वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 136
From जैनकोष
संयोगे विप्रयोगे च संभवे मरणेऽथ वा।
सुखदु:खविधौ वास्य न सखान्योस्ति देहिन:।।136।।
संयोग वियोग में जीव के साथी का अभाव―इस देहधारी का कोई सखा नहीं है। चाहे संयोग की स्थिति हो, चाहे वियोग की स्थिति हो, किसी भी जगह इस जीव का कोर्इ मित्र नहीं है। अनिष्ट संयोग होता है तो इस जीव को अकेला ही दु:ख भोगना होता है, कोई साथी नहीं है। इष्ट संयोग हो तो वहाँ भी जो गुजरता है परमार्थ से वह भी दु:ख ही है, क्षोभ ही है। उस क्षोभ को भी वह जीव अकेला ही सहता है। कोई इसका दूसरा साथी नहीं है। वियोग के काल में प्रत्यक्ष देखा करते हैं कि सबको अकेला ही मरना होता है और घर में जो लोग जीवित हैं वे अकेले ही दु:ख भोगते हैं।
मरण में टोटा किसका―इस प्रसंग में जरा एक बात पर तो दृष्टि डालो कि एक व्यक्ति मर गया और घर के 7-8 व्यक्ति उसमें दु:खी हो रहे हैं, ऐसी स्थिति में यह तो बतलाओ कि टोटे में मरने वाला रहा या घर के जिंदा बचे हुए लोग टोटे में रहे? अरे मरने वाला तो चला गया, वह नहीं रो रहा है। वह तो जैसे कर्म उसने किये वैसी ही गति में होगा। अच्छा कर्म किया तो स्वर्ग में जाकर देव हुआ, या कहीं अच्छे उच्चकुल में उसने मनुष्यदेह धारण किया। तो वहाँ तो यह जीव बहुत सुख में है और ये जिंदा बचे हुए घर के 7-8 लोग यहाँ हैरान हो रहे हैं। उसके मरने का दु:ख और फिर दिन भर लोग आ रहे हैं, तांता लगा है तो उनको देख-देखकर भी दु:ख बढ़ता है और कभी दु:ख भी न बढे़ तो झूठमूठ होकर अश्रु बहाकर परेशानी तो करनी ही पड़ती है और यह बात एक दिन की नहीं कम से कम 12-13 दिन तो मुकर्रर कर ही दियों, तब तक तो बराबर रोते ही चलो। कोई किसी दिन आया, कोई किसी दिन आया तो मरने वाला टोटे में रहा या परिवार में जीवित बचे जो लोग हैं वे टोटे में रहे?
अज्ञान में वास्तविक टोटा―भैया ! टोटे वाले का असली उत्तर तो अपने ज्ञान और अज्ञान का उत्तर है। जिस जीव के अंतर में ज्ञान बना हुआ है वह जीव तो लाभ में है और जिसके मोह अज्ञान बना है वह जीव अलाभ में है। संयोग हो, वियोग हो वहाँ भी यह जीव अकेला ही सुख दु:ख भोगता है, ऐसे ही जन्म अथवा मरण हो उसमें भी यह जीव अकेला ही है, दूसरा कोई भी इसका साथी नहीं है। ये जन्म मरण के चक्कर लगे हैं यह एक बड़ी परेशानी है। ज्ञानी जीव की दृष्टि में जन्म और मरण दोनों एक समान नजर आते हैं, जन्म में कौनसी नफे की बात हुई और मरण में कौनसी हानि की बात हुई?
मरण का महत्त्व―कहो मरण के समय में परिणाम विशुद्ध रह सकते हैं और जन्म के समय में विशुद्ध नहीं रह सकते हैं। ऐसी बात दूसरों के लिए ही न देखो। खुद के जीव पर तो कहो मरण के समय विशुद्ध परिणाम रहें क्योंकि जीवन में खूब सीखा है, समझा है, अनुभव किया है, आत्महित के लिए उसका अब प्रयोग कर सकता है। पर जन्म समय में कोई सावधान परिणामों से नहीं जन्मता, बेहोशी ही बनी रहती है। कई दिन तक इंद्रियाँ भली प्रकार काम न कर सकेंगी। जन्म समय में किसी को समाधि उत्पन्न नहीं होती, पर मरण समय में इस जीव को समता, उपाधि, ये सब भाव जग सकते हैं। ज्ञानी जीव तो जन्म की अपेक्षा मरण को महत्त्व देता है, मरण के समय में समाधि परिणाम करता है।
सर्वत्र एकाकित्व के परिज्ञान से शिक्षा―यह जीव जन्मता तो अकेला, मरता तो अकेला। इसी प्रकार जितने भी सुख दु:ख इसे प्राप्त होते हैं उन्हें यह अकेला ही भोगता है। जो पुरुष अपने आपको इस संसार-वन में अकेला अनुभव करता है और इस प्रकार अकेला अनुभव करता है कि परजीव से निरपेक्ष होकर, परजीवों में राग मोह से आसक्त न होकर अपने आपमें केवल अपने स्वरूप को निहारे, ऐसा अकेलापन जो जीव निरखता है उस जीव का ही कल्याण हो सकता है। आज गृहस्थावस्था में इतने परिजनों का समागम है, यह समागम तब सफल है जब हम अपने धर्म के लिए उत्साह जगायें और जो कुटुंब में परिजन हैं वे भी धर्म में लगें, इस प्रकार की प्रेरणा से घर का वातावरण धार्मिक बन सकता है तो यह गृहस्थी का समागम सफल है और यदि मोह राग विवाद द्वेष विरोध में ही यह जीवन गया तो जीवन पाना निष्फल है। हमारा सबका यह कर्तव्य है कि अपने को एकाकी समझकर क्रोध, मान, माया, लोभ, द्वेष, विरोध, ईर्ष्या इन सब भावों से अपने को दूर करें, धर्मभावों में अपना आदर बढ़ायें और जिस प्रकार हम अपने आत्मा के सहज स्वरूप का अनुभव कर सकें उसी प्रकार का यत्न करें, रत्नत्रय की साधना से ही यह मनुष्य-जीवन सफल है।