वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1164
From जैनकोष
चंद्र:सांद्रैविकिरति सुधामंशुभिर्जीवलोके,
भास्वानुग्रै: किरणपटलैरुंछिनत्त्यंधकारम्।
धात्री धत्ते भुवनमखिलं विश्वमेतच्च वायु,र्यद्त्साम्याच्छमयति तथा जंतुजातं यतींद्र:।।1164।।
जैसे चंद्रमा अपनी किरणों से सघन गरजता हुआअमृत बरसाता है इस ही प्रकार समतापरिणाम के धनी योगीश्वर अपने पौरुष के द्वारा जगत में निर्भयता का अमृत बरसाते हैं। चंद्रमा की किरणों को जो शीतल बनाता है उसको शीतलता आ ही रही है। इसी प्रकार योगीश्वरों की मुद्रा से, उनके आचरण से अपने आपमें अमृत का पान करते रहते हैं। योगीश्वरों के संसर्ग से भक्तजन अमृत तत्त्व का पान करते रहते हैं। जैसे सूर्य तीव्र किरणों के समूह को नष्ट कर देता हैइसी प्रकार यह तत्त्वज्ञानी योगीश्वर मजबूत श्रद्धा सहित तत्त्वज्ञान की किरणों से मोहरूपी समस्त अंधकार को नष्ट कर देते हैं। जैसे पृथ्वी समस्त बोझ को धारण किए हुए है फिर भी धीर गंभीर है। इसी से इसका नाम भी क्षमा है। क्षमा नाम पृथ्वी का भी है। तो जैसे यह पृथ्वी अनेक बोझ लादने पर भी क्षमाशील है इस ही प्रकार ये योगीश्वर अनेक के उपद्रव और प्रतिकूल व्यवहार के होने पर भी वे अपने स्वरूप से विचलित नहीं होते। समतापरिणाम की अतुल महिमा है। सुख शांति के लिए और किसी की जरूरत नहीं है। स्वयं तत्त्वज्ञान उत्पन्न करें और अपने को रागद्वेष रहित समतापरिणाम में लगा हुआ बनायें, रागद्वेष छोडने से ही अपना भला होगा, रागद्वेष से भला न होगा। जिंदगी गुजर रही है, रागद्वेष करते जा रहे हैं। जिंदगी गुजर चुकती है परयह जीव उस रागद्वेष के संस्कार के कारण आगे के समय में भी वह दु:ख का बोझ उठा लेता है। समतापरिणाम का बहुत अधिक महत्त्व है। उसमें ही समस्त चमत्कार बसे हुए हैं। हमको ही इस ओरयत्न करना चाहिए कि हमारी कषायें शांत हों और समता-अमृत का पान करके निराकुल बने रहें।