वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1152
From जैनकोष
साम्यमेव परं प्रणीतं विश्वदर्शिभि:।
तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तर:।।1152।।
समस्त विश्व में दर्शन कर लेने वाले अर्थात् सर्वज्ञ सर्वदर्शी जितेंद्रदेव ने यह ध्यान बताया है कि समतापरिणाम आ जाय। उत्कृष्ट ध्यान है यह। रागद्वेष न जगे, समता भाव आये, यही है उत्कृष्ट ध्यान। जिसके प्रसाद से संसार के समस्त संकट दूर होते हैं, उस ही ध्यान के प्रकाश करने के लिए यह सब शास्त्र का विस्तार बनाया गया है। कितनी तरह के शास्त्र हैं? कितने शास्त्र होंगे आचार्यप्रणीत? तो सौ-दो-सौ हजार, दो हजार, दस हजार कितने ही बता दो। बहुत-बहुत शास्त्र हैं पर उन सब शास्त्रों में लिखा क्या है? तत्त्व की बात क्या आती है? यह सब एक ही है क्या? समताभाव की शिक्षा, प्रथमानुपयोग हो, करणानुयोग हो, चरणानुयोग हो, द्रव्यानुयोग हो, कितने ही प्रकार के ग्रंथ हों उन समस्त जैन प्रणीत ग्रंथों में मर्म की बात यह बताया कि समतापरिणाम का आश्रय लो। प्रथमानुयोग में कथानकों द्वारासब कुछ बताकर यह शिक्षा दी गयी है कि महापुरुषों ने भी बड़े-बड़े वैभव पाकर अंत में समतापरिणाम उत्पन्न किया, उसके फल में निर्वाण पाया। वे महापुरुष जो बड़े बलिष्ठ थे, जिनका साम्राज्य एकछत्र था, उन्होंने भी संसार में ही रमकर अपना अंतिम समय नहीं बिताया। अंतिम समय बिताया त्याग में, तपश्चरण में, वैराग्य में। उससे पहिले बड़ी-बड़ी बातें की, बड़ा युद्ध किया, बड़ा परिवार बना, बड़ी इज्जत, कीर्ति फैली।बहुत-बहुत कार्य किया गृहस्थी में रहकर, किंतु अंत में उन सब महापुरुषों ने एक ही मार्ग का आलंबन लिया― त्याग का, तपश्चरण का, वैराग्य का सार मिलेगा तो ज्ञाता द्रष्टा रहने में।विरक्त रहने में मिलेगा। अन्य तो सब उपद्रव हैं, धोखा है अथवा कोई सार की बात नहीं है।