वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1165
From जैनकोष
सारंगी सिंहशाबं स्पृशति सुतधिया नण्दिनी व्याघ्रपोतं,मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकांता भुजांगम्।
वैरोण्या जन्मजातान्यपि गलितमेंदा जंतयोऽंये त्यजण्ति,श्रित्वा साम्यैकरूढ़ं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम्।।1165।।
आत्मा का हित समतापरिणाम में है। मोह रागद्वेष का विकार न जगे उस समय जो ज्ञान की विशुद्ध वृत्ति बनती है, केवल ज्ञाता द्रष्टा रहता है यह स्थिति हितपूर्ण है और शेष जितने भी जमघट हैं, समागम हैं, पोजीशन है, वैभव हैं ये सब यद्यपि गृहस्थी में चाहिए, मगर आत्मा के हित के लिए कोई सारभूत झमेला नहीं है। हाँ इतनी बात अवश्य हे कि गृहस्थी में भी एक धर्म है, साधु भी एक धर्म है। साधु धर्म साक्षात् मोक्षमार्ग है और गृहस्थ धर्म परंपर्या मोक्षमार्ग है। साधु प्रशंसा के योग्य है, किंतु गृहस्थ भी अपने नियम से, सदाचार से, धर्मानुराग से रहे तो वह भी प्रशंसा के योग्य है। जिस गृहस्थ को हिंसा के बचाव का ख्याल हो, झूठ न बोले, सत्यता का बर्ताव करे, किसी चीज की चोरी न करे, परस्त्री सेवन भी न करे, संसार की समस्त स्त्रियों को माँ, बहिन, पुत्री के समान निरखे, और प्राय: ऐसा होता है। जब गृहस्थ के स्वस्त्री है तो उसका चित्त स्वस्त्री में ही तृप्त हो जाता है तत्त्वज्ञानी गृहस्थ का। फिर उसे परस्त्री की वांछा नहीं रहती है और परिग्रह में भी तृष्णाभाव न जगे। ऐसा अपना निर्णय बनायें कि भाग्यानुसार जो कुछ आय होती हे तो यह कर्तव्य है कि उसमें ही विभाग बना लेना कि हम इतना धर्म में, इतना पालन पोषण में, इतना और कार्यों में खर्च करें, इस प्रकार के विभाग बनाकर गुजारा करे, उसमें ही तृप्त रहे और अपना जीवन प्रभु भक्ति के लिए, साधुसेवा के लिए और आत्मा के ज्ञान ध्यान के लिए समझे, ऐसी वृत्ति जिस गृहस्थ के है वह गृहस्थ भी प्रशंसा के योग्य है, ऐसे गृहस्थ की भी देवता पूजा करते हैं। तो जितनी भी शांति मिलती है समतापरिणाम से मिलती है।बड़े होकर छोटे लोगों पर क्षमा कर दें, जितनी कुछ अपनी हानि सह सकते हैं उतनी सह लें और दूसरों को क्षमा कर दें, कोई इस वृत्ति से रहता है तो उस धनिक की शांति देख लो कितनी है, और जो पैसे-पैसे पर जान दे देता है और कड़ा बर्ताव रखता हैइसके चित्त में देखिये कितनी अशांति रहती है? तो वह गृहस्थ भी प्रशंसा के योग्य है जो ज्ञानी है, धीर है, उदार है, समता की झलक उसमें भी आयी है तो शांति समता से प्राप्त होती है। उस समता का क्या प्रभाव है? स्वयं पर तो यह प्रभाव है कि शांति रहा करती है। दूसरे जीवों पर क्या प्रभाव होता― सो आचार्य कहते हैं कि उन योगीश्वरों के चरणों के निकट हिरणी सिंह के बच्चे से खेलती है। उनका जो जन्मजात बैर परस्पर में था वह समाप्त हो जाता है। जिस पुरुष के निकट जाये उस प्रकार का कुछ न कुछ प्रभाव निकट जाने वाले पर पड़ता है। जहाँसमता के पुंज योगीश्वर अपनी-अपनी शांतमुद्रा में विराज रहे हैं तो उनकी शकल निरखकर ये क्रूर जीव भी अपने क्रूर भाव छोड देते हैं। ये जीव भी समझते हैं। किसी कुत्ते को ललकारें या जरा तेज आँखें निकालकर ही देखें, मुख से भी न बोलें तो वह कुत्ता गुर्राने लगता है। तो उसमें समझ है या नहीं? और कोई अपनी ठीक शांत मुद्रा में रहे, अपने काम से काम समझता हुआ निकल जायतो कुत्ता भी उस पर उपद्रव नहीं करता। वह भी जानता है कि यह मुझ पर कषाय कर रहा है।
देखो दूसरे की कषाय दूसरे को सुहाती नहीं है। अज्ञानियों की बात कह रहे हैं। खुद के क्रोध, मान, माया, लोभ आदि तो खूब सुहा रहे हैं पर दूसरे के नहीं सुहाते हैं। जो खुद लोभ कर रहा है उसे वह लोभ बड़ा प्यारा लग रहा है और दूसरा पुरुष लोभी हो, अधिक लालच करे तो वह सहन नहीं होता, और कोई क्षमाशील हो, बड़ा नम्र सरल हो, निष्कपट हो, लोभ लालच भी न हो तो ऐसा पुरुष साधारण जनों को भी सुहा जाता है। तो वन में ऐसे योगीश्वर विराजे हैं जिनके रागद्वेष रंच नहीं है, अपने एक विशुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा की उपासना में लग रहे हैं ऐसी विशुद्ध मुद्रा वाले साधु के समीप सिंह हिरण वगैरह भी अपना बैर छोड दें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। वे योगीश्वर जिनका कि मोह क्षीण हो गया है, कषाय मल जिनका धुल गया है ऐसा समतापरिणाम में लगे हुए योगीश्वरों के निकट हिरणी तो सिंह के बच्चे को अपने बच्चे की तरह स्पर्श करती है और गाय व्याघ्र के बच्चे को अपना पुत्र समझकर उसे दुग्ध-पान करा लेती है। यहाँ मंदिर में ऐसे चित्र भी बने हुए हैं कि एक बड़े बर्तन में सिंहनी और गाय दोनों पानी पी रहे हैं। सिंहनी का बच्चा गाय का दुग्ध चूस रहा है और गाय का बछड़ा सिंहनी का दूध चूस रहा है। तो ऐसी स्थिति उन योगीश्वरों के निकट बन जाती है जो रागद्वेष से दूर हैं, जो साम्य भाव में लीन रहते हैं, उन योगीश्वरों के समता का इतना बड़ा प्रभाव है। ये जानवर अपनी प्राकृतिक क्रूरता भी तज देते हैं। बिलाव पक्षियों का दुश्मन है लेकिन उन योगीश्वरों के चरणों के निकट बिलाव भी कोई बैठा हो तो वह हंस के बच्चे के स्नेह के वश होकर उसके साथ खेलता है। और मयूरनी भुजंग का स्पर्श करती है। सर्प का और मोर का भी बैर है। जहाँमोर बोला करते हैं वहाँ सर्प बाहर नहीं फिरा करते हैं। वे डर के कारण बिलों में ही घुसे रहते हैं, लेकिन योगीश्वरों के चरणों के निकट बिलाव भी हँस के बालक से स्नेह करते हैं ये सब क्रूर जानवर योगीश्वरों के चरणों के निकट आकर अपने मद को दूर कर देते हैं और क्रूरता, बैर भाव, दुश्मनी ये सब उनके नष्ट हो जाते हैं। योगीश्वरों की समता का इतना उच्च प्रभाव है।