वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 302
From जैनकोष
जो जाणदि पच्चक्खं तियाल-गुण-पज्जएहि संजुत्तं ।
लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे देवो ।।302।।
धर्ममूल, धर्ममूर्ति व धर्मफल श्री सर्वज्ञदेव का स्मरण―जो आत्मा तीन कालवर्ती गुणपर्यायों से संयुक्त समस्त लोकालोक को प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञदेव होता है । यह धर्मानुप्रेक्षा चल रही है । धर्म के संबंध में ज्ञानी चिंतन कर रहा है कि धर्म के मूल सर्वज्ञदेव हैं । जितना भी धर्म का प्रसार है, लोगों को ज्ञान प्राप्त हुआ है उस सबका मूल आधार तो सर्वज्ञदेव है अर्थात् सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि सुनकर गणधरदेव ने उसका अवधारणा किया और गणधरदेव से सुनकर अन्य आचार्यों ने निबद्ध किया और उनकी परंपरा से यह सब धर्मों का ज्ञान चल रहा है तो चूँकि धर्मों के मूल में सर्वज्ञदेव हैं और साक्षात् धर्म की मूर्ति सर्वज्ञदेव हैं । धर्म का फल भी प्रकट वही है, इस कारण धर्मानुप्रेक्षा के वर्णन के प्रारंभ में सर्वज्ञदेव का स्मरण किया है और उनका लक्षण बताया है । जो प्रभु समस्त द्रव्यों को उनके गुणों को और भूत भविष्य वर्तमान की सभी पर्यायों को जानता है उसे सर्वज्ञ कहते हैं । देव का अर्थ हैं जो परम आनंद पद में क्रीड़ा करे उसे देव कहते हैं । देव दिव् धातु से बना है जिसका अर्थ है क्रीड़ा करना । जो देवगति में जावें वे भी देव हैं, वे इंद्रिय सुख में क्रीडा करते हैं अतएव वे, संसारी देव हैं और सर्वज्ञदेव करते हैं परम आनंदस्वरूप में क्रीड़ा, इस कारण उन्हें देवाधिदेव कहते हैं, जो अनंत चतुष्टयस्वरूप परमात्मतत्त्व में निरंतर रमते रहें, उन्हें कहते हैं देव । तो ये देव सर्वज्ञदेव ही हो सकते हैं अन्य और कोई जो सर्वज्ञ नहीं हैं वे देव नहीं हो सकते हैं ।
वीतरागता व सर्वज्ञता से ही देवत्व का अभ्युदय―लोक में जिस चाहे को देव मानने की प्रथा चल रही है, किंतु उनका चरित्र जब सुनते हैं तो वहाँ सर्वज्ञता की सिद्धि नहीं होती । कभी किसी देव पर विपत्ति आयी तो वह दूसरे की शरण में गया, उसने उसे समझाया, तो ऐसी घटनायें जब यहाँ चरित्र में पायी जाती है तो उनसे सिद्ध होता है कि ये स्वयं सबके ज्ञाता न थे तभी ये संकट में आये । एक कथानक यों बताया जाता कि एक देवता की स्त्री पर कोई पुरुष मुग्ध हो गया, उसने आराधना की देवता की, वह प्रसन्न हो गया । प्रसन्न होने पर कहा कि मांगो वरदान क्या मांगते हो ? तो आराधक ने कहा कि हमको यह वर दीजिए कि मैं जिसके सिर पर हाथ रखूं वह भस्म हो जाय । तो देवता ने कहा―अच्छा ऐसा ही हो जायेगा । पुरुष की नियत तो बदली ही थी । उसने सोचा कि हम इन देवता पर ही हाथ रखें तो ये भस्म हो जायेंगे और इनकी स्त्री हमें मिल जायेगी । सो जब वह पुरुष उस पर हाथ रखने चला तो वह डर कर भागा । विष्णु के पास पहुंचा । विष्णु ने उसकी छल बल से रक्षा की । स्वयं उसकी स्त्री का रूप धारण किया और उस भस्मासुर देव के पास पहुंचा । जब भस्मासुर ने उस स्त्री से प्रेम करना चाहा तो उसने कहा―आप मेरे से यों न मिलो, हमारे पति जब क्रीड़ा करते थे तो तांडव नृत्य करते थे । उस नृत्य में एक हाथ कमर पर और एक हाथ सिर पर रखा करते थे, आप भी ऐसा ही कीजिए तब हमसे मिलिये । जब भस्मासुर ने एक हाथ कमर पर और एक सिर पर रखकर तांडव नृत्य किया तो वह स्वयं भस्म हो गया । तो इस तरह छल बल करना, इस तरह के दंदफंद में पड़ना यह कोई भगवान का काम है क्या ? जो सर्वज्ञ होगा वह अपने परम आनंद स्वरूप में क्रीड़ा कर सकता है ।
देवस्मरण में कृतज्ञता की सिद्धि―जो पुरुष जानता देखता है, समस्त लोकालोक को प्रत्यक्ष एक साथ वही धर्म का मूल है, धर्म की मूर्ति है और धर्म का फल है । यहाँ कोई यह आशंका न करे कि साधुजनों में जो श्रुतकेवली होता है वह भी समस्त काल और लोकालोक को जानता है । तो वह सर्वज्ञ हो जायगा क्या ? ये आशंकायें न करना चाहिए कि सबको जानते के उपाय दो हैं―एक तो श्रुतज्ञान (परोक्ष ज्ञान) और एक केवलज्ञान । केवल ज्ञान ने समस्त लोक और अलोक को जान लिया और श्रुतज्ञान भी जान लेता है, मगर श्रुतज्ञान जानता है परोक्षरूप से, एक-एक पदार्थ को न्यारा करके नहीं । जैसे कोई बड़ा श्रुतज्ञानी हो गया तो वह यों कहेगा कि 343 घनराजू लोक है और इससे बाहर अनंत अलोक है । परोक्षरूप से कहा गया, ऐसा स्पष्ट जानता तो नहीं है कि यह जगह यह है, यह जगह यह है, जैसे आंखों से कुछ न देख लेते हैं इस तरह तो नहीं जानते, मगर केवली भगवान समस्त लोकालोक को स्पष्ट जानते हैं । तो प्रत्यक्ष और परोक्ष में बड़ा अंतर है । जो प्रत्यक्ष रूप से समस्त लोकालोक को जान ले वह है सर्वज्ञदेव । तो यों सर्वज्ञदेव के प्रसाद से मिला धर्म का स्वरूप सो धर्म के फल को साक्षात् समझने के लिए जो कृतज्ञता जगी, जिनके प्रताप से हमें धर्म का मार्ग मिला है उनका स्मरण करना ही चाहिए । इस कृतज्ञता के कारण इस गाथा में सर्वज्ञदेव का स्वरूप
बताते हुए भाव नमस्कार किया है ।