वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1215
From जैनकोष
मूर्छादीनि शरीरिणामविरतं लिंगानि बाह्यान्यल-
मार्ताधिष्ठितचेतसां श्रुतधरैर्व्यावर्णितानि स्फुटम्।।1215।।
आर्तध्यान के बाह्य चिन्ह क्या हैं? जब आर्तध्यान होता है जीव के तो उसकी चेष्टा कैसी बन जाती है? ऐसे चिन्ह इस छंद में बताये जा रहे हैं। जिसको आर्तध्यान करने की प्रकृति है, जिसके आर्तध्यान अधिक बना रहता है उसको प्रथम तो शंका होती है। आर्तध्यान वाला हर जगह शंका का स्वभाव रखता है। कोई अनोखी बात न हो जाय, कोई गजब की बात न बीत जाय, यों आर्तध्यान का स्वभाव बना रहता है। पहिली बात तो यह है, दूसरी बात यह है कि जिसको आर्तध्यान की प्रकृति पड़ी है उसको शोक रहा करता है। देखो कैसी बातें इस जीव पर गुजर रही हैं। ज्ञान और आनंद इस जीव का स्वाभाविक गुण है, पर जब ज्ञान बिगड़ता है तो ऐसी-ऐसी कल्पनाएँ जगती हैं। जिसके आर्तध्यान की प्रकृति है उस पुरुष की बाह्य पहिचान क्या है? प्रथम तो उसे हर बात में शंका रहा करती है, इसके पश्चात् शोक होता है। आर्तध्यान में शोक की जगह प्रसन्नता नहीं मिल सकती, पश्चात् भय होता है। आर्तध्यान में भय की प्रमुखता है। इष्टवियोग न हो जाय ऐसा भय बनाये वहाँ ही आर्तध्यान है। किसी अनिष्ट का संबंध हो, उसका चिंतन बने वह आर्तध्यान बनता है। आर्तध्यान करना जीव का स्वभाव नहीं है लेकिन जब जीव पर अज्ञान सवार है तो आर्तध्यान उसको होगा ही। स्वयं है आनंद रूप। जैसे कोई पदार्थ बनता है तो किसी बाडी को लिए हुए होता हे ना? कुछ तो उसका स्वरूप है। जैसे पुद्गल का स्वरूप है रूप, रस, गंध, स्पर्श तो जीव का भी तो कुछ स्वरूप होगा। वह स्वरूप है ज्ञान और आनंद। पुद्गल का तो ढेर मिलेगा, पिंड मिलेगा, कड़ापन है, और आत्मा में मिलेगा ज्ञान और आनंद। केवल जानकारी इसका स्वभाव है और शुद्ध जानकारी रहे तो आनंद बना रहे यह स्वभाव है, लेकिन जब अपने आपको असली रूप में नहीं माना गया, अन्य पर्यायरूप मान लिया गया तो इसको आनंद की दृष्टि कैसे मिल सकती है? आर्तध्यान जगे तो आर्तध्यान वाले के भय बराबर बना रहता है। इसके पश्चात् उसके प्रमाद होता है। प्रमाद में शिथिल होने में वह क्लेश का अनुभव करता है। जब आर्तध्यान किया तो भीतर बाहर सब जगह थक गया यह जीव, क्योंकि कष्टरूप अनुभव न करने का बड़ा श्रम होता है। तो उस थकान में प्रमाद होता है। आर्तध्यान करने वाले पुरुष के चिन्ह बताये जा रहे हैं। आर्तध्यानी पुरुष क्या करता है? जब सहा नहीं जा सका तो वह क्लेश मानता, फिर चित्त का श्रम करता है। अर्थात् चित्त भ्रांत रहता है, एक जगह चित्त टिक नहीं सकता, क्योंकि अंतर में क्लेश है। और क्लेश है केवल भ्रम का। जैसे कोई सा भी क्लेश उदाहरण में ले लो। किसी भी प्रकार का क्लेश माना जा रहा हो तो भली प्रकार निरखोगे तो उसकी जड़ कुछ नहीं है। जड़ है केवल कल्पना की, किसी भी प्रकार का क्लेश हो कल्पना की जड़ पर ये सब क्लेश आधारित हैं। अपने सही स्वरूप का भान हो। मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानमात्र आत्मा हूँ ऐसा अपने आपके स्वरूप का भान हो वहाँ क्लेश का नाम नहीं रह सकता। स्वरूप से चिगे, बाहर कुछ खोजने लगे तो वहाँ क्लेश हो जाता है।
आर्तध्यान पुरुष का चित्त एक जगह लगता नहीं। कुछ पागलपनसा छा जाता है। कितनी ही बुढ़िया रो-रोकर अपनी आँखें फोड़ लेती हैं। यदि किसी बालक का वियोग हो गया तो कहो सारा जीवन उसका रोते-रोते ही बीते। एक बुढ़िया थी, उसके थे 5 लड़के। सो उसमें से एक लड़का गुजर गया। अब बुढ़िया का ख्याल उसी लड़के का बना रहे और रोते-रोते अपने दिन गुजारे। 4 बालक समझाते हैं― अरी माँ तू क्यों रोती है? अभी हम चार लड़के हैं, हम चारों को देखकर तू प्रसन्नता से गुजार। लेकिन वह बुढ़िया कहे बेटा ! हमारा ध्यान तो एक उसी लड़के पर बना रहा करता है। वह लड़का तो हमें भूलता ही नहीं है। जब दूसरा लड़का गुजर गया तो फिर बुढ़िया रो-रोकर जीवन गुजारे। तीन लड़के समझाते हैं― अरी माँ अभी हम तीन लड़के जीवित हैं, हम तीनों को देखकर तू प्रसन्न रह। पर बुढ़िया यही कहे कि मुझे तो बस वे दो ही लड़के नहीं भूलते हैं। उनका ही ध्यान बराबर बना रहता है। इसी प्रकार से वे सभी लड़के धीरे-धीरे गुजर गए, और हर लड़के के गुजरने पर वह बुढ़िया उसी तरह से कहे और रो-रोकर अपना जीवन गुजारे। तो इस आर्तध्यान में बुद्धि खराब हो जाती है। पागलपन सा छा जाता है। आत्मध्यानी पुरुष को अपने आत्मा का भी भान नहीं रहता है। तो समस्त परपदार्थों से भिन्न अपने आपको अनुभव कर प्रसन्न रहें। संसार में मेरा कहीं कुछ नहीं ऐसा समझकर अपने आपको ही अपना शरण समझें, अपने आपके ही निकट रहें तो लाभ की बात होगी। आर्तध्यान करना तो एक बिल्कुल मूढ़ता की बात है। अपने आपको अपने अंदर में ही देखिये और अपने आपको प्रसन्न रखिये। मेरा कहीं भी कोई शरण नहीं है ऐसा समझकर अपने आपका शरण ग्रहण करना चाहिए। आर्तध्यान की प्रकृति वाले पुरुष के फिर विषयों में उत्सुकता जगती है। इस आर्तध्यान में जो जीव दु:ख भोगता है उसकी शांति के लिए एक यह उपाय सूझता है कि विषयों में प्रगति करे, विषयों की उत्सुकता जगे तो यह आर्तध्यान का चिन्ह है। आर्तध्यानी का एक चिन्ह और बताया है― उसे बारबार निद्रा भी आती है। हालांकि जिसे बहुत अधिक क्लेश होता है उसकी निद्रा भंग हो जाती लेकिन आर्तध्यान करने से गुणानुराग में इतनी अधिक थकान हो जाती है कि बड़ी जल्दी निद्रा आ जाती है, पर निद्रा का भंग भी बड़ी जल्दी हो जाता है। तो ऐसे जल्दी निद्रा का आना और जल्दी ही निद्रा का भंग होना ये बातें इस आर्तध्यानी पुरुष के चलती रहती हैं।
आर्तध्यानी पुरुष के शरीर में जागरूकता नहीं रहती, उसमें एक जड़ता सी आ जाती है। इस तरह शरीर जड़ बन जाता है और फिर उसको बेहोशी हो जाती है। आर्तध्यान के परिणाम का तो यही फल है। जैसे किसी को पता न हो कि यह मेरा पुत्र है और वह कितने ही क्लेश पा रहा हो तो भी इसके चित्त में कुछ भान नहीं होता। और कदाचित् गुजर भी जाय तब भी चित्त में कोई वेदना या अनुकंपा नहीं होती। कुछ समय बाद मालूम पड़ा कि यह मेरा ही पुत्र है तो इतनी बात के मालूम पड़ते ही वह गिर जाता है, बेहोश हो जाता है। तो आर्तध्यान का आखिरी फल है बेहोश हो जाना। कितने ही लोग तो इस आर्तध्यान के क्लेश में अपने प्राण भी गवाँ देते हैं। कोई धर्म का भी थोड़ा संबंध रखकर आर्तध्यान करे वह भी उतना ही दु:खी होता है, कोई विषय संस्कार बनाकर आर्तध्यान करता है वह भी उतना ही दु:खी होता है। जब अंजना की सास ने दोष लगाकर निकाल दिया और अंजना भटकती रही, फिर चाहे कुछ भी हुआ, उसके पुण्य का उदय था जब पवनंजय को पता चला कि अंजना को दोष लगाकर निकाल दिया गया तो यह प्रतिज्ञा की कि अमुक समय तक अगर हमको अंजना नहीं दिखती तो अग्नि में जलकर आत्महत्या कर लेंगे। जब पवनंजय अग्नि की चिता बनाकर आत्महत्या करने वाला था उसी समय खबर मिली की अंजना अपने मामा के घर भली प्रकार सुख से है, और उसका बेटा हनुमान बड़ा प्रतापी है। तो ऐसे-ऐसे आर्तध्यान होते हैं कि लोग अपने प्राणों को भी गवाँ देते हैं। इन आर्तध्यानों की जड़ है केवल कल्पना। आत्मा को कोई पकड़े नहीं है, यह छेदा-भेदा नहीं जा सकता, इस आत्मा पर किसी भी प्रकार का कोई उपद्रव नहीं कर सकता है, इस आत्मा में क्लेश की कोई बात नहीं है, पर यह जीव स्वयं कल्पनाएँ बना लेता, संसार में अपनी इज्जत चाहता, नाम चाहता, तो ऐसे-ऐसे पर्यायसंबंधी संस्कार बनाने से इस जीव को आर्तध्यान होता है।
आर्तध्यान का फल अच्छा नहीं है, इस कारण ऐसा ज्ञान बनाना चाहिए कि कैसी भी पीड़ा आये, कोई भी उपद्रव आये उसमें भी हँसकर रह सकें, उसका प्रभाव अपने आप पर न आ सके। जो आर्तध्यान करता है उसके ऐसी-ऐसी विडंबनाएँ होती हैं। ये उसके बाह्य चिन्ह हैं ऐसा बड़े-बड़े प्रकांड विद्वानों ने बताया है। यों ध्यान के इस ग्रंथ में इस समय आर्तध्यान की बात बतायी गई कि ये जीव के अहितरूप ध्यान हैं। आत्मध्यान ही उपादेय है। जो भी होता है होने दो, पर अपने आपको जो दु:खी अनुभव करेगा तो उसमें अपना ही विनाश है, अपना ही अकल्याण है। कुछ भी होता हो तो सबसे निराले मेरे आत्मा से गया क्या? सारा धन बिगड़ जाय, गृह गिर जाय, जो भी अनर्थ लोक में माने जाते हैं वे सब हो जायें तिस पर भी मेरा आत्मा तो अपने स्वरूप में सबसे निराला है। यह तो सदैव आनंदमय है ऐसा निर्णय करके अपने आपको दु:खी अनुभव करने का साहस न करना चाहिए। और मैं आनंदस्वरूप हूँ ऐसी ही भावना, ऐसा ही ध्यान अपना बनाना चाहिए। यह सब होता है मोह छूटने के प्रताप से, मोह छूटता है तत्त्वज्ञान से। इस कारण तत्त्वज्ञान में अधिक यत्न हो जिससे भेदविज्ञान जगे और संसार के सारे संकट अपने दूर हों। उस उपाय में ज्ञानवृद्धि का यत्न करना चाहिए।