वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 313
From जैनकोष
जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्त-कलत्ताइ-सव्व-अत्थेसु ।
उवसम-भावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिण-मंत्तं ।।313।।
ज्ञानी पुरुष की वास्तविक अमीरी―जो पुरुष पुत्र कलत्र आदिक सर्व पदार्थों में घमंड नहीं करता है और अपने को उपशम भाव में भाता है व वर्तमान व्यक्तरूप अपने को तृणवत् मानता है, वह पुरुष सम्यग्दृष्टि है । वही इन बाह्य सब पदार्थों का तृणवत् सारहीन मान सकता है । जिसने सर्व पदार्थों से निराला अपने आपमें सहज ज्ञानमात्र अपने आपकी प्रतीति की है और जिसकी यह धुन बनी है कि यह मैं इस निज स्वरूप में समा जाऊं । मेरा ज्ञान इस ज्ञानस्वभाव को ही जाना करे, यही एक मात्र आवश्यक है यह जानकर जिसकी धुन अपने आपमें बन गयी है वह पुरुष जगत के वैभवों का क्या मूल्य करेगा ? आत्मा का कल्याण पाने के लिए आनंद इसी बात में है, यही कुंजी जिसको प्राप्त हो गयी है वह अपने अंदर तृप्त रहता है और अपने को अमीर अनुभव करता है । जिसे कुछ न चाहिए हो वही तो अमीर कहलाता है । वैभव के रहने पर वैभव के कारण अगर अमीर बताया जाय तो इसको कोई सिद्ध नहीं कर सकता । इसकी परिभाषा नहीं बनाई जा सकती कि अमीर कौन है ? लखपति अमीर जँचता है हजारपतियों को, करोड़पति अमीर जंचता है लखपतियों को सभी लोग अपने से अधिक धनिकों को देखकर अपने को गरीब अनुभव करते हैं । अमीर तो वह है जिसको कुछ न चाहिए हो । इस परिभाषा में से आप अमीरपने का निश्चय कर सकते हैं । जिस जीव को दुनिया में परमाणुमात्र भी बाह्यसंग न चाहिए, जिसने सारभूत अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया है और जाना है कि यही मेरा सर्वस्व है और यह अनुभवा कि इसके अतिरिक्त मुझे और कुछ न चाहिए वास्तव में अमीर वह है । जो लोगों को निरखकर लोगों से अपने बड़प्पन की आशा रखते हों या मैं इन लोगों में कुछ अच्छा कहलाऊं ऐसी भावना
रखते हो तो उनके तो मिथ्या अज्ञान का अंधकार बना हुआ है । रही यह बात कि जरूरत माफिक चाहिए यह सब कि जहाँ रहते हैं उसे बीच हमारी सही पोजीशन रहे, इसकी आवश्यकता तो है । तो जो पुरुष अपने मोक्षमार्ग में चल रहा है उसके इतना पुण्य अवश्य होता है कि लौकिक पोजीशन भी उसके यथायोग्य बनी रहती है । उसके लिए अलग से कुछ उद्यम नहीं करना होता है । कोई उद्यम करके धनार्जन नहीं कर पाता । उदय हो तो उसका साधन बनता है, तो वास्तविक अमीर वह है जो संसार में कुछ भी पदार्थ चाहता नहीं ।
ज्ञानस्वरूप का आदर करने वालों का स्पष्ट प्रतिबोध―भीतर में जिसकी यह धुन है कि मेरा ज्ञानस्वरूप मेरे ज्ञानस्वरूप में समा जाय बस इसी में ही पूर्ण आनंद है । कोई यदि यह कहे कि इस तरह की स्थिति बनायेंगे तो मरण हो जायेगा । यह शल्य की बात नहीं, इस स्थिति में मरण भी हो जाने दें इसी में आनंद है ? कोई यों शंका करेगा कि खुद-खुद में समा गया तो फिर बाह्य का कुछ ध्यान ही न रहेगा । फिर तो घर बिगड़ेगा, तो रहने दो, बिगड़ने दो, बिगड़ता कुछ नहीं है, तुम्हारा तो भला हो जायेगा, आनंद हो जायेगा । किसी भी क्षण यदि यह अपने स्वरूप में समा जाय और इसको बाहर में कुछ भी पता रहे तो इसका बिगाड़ नहीं है, किंतु उद्धार ही है । तो ऐसा जानकर जो सम्यग्दृष्टि जीव बाह्य कलत्र पुत्र मित्रादिक में किसी प्रकार का गर्व नहीं करता, मेरे इतने बच्चे है, ऐसा घर है, ऐसा धन वैभव है, ऐसी पोजीशन है । अरे ये सब तृण मात्र चीजें हैं, किसका गर्व है ? जिसको जो मिल गया, मिल गया, उदय है, मगर सारभूत कुछ नहीं है । बड़ी से बड़ी पोजीशन जिनको मिल जाय वहां भी हित और सार नहीं मिलता है । तो जो बाह्यपदार्थों को असार जानकर उनमें गर्व नहीं करता वह पुरुष सम्यग्दृष्टि है । शत्रु मित्र सभी में समान परिणाम रहता है । वह शांत भाव की भावना रखता है, शुद्ध परिणाम रूप से परिणमता है और अपने प्राप्त पोजीशन को तृणवत् मानता है । गर्वहीन पुरुष का यह लक्षण है कि वह अपने मायामयरूप को तृण मात्र समझता है, जिसे कहते हैं कि न कुछ । अपने को न कुछ मानने का अर्थ यह हैं कि इस पर्याय को वह न कुछ मानता है । ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव के बाह्यपदार्थों से परम उपेक्षा रहती हैं, मैं अकिंचन हूँ इस प्रकार की भावना रहती है । मेरा बाहर में कहीं कुछ नहीं है, मैं केवल मैं ही हूँ इस प्रकार का उसका स्पष्ट प्रतिबोध रहता है।