वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 312
From जैनकोष
जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि णव-विहं अत्थं ।
सुद-णाणेण णएहिं य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ।।312।।
सम्यग्दृष्टि की तत्त्वविषयक यथार्थ मान्यता―सम्यग्दृष्टि जीव आदरपूर्वक जीव अजीव आदिक 9 प्रकार के अर्थों को श्रुतज्ञान और नयों को यथार्थ जानता है, उसको कहते हैं शुद्ध सम्यग्दृष्टि । जीव, अजीव, आश्रव, बंध, सम्वर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप, ये 9 प्रकार के पदार्थ माने गए हैं । जीव किसे कहते ? जहां चेतना हो । जीव स्वयं सत् है, वह अपने आप चैतन्यस्वरूप है । और, अपने ही स्वभाव के कारण अपने में अपनी परिणति बनाता रहता है । सर्व पदार्थों से निराला है। अपने आपको भी देखिये― इसी तरह मैं जीव सर्व पदार्थों से निराला ज्ञानस्वरूप हूं और अपने में अपना उत्पादव्यय करता रहता हूं। मेरा अन्य किसी पदार्थ से कोर्इ संबंध नहीं है, इस तरह जीव तत्त्व की श्रद्धा करना सो सम्यग्दर्शन है। जीव के साथ संसार में अनादि परंपरा से कर्म का बंधन लगा हुआ है। वे कर्म अचेतन हैं लेकिन वे स्वयं अपने आपमें स्वतंत्र सत् हैं, उन कर्मों का परिणमन उनमें ही होता है। उनकी परिणति मुझमें नहीं होती। मेरा कर्म में अत्यंताभाव है। कर्म का मुझमें अत्यंताभाव है
।केवल निमित्तनैमित्तिक भाव से ऐसा हो रहा है कि कर्म का उदय होने पर मुझमें रागादिक भाव होते और रागादिक भाव होने पर कर्म में कर्मत्व का बंधन होता है । तो यों बंधन लग गया है पर वस्तुत: कर्म का परिणमन कर्म में हैं, मेरा परिणमन मुझमें है । यों कर्म की सब बातों को समझना यह कर्म की सच्ची श्रद्धा है । आश्रव―जब जीव राग भाव करता है तो उसका निमित्त पाकर कर्म में कर्मपना आ जाता है, यही आस्रव है और उन कर्मों में स्थित हो जाता है । कि यह इतने वर्षों तक कर्म बना रहेगा, यह बंध कहलाता है । जब जीव का मोह उपशांत होता है, ज्ञान वैराग्य में जीव चलता है तो कर्मों का बंधन रुक जाता है, यही संवर है और पहिले बँधे हुए कर्म झड़ जाते हैं, यह उसकी निर्जरा है और संवरपूर्वक निर्जरा होते-होते कभी कर्म बिल्कुल निकल जाते हैं आत्मा से यही उसका मोक्ष है । अब रहे पुण्य और पाप, ये आस्रव के भेद हैं । जो कर्म बंधे हैं उनमें कुछ तो होते पुण्यकर्म कुछ होते पापकर्म । पुण्य के उदय में इंद्रिय सुख की सुविधा मिलती है, पाप के उदय में असुविधायें मिलती हैं, लेकिन ज्ञानी पुरुष जानता है कि न तो पुण्य से मेरा निस्तारा होगा और न पाप से । पुण्य पाप से रहित केवल ज्ञानस्वरूप मैं अपने आपका अनुभव करूँ तो इस अनुभव के द्वारा ही मेरा संसार से निस्तारा हो सकता है ।