वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1528
From जैनकोष
अत: प्रभृति नि:शेषं पूर्वं पूर्वं विचेष्टितम्।
ममाद्यज्ञाततत्त्वस्य भाति स्वप्नेंद्रजालवत्।।1528।।
यहाँ से लेकर अथवा अब से लेकर तत्त्वस्वरूप के जानने से पहिले मैंने जो-जो चेष्टाएँकी, अब स्वरूप जानने के बाद उसे अब वे सब चेष्टाएँ इंद्रजाल की तरह असार प्रतिभास होती हैं।इतना तो अपने जीवन में भी सब देख सकते हैं कि बचपन में जो-जो कार्य किया, जैसे-जैसे रहे वे सब असार लग रही हैं। जवानी में जो-जो चेष्टाएँ की वे सब चेष्टाएँ अब असार जँच रही हैं, इतना तो अब भी अपने आपको विदित होता है, फिर ज्ञान जग जाने पर यदि वह अज्ञान की दशा जिस किसी से भी मोह बढ़ाते, जिस किसी से भी स्नेह लगाते, जिस किसी को भी हृदय में बसाते ये सब असार मालूम होती हैं कि वे सब चेष्टाएँ हमारी अज्ञानदशा में थी। जैसे किसी ने अपनी भूलभरी बातें पहिले की, भूल गलती होने पर ऐसी जँचती हैं कि परपदार्थों में यह मैं हूँ, यह मेरा है, ऐसा भ्रम होने पर जो चेष्टाएँ इसे कुछ सार सी जँच रही हैं, अब भ्रम के मिट जाने पर ये सब चेष्टाएँअसारवत् प्रतीत हो रही हैं। कोई गलती हो जाय तो सही दिमाग बनने पर जैसी गलती एक मैं किसी अज्ञान से कर गया, मैं किसी बेहोशी में कर गया ऐसा प्रतीत होता हे, ऐसे ही भ्रम में जो-जो मैंने चेष्टाएँ की, वे सब चेष्टाएँहमें असार जँच रही हैं। वे किस अज्ञान में हो गई? वह सब अविद्या का प्रताप है, इसे यह सब असार जँचता है।