वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1214
From जैनकोष
अनंतदु:खसंकीर्णमस्य तिर्यग्गते: फलम्।
क्षायोपशमिको भाव: कालश्चांतमुर्हूर्त्तक:।।1214।।
आर्तध्यान का फल क्या है? तिर्यंचगति मिलना। नरक गति से भी तिर्यंचगति खोटी मानी गयी है। हालांकि नरकगति में दु:ख बहुत हैं, मारा कांटा और वहाँ की भूमि में सर्वत्र क्लेश भरा है। होते तो वे संज्ञी पंचेंद्रिय ही ना, सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति वहाँ हो सकती है और तिर्यंचगति में एकेंद्रिय बन गए, पेड़ हुए, पृथ्वी हुए, निगोद हुए अब इन्हें क्या सुध है? उनको कल्याण का अवसर नहीं है। तो तिर्यंचगति प्राप्त होना यह है आर्तध्यान का फल। जिसमें अनंत दु:ख बसे हुए हैं वहाँ देखने में भले ही लगे कि यह वृक्ष खड़ा है, ये खूब हरे भरे हैं, ये खूब झूम रहे हैं, ये तो बड़े सुखी होंगे, पर उनका क्लेश वे ही जानें। पेड़ बड़े कष्ट का अनुभव कर रहे हैं। तिर्यंचगति में अनंत दु:ख हैं, वह फल है आर्तध्यान का, और आर्तध्यान है क्षायोपशमिक भाव। ध्यान होना, इसमें तो कुछ ज्ञान भी चाहिए। तो आर्तध्यान क्षायोपशमिक परिणाम है, ज्ञानावरण क्षायोपशमिक हो, कुछ विज्ञान हो तो यह ध्यान बनता है, और जिसमें जितना क्षयोपशम विशेष है और उदय हो पाप का, मिथ्यात्व का तो उसके आर्तध्यान विशेष संभव है। यह आर्तध्यान क्षायोपशमिक परिणाम है, और इसका समय अंतर्मुहूर्त है। अंतर्मुहूर्त के बाद ध्यान बदल जाता है। एक विषय में ध्यान अंतर्मुहूर्त से ज्यादा नहीं टिकता। तो यह ध्यान अंतर्मुहूर्त तक रह पाता है। तो तिर्यंचगति का दु:ख मिलना यह आर्तध्यान का फल है।
शंकाशोकभयप्रमादकलहश्चित्तभ्रमोद्भ्रांतय:,उन्मादो विषयोत्सुकत्वमसकृन्निद्रांगजाड्यश्रमा:।