वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1153
From जैनकोष
साम्यभावितभावानां स्यात्सुखं यन्मनीषिणान्।
तन्मन्ये ज्ञानसांराज्यसमत्वमवलंबते।।1153।।
जिसने समताभाव से अपने को प्रभावित किया है अर्थात् समता का प्रयोग किया, समता की, भावना की ऐसे बुद्धिमान पुरुषों को जो सुख देता है―आचार्यदेव कहते हैं कि मैं तो ऐसा समझता हूँ, मानता हूँ कि वह ज्ञानसाम्राज्य की समता का आलंबन करता है। समतापरिणाम से केवल ज्ञान की उत्पत्ति होती है। योगीश्वर पहिले वीतराग बनते हैं पीछे सर्वज्ञ बनते हैं। रागद्वेष मोह ध्वस्त हो जाय ऐसी निर्मल अवस्था पहिले आती है उसके पश्चात् सर्वज्ञता प्रकट होती है अर्थात् अब वे परमात्मा हो गए। समस्त लोक को अपने केवल ज्ञान से स्पष्ट जाना करते हैं। जीव का प्रधान उद्देश्य है कष्ट न होना और शांतभाव बर्तना। तो शांति में कारण वीतरागता है। सर्वज्ञता तो वीतराग बनने का एक माहात्म्य है। सब जान लिया। सबके जान लेने से शांति नहीं आयी किंतु वीतरागता होने से शांति आयी। कम भी जाने कोई और रागद्वेष न हो तो शांति होगी। यद्यपि वह उत्कृष्ट शांति नहीं हे और स्थिर नहीं है, लेकिन वीतरागता का स्वभाव ऐसा है कि वहाँ शांति अवश्य आयगी। जहाँराग है वहाँ अशांति है। अपने आपमें शांति प्रकट करने के लिए राग परिणाम का त्याग करें ऐसा अपना सुदृढ़ निर्णय बनायें।