं। यह जीव अपने विचार में, पर्याय में, उपयोग में नाना प्रकार की कल्पनायें चेष्टायें करता है तो वह अपने सुख के लिए करता है, उसके विरोध के लिए नहीं करता। यह तथ्य की बात है। कोई भी शत्रु हो, विद्वेषी हो वह जो चेष्टायें करेगा उसके प्रति वह उसके विरोध के कारण न करेगा, किंतु उसे सुख शांति इस बात में जंच रही है तो अपनी ही सुख शांति के लिए करेगा। अतएव कोई विरोधी नहीं।
मिथ्याज्ञान के अभाव में आकुलता का अभाव―भैया ! निर्णय यथार्थ रखना चाहिए। जिसके बल से ऐसी वृत्ति जगेगी कि जीव आकुलता न पायेगा। जितनी आकुलता होती है वह मिथ्याज्ञान से होती है। अब यही देख लो―चीज जो कुछ भी मिली है वह सब मिट जायेगी, लेकिन खुद को जो मिला है बाह्य समागम, उसके प्रति ख्याल तक भी न लाना चाहिए कि ये सब चीजें मिटेगी, बिछुड़ेंगी। दूसरों के लिए तो ख्याल ला देंगे कि कितना बेहोश हो रहा है। जो मिला है वह मिटेगा, पर खुद को जो मिला है वह भी मिटेगा, ऐसी कल्पना तक नहीं करना चाहते। याने अनित्य चीज को नित्य मान रहे हैं। मिथ्याज्ञान हो रहा है इसी का ही क्लेश है। अगर अनित्य को अनित्य मान लिया जाय, जिस घर में रहते वह भी छूटेगा, जिस देह में रहते यह भी मिटेगा, जो समागम मिले हैं वे सब असार हैं, आदिक बातें अगर मान ली जायें तो यही उसका बहुत सा क्लेश मिट जायेगा। और इतना तो निश्चित है कि जब धन वैभव परिजन आदिक का वियोग होगा तो यह ख्याल करने लगेंगे कि लो जो हम जानते थे सो ही हो गया। हम पहले से जान रहे थे कि यह मिटेगा तो देखिये जो बात जान रहे थे वही बात सच निकली। कोई आदमी किसी बात को पहले से बता दे कि देखो ऐसा होगा। तो वैसी बात के हो जाने पर वह शान से कहेगा कि मैं तो इसे पहिले से जानता था । जो जानता था सो ही हुआ । तो वह उस समय दु:खी नहीं होता बल्कि खुशी मानता है । अगर अनित्य पदार्थ नष्ट हो गए तो ज्ञानी पुरुष उस समय खुशी मानेगा कि देखो जैसा हम समझ रहे थे वैसा ही हुआ । भला जो लोग अनित्य को नित्य समझते हैं तो उसके मिटने पर वे बड़ा खेद मचाते हैं । देखो अचानक क्या हो गया? अरे अचानक क्या हुआ? आश्चर्य तो इसमें होना चाहिए जो चीज देर तक (काफी समय तक) बनी रहे। मिटने का क्या आश्चर्य? इससे हम सच्चे ज्ञान के द्वारा अपने आपके आत्मा की रक्षा करें, मिथ्यात्व कषाय से दूर रहें, इसमें हम आपके जीवन की सफलता है ।